-जयसिंह
रावत
अपने जन्म से
ही राजनीतिक अस्थिरता
झेल रहे उत्तराखण्ड
में त्रिवेन्द्र सिंह
रावत की सरकार
का पहला साल
अपने प्रचण्ड बहुमत
का डंका पीटते-पीटते और चुनावी
जंग में खेत
रही प्रतिद्वन्दी कांग्रेस
की करारी हार
पर अट्टाहस करते-करते गुजर
गया मगर शासन-प्रशासन की तकनीकी
उल्झनों, राजनीतिक मजबूरियों और
विशेषकर आर्थिक कंगाली के
चलते सरकार चाहते
हुये भी ‘‘गवर्नमेंट
विद डिफरेंस’’ होने
का सबूत नहीं
दे पायी है।
राजनीतिक तौर पर
भी देखा जाय
तो असंतोष की
मामूली सुगबुगाहट के बावजूद
त्रिवेन्द्र सरकार का एक
साल तो निष्कंटक
निकल गया मगर
साथ ही दूसरे
साल की चुनौतियों
का पहाड़ अपने
पीछे अवश्य छोड़
गया है। इस
साल सरकार को
निकाय चुनाव की
चुनौतियों से पार
पाने के साथ
ही 2019 के लोकसभा
चुनाव से पहले
कुछ कर दिखाना
है अन्यथा राज्य
का पिछला राजनीतिक
इतिहास पदासीन सरकार के
लिये अनुकूल नहीं
रहा है।
लोकतंत्र
में सरकार चाहे
किसी की भी
हो, हर कोई
से बेहतर होने
का दावा करता
है और उसका
लक्ष्य पिछली सरकार से
बेहतर काम करने
का होता है,
ताकि वह जनता
की पसंदीदा बन
जाय और आने
वाले चुनावों में
भी निरंतर जनता
का समर्थन पाती
रहे। हरीश रावत
जैसे धुरंधर और
अनुभवी राजनीतिक प्रशासक की
सरकार के जाने
के बाद जब
त्रिवेन्द्र रावत की
सरकार आयी तो
उन्होंने भी हरीश
रावत से कही
बेहतर शासन-प्रशासन
देने और विकास
के मोर्चे पर
कहीं बेहतर साबित
होने का दावा
किया था। हरीश
रावत सरकार से
कहीं अधिक साफ-सुथरी और कहीं
अधिक विकासोन्मुखी तथा
परिणामोन्मुखी होने के
लिये त्रिवेन्द्र सरकार
ने निश्चित रूप
से प्रयास तो
किये हैं मगर
उन प्रयासों के
परिणाम अभी तक
आने बाकी है।
चुनावों
में मतदाताओं को
आकर्षित करने के
लिये प्रायः सभी
राजनीतिक दल बढ़चढ़
कर वायदे करते
हैं। भाजपा ने
भी प्रदेशवासियों को
लुभाने के लिये
डेढ सौ से
अधिक वायदे किये
थे। चुनावी वायदों
पर कोई दल
शतप्रतिशत खरा उतरता
हो ऐसा कोई
उदाहरण नजर नहीं
आता है। इसीलिये
अब राजनीतिक दल
चुनावों में घोषणापत्र
की जगह दृष्टिपत्र
जारी करने लगे
हैं। वैसे भी
अगर कोई दल
अपने वायदों के
प्रति इतना ईमान्दार
हो भी तो
एक साल में
सारे वायदे कोई
भी पूरे नहीं
कर सकता। इसलिये
त्रिवेन्द्र सरकार से भी
पहले ही साल
सारे वायदे पूरे
किये जाने की
अपेक्षा नहीं की
जा सकती लेकिन
चुनाव के दौरान
भाजपा ने कुछ
वायदे ऐसे भी
किये जिनके लिये
समय सीमा तय
की गयी थी।
मसलन सत्ता में
आने के 100 दिन
के अंदर लोकायुक्त
का गठन करने
का भी एक
वायदा था। लेकिन
100 दिन तो रहे
दूर अब तो
साल गुजर गया
मगर लोकायुक्त अभी
विधानसभा में ही
फंसा हुआ है।
सुप्रीम कोर्ट ने तीन
महीनों के अन्दर
लोकायुक्त का गठन
करने का निर्देश
तो दिया है,
मगर इस आदेश
के पालन की
वाध्यता तब ही
है जब विधानसभा
से लोकायुक्त बाहर
निकलेगा। त्रिवेन्द्र सरकार ने
तबादला कानून पर वायदा
निभा कर अपने
पक्ष में जितने
नम्बर बढ़ाये थे
उतने ही नम्बर
लोकायुक्त के अपूर्ण
वायदे ने घटा
भी दिये। संसद
ने जो लोकायुक्त
का मॉडल पास
कर राज्यों को
दिया था उसे
पूर्व सरकार द्वारा
उत्तराखण्ड में हूबहू
अंगीकृत कर दिया
था और उसी
के आधार पर
लोकायुक्त के गठन
की प्रकृया शुरू
भी हो गयी
थी लेकिन भाजपा
ने न तो
अब तक नया
कानून बनाया और
ना ही पुराने
कानून को चलने
दिया। लिहाजा वर्ष
2013 से ही राज्य
का लोकायुक्त कार्यालय
करोड़ों रुपये खर्च करने
पर भी सूना
पड़ा है। इसी
तरह मौजूदा सरकार
ने राज्य में
डाक्टरों की कमी
पूरी करने के
लिये सेना के
सेवानिवृत डाक्टरों को अनुबंध
पर लेने और
श्रीनगर मेडिकल कालेज को
सेना के सुपुर्द
करने की घोषणा
की थी। लेकिन
सेना की अनिच्छा
से सरकार की
वह मुराद भी
पूरी नहीं हो
पायी। इसी वर्ष
2018 में उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय
खेलों का आयोजन
होना था मगर
सुविधाओं के अभाव
में राज्य से
यह अवसर छिन
गया। सरकार ने
जल निगम-जल
संस्थान, कृषि एवं
बागवानी जैसे समान
प्रवृत्ति वाले विभागों
का एकीकरण करने
का निर्णय लिया
था जो पूरा
नहीं हो सका।
पहाड़ों में छोटी-‘छोटी बिखरी
जोतों को एक
जगह पर लाने
के लिये चकबंदी
का निर्णय लिया
था, और उस
पर भी अभी
एक्शन होना बाकी
है। सरकार ने
देहरादून की रिस्पना
नदी को पुनर्जीवित
करने की घोषणा
की है लेकिन
उसमें पानी कहां
से आयेगा, यह
सवाल मुंहबायें खड़ा
है, क्योंकि वर्तमान
में रिस्पना एक
नाले से ज्यादा
कुछ नहीं है
और उसमें जो
मैला पानी बह
रहा है उसके
श्रोत मलिन बस्तियों
के शौचालय और
स्नानगृह ही हैं।
अंजाम चाहे जो
भी रहा हो
मगर मौजूदा सरकार
ने जब अपनी
पारी शुरू की
तो उसने कई
अच्छी पहलें अवश्य
की थीं। इनमें
सबसे महत्वपूर्ण पहल
पहाड़ी क्षेत्रों से
बड़े पैमाने पर
हो रहे पलायन
को रोकने के
लिये ग्रामीण विकास
और पलायन आयोग
के गठन की
पहल भी एक
है। उत्तराखण्ड में
हो रहा पलायन
राज्य की ज्वलंत
समस्या होने के
साथ ही सुरक्षा
कारणों से एक
राष्ट्रीय चुनौती भी बन
गयी है। जनसंख्या
का असन्तुलन बढ़ने
से जहां मैदानी
नगरों पर जनसुविधाओं
और संसाधनों पर
भारी दबाव पड़
रहा है वहीं
पहाड़ों में जीवन
और अधिक कठिन
हो गया है।
पहाड़ की राजनीतिक
ताकत का भी
तेजी से ”ास
हो रहा है
और तिब्बत से
लगी सीमा के
आबादी विहीन होते
जाने से राष्ट्रीय
सुरक्षा के लिये
भी खतरा उत्पन्न
हो गया है।
चार धाम ऑल
वेदर रोड को
त्रिवेन्द्र सरकार की टोपी
में एक नया
पंख (कलंगी) माना
जा सकता है।
यद्यपि सड़क चौड़ी
करने के लिये
जिस तरह बड़े
पैमाने पर पेड़ों
और पहाड़ को
काटा जा रहा
है उससे हर
मौसम में सड़क
के खुली रहने
के आसार नजर
नहीं आ रहे
हैं। फिर भी इस
कार्य के पूर्ण
होने से चारों
धामों के लिये
यातायात व्यवस्था में सुधार
अवश्य होगा। स्वास्थ्य
एवं चिकित्सा के
क्षेत्र में भी
सरकार जूझी हुयी
है। कुछ स्थानो
ंपर टेलिमेडिसिन और
टेलि रेडियोलाजी की
व्यवस्था इसका उदाहरण
है। केदारनाथ में
पुनर्निर्माण का कार्य
पिछली कांग्रेस सरकार
के कार्यकाल में
भी अच्छा चला
था। इसीलिये कांग्रेस
को भले ही
अन्य क्षेत्रों में
मुंह की खानी
पड़ी मगर केदारनाथ
क्षेत्र में उसका
नौसिखिया प्रत्याशी दो-दो
पूर्व विधायकों को
हरा कर जीत
गया। इस सरकार
के कार्यकाल में
केदारनाथ में और
भी अच्छा काम
चल रहा है
और स्वयं प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी कार्य
की मॉनीटरिंग कर
रहे हैं। देहरादून-दिल्ली मार्ग पर
डाटकाली मंदिर पर अंग्रेजों
के जमाने की
बनी सुरंग जीर्णसीर्ण
होने के साथ
ही मार्ग पर
वाहनों के भारी
दबाव के आगे
बेहद संकरी हो
गयी थी। सरकार
के कार्यकाल में
वहां पर एक
नयी सुरंग का
निर्माण हो रहा
है।
इस सरकार के कार्यकाल
में अब तक
कोई बड़ा भ्रष्टाचार
का मामला सामने
न आने को
भी एक उपलब्धि
ही माना जायेगा।
इसके विपरीत राष्ट्रीय
राजमार्ग संख्या-74 का भूमि
मुआवजा घोटाला, खाद्यान्न घोटाला,
शिक्षक भर्ती और छात्रवृत्ति
आदि घोटालों की
जांच और राजमार्ग
घोटाले में पी.सी.एस
अधिकारियों समेत 15 अफसरों पर
कार्यवाही सरकार के दृढ़
निश्चय का संकेत
तो देते हैं
लेकिन केवल निशाना
विपक्षी कांग्रेस और छोटे
अफसरों पर होने
के कारण सरकार
की नीयत पर
ऊंगलियां भी उठ
रही हैं। राष्ट्रीय
राजमार्ग मुआवजा घोटाले के
समय तत्कालीन जिलाधिकारी
को राजस्व विभाग
का प्रमुख होने
के नाते जांच
के दायरे में
आना चाहिये था
मगर उसे शासन
में सबसे महत्वपूर्ण
पद पर बिठा
दिया। इसी प्रकार
इस घोटाले में
कुछ राजनेताओं के
नाम भी उछले
थे जो कि
सत्ता के गलियारे
में हैं। पिछली
कांग्रेस सरकार के दौरान
जब भाजपा विपक्ष
में थी तो
उसने सत्ताधारी कांग्रेस
के कई नेताओं
पर घोटालों के
कई गंभीर आरोप
लगाये थे। आपदा
घोटाला, पॉलीहाउस घोटाला, सहसपुर
क्षेत्र में जमीन
घोटाला, मंत्री के आवास
पर गोलीकाण्ड आदि
कई मामलों को
लेकर भाजपा ने
सड़क से लेकर
विधानसभा में तक
भारी कोहराम मचाया
था। लेकिन अब
जबकि भाजपा सत्ता
में है और
घेटालों की जांच
कराने की जिम्मेदारी
भी उसी की
है तो वह
कांग्रेस सरकार के उन
बहुचर्चित घोटालों पर मौन
हो गयी। इस
चुप्पी ने सरकार
के ‘‘जीरो टालरेंस’’
के दावे की
हवा निकाल दी
है। छल प्रपंच
से दूर त्रिवेन्द्र
रावत स्वयं एक
सीधे और सपाट
व्यक्ति हैं। लेकिन
सत्ता ऐसी मोहनी
है कि उसी
ओर भ्रष्टाचारी, मतलब
परस्त और चाटुकार
स्वयं खिंचे चले
आते हैं। मुख्यमंत्री
अपनी ईमान्दारी की
गारंटी तो दे
सकते हैं मगर
अवसरवादियों की गारंटी
कोई नहीं दे
सकता।
अन्य सरकारों की भांति
त्रिवेन्द्र सरकार भी अपने
कार्यकाल में कुछ
नया कर गुजरना
चाहती है मगर
उसकी तिजोरी लगभग
खाली पड़ी है।
राज्य की माली
हालत इतनी बदतर
हो चुकी कि
आने वाली सरकारों
के लिये भी
विकास कार्य तो
रहे दूर अपने
खर्चे तक निकालने
मुश्किल हो जायेंगे।
चालू वित्तीय वर्ष
के आंकड़ों पर
ही गौर करें
तो राज्य की
दयनीय आर्थिक स्थिति
साफ नजर आती
है। चालू बजट
में राज्य के
करों से कुल
13780.27 करोड़ रुपये, केन्द्रीय करों
से राज्य के
हिस्से के 7113.47 करोड़ और
करेत्तर श्रोतों से 2468.71 करोड़
रुपये का राजस्व
मिला कर कुल
23362.45 करोड़ का राजस्व
आंकलित किया गया
था। लेकिन जिस
तरह से वेतन
आदि के लिये
जिस तरह बेतहासा
कर्ज उठाया गया
उस हिसाब से
वसूली या आमदनी
का आंकड़ा 20 हजार
करोड़ तक भी
पहुंचता नजर नहीं
आ रहा है।
जबकि सरकार को
ऋणों के ब्याज
की अदायगी पर
4409.95 करोड़, ऋणों के
प्रतिदान (प्रिसपल अमाउण्ट पर
किश्त अदायगी) पर
2640.23 करोड़, वेतन भत्तों
आदि पर 11044.44 करोड़,
सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों
के कर्मचारियों के
वेतन भत्तों पर
815.09 करोड़, पेंशन एवं अन्य
सेवानिवृतिक लाभों के रूप
में 4272.28 करोड़ और
कुल मिला कर
23181.99 करोड रुपये की देयता
थी। इस तरह
देखा जाय तो
राज्य सरकार की
तिजोरी विकास कार्यों तथा
जन कल्याण के
कार्यों के लिये
खाली पडी हुयी
है। जबकि विकास
कार्यों के लिये
13 प्रतिशत बजट की
बात कही गयी
थी। विकास और
कल्याणकारी कार्यों की बात
तो रही दूर
लेकिन राज्य सरकार
को अपने कर्मचारियों
के वेतन आदि
और अपने खर्चों
के लिये भी
ऋण लेना पड़ा।
एक सरकारी अनुमान
के अनुसार वर्तमान
सरकार गत जनवरी
तक 5700 करोड़ का
कर्ज ले चुकी
थी। इतना कर्ज
लेने के बाद
भी अशासकीय कालेजों
के प्रवक्ताओं और
शिक्षणेत्तर कर्मचारियों तथा पेयजल
कर्मचारियों को तीन
महीनों से तथा
स्वास्थ्य विभाग एवं आइ
टी आइ में
कार्यरत उपनल कर्मचारियों
को कई महीनों
से वेतन नहीं
मिला। शासकीय कालेजों
में चार महीनों
बाद बजट रिलीज
हुआ। परिवहन निगम
के कर्मचारियों को
वेतन एक महीने
विलम्ब से मिल
रहा है।
अगर सरकार इसी गति
से अपने खर्च
चलाने के लिये
कर्ज लेती रही
तो इस सरकार
के कार्यकाल में
ही कर्ज की
रकम 30 हजार करोड़
पार कर जायेगी
जबकि राज्य पहले
ही 40 हजार करोड़
से अधिक के
कर्ज के बोझ
तले दबा हुआ
है। सरकारी आंकड़े
बताते हैं कि
तिवारी सरकार ने 2002 से
लेकर 2007 तक कुल
6476.95 करोड़, खण्डूड़ी और निशंक
की भाजपा सरकारों
ने 2007 से लेकर
2012 तक 10536.33 करोड़ और
फिर विजय बहुगुणा
और हरीश रावत
की कांग्रेस सरकारो
ंने 2012 से लेकर
2017 तक 23074.59 करोड़ के
ऋण लिये थे।
इन आंकड़ों से
स्पष्ट है कि
उत्तराखण्ड की वर्तमान
और भावी सरकारें
चाहे जितनी भी
घोषणाएं कर डालें
मगर विकास के
नाम पर एक
पत्थर रखने की
भी उनकी वित्तीय
हैसियत नहीं होगी
और न केवल
विकास कार्यों के
लिये वरन अन्य
खर्चों के लिये
भी उत्तराखण्ड का
कटोरा हर वक्त
दिल्ली दरबार की चौखट
पर रहेगा।

जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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