लाचार व्यवस्था के सामने लाल किले पर कब्जा
-जयसिंह रावत
गणतंत्र दिवस की पावन बेला पर भारतीय गणतंत्र की सम्प्रभुता और अखण्डता के प्रतीक एवं सदियों तक भारत की हुकूमत के केन्द्र रहे लाल किले पर हुये अराजक तत्वों के बेहद शर्मनाक हमले के बाद इस राष्ट्र विरोधी हरकत के लिये सम्बन्धित पक्ष एक दूसरे पर दोष मढ़ कर स्वयं को पाक साफ साबित करने का प्रयास कर तो रहे हैं लेकिन देखा जाय तो राष्ट्र को शर्मसार करने वाली इस घटना के लिये हमलावर तो अपराधी हैं ही, लेकिन इसके लिये किसान नेतृत्व, पुलिस तथा खुफिया ऐजेंसियां और स्वयं सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते।
भारत की राजनीति के कई उतार और चढ़ावों का गवाह रहे इस किले में शाहजहां से लेकर बहादुर शाह जफर तक 15 बादशाहों का आवास ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान की हुकूमत का केन्द्र भी रहा। मुगल सुल्तान शाह आलम को हराने के बाद 11 मार्च 1783 में बाबा बघेल सिंह ने अपनी फौज सहित दिल्ली के लाल किले पर केसरिया झंडा लहराया था। उससेे पहले लाल किले को सन् 1747 में ईरान के बादशाह नादिर शाह ने लूटा। सत्ता और वैभव के लिये इस किले पर कभी नादिर शाह, कभी सिखों के तो कभी मराठों के हमले होते रहे और इसके काहिनूर समेत बहुमूल्य रत्न जड़ित मयूर सिंहासन (तख्त-ए-ताउस ) आदि वैभव लुटते रहे। अंत में अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति के बाद इस किले को न केवल सत्ताविहीन किया बल्कि कोहिनूर को भी लूट कर ले गये। गदर को कुचलने के बाद अंग्रेजों ने लाल किले को अपनी सेना के बैरकों में बदल दिया था। अन्ततः यह किला देश की आजादी के साथ ही 1947 में आजाद हुआ। इसी लाल किले की प्राचीर से 1911 में जार्ज पंचम और महारानी मैरी ने भारत की जनता को संबोधित किया था। 16 अगस्त 1947 से लेकर 15 अगस्त 2020 तक जिस लाल किले की प्राचीर से हमारे 12 प्रधानमंत्री 21 तोपों की सलामी के साथ देश की शान तिरंगा फहराते रहे और देश के भविष्य का एजेंडा घोषित करने के साथ ही सारी दुनियां के समक्ष अपनी सम्प्रभुता का जयघोष करते रहे उसी प्राचीर और राष्ट्रीय ध्वज पर अराजक और उन्मादी भीड़ का कब्जा बहुत ही गंभीर बात है।
जिन लोगों ने लाल किले की प्राचीर की गरिमा और महिमा का अतिक्रमण किया उनके खिलाफ तो कानून अपने हिसाब से कार्यवाही रूर करेगा लेकिन इस महापाप से वे किसान नेता कैसे बच सकते हैं, जिन्होंने पुलिस को शांतिपूर्ण ढंग से ट्रैक्टर रैली निकालने का वचन दिया था। भीड़ का न तो कोई चेहरा होता है और ना ही चरित्र। लेकिन इस आन्दोलन में 40 नेताओं का समूह स्वयं ही भीड़ साबित हो गया। जो किसान आन्दोलन मंजिल के करीब पहुंच गया था वह आसमान से गिर कर खजूर पर अटकने जैसी स्थिति में आ गया। देशवासियों की जो भावनाएं किसानों के प्रति थीं वे लालकिले पर हमले के बाद पलटती नजर आ रही हैं।
भारत सरकार भी इस हादसे की जिम्मेदारियों से नहीं बच सकती है। किसान नेताओं द्वारा दिये गये शांति और अनुशासन के वायदे के बावजूद कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी किसान नेतृत्व की नहीं बल्कि सरकार की थी। सरकार की ओर से कहा गया था कि किसान आन्दोलन में गड़बड़ी और अराजकता फैलाने के लिये पाकिस्तान में 3 सौ से ज्यादा ट्विटर हैंडलर सक्रिय हैं। पुलिस इस खतरे से आन्दोलनकारियों को तो आगाह कर रही थी, मगर स्वयं खुफिया ऐजेंसियों सतर्क नहीं थंी। खुफिया तंत्र और सरकार का जानकर भी अनजान बनना भी हैरत की बात है।
आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा के साथ ही देश की एकता और अखण्डता की जिम्मेदारी सरकार की होती है। अन्य राज्यों में तो आन्तरिक सुरक्षा या कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की होती है लेकिन दिल्ली के लिये यह जिम्मेदारी केवल भारत सरकार की है। यह विशेष व्यवस्था राजधानी क्षेत्र की अति संवेदनशील स्थिति को देखते हुये की गयी है। क्या गृहमंत्रालय को पता नहीं था कि भीड़ का कोई चेहरा और चरित्र नहीं होता है? क्या गृह मंत्रालय को पता नहीं था कि किसानों के 40 नेताओं की भीड़ कुण्ठाओं के साथ ही धार्मिक उन्माद से प्रभावित लाखों लोगों की उत्तेजित भीड़ को संभालने की स्थिति में नहीं है। इस तर्क में भी दम नहीं कि अगर चुप नहीं रहते तो खून खराबा हो जाता। कल अगर कोई कहे कि हमें संसद भवन को कब्जाने दो अन्यथा बहुत खून खराबा हो जायेगा, तो क्या सरकार खून खराबे के डर से उत्पातियों को खुली छूट दे देगी? संसद भवन पर 13 दिसम्बर 2001 को आतंकी हमला हो चुका है। इससे पहले 22 दिसम्बर 2000 को लालकिले पर लस्कर-ए-तोइबा का हमला हो चुका था। जाहिर है कि ये अति महत्वपूर्ण इमारतें राष्ट्र विरोधियों के निशाने पर पहले से ही हैं। ऐसी स्थिति का फायदा देश के दुश्मन भी उठा सकते हैं इसलिये भी देश के नेतृत्व का 26 जनवरी के दिन की तरह बेबस, कमजोर और लाचार दिखना भी खतरनाक साबित हो सकता है।
लाल किले की प्राचीर से जिस तरह निशानयुक्त धार्मिक झण्डा फहरा कर जयघोष किया गया वह भविष्य के लिये खतरे की घण्टी है। सरकार को नहीं भूलना चाहिये कि मुश्किल से खालिस्तानी आतंकवाद पर काबू पाया जा सका था। यह सही है कि किसान आन्दोलन का लाभ खालिस्तान समर्थक उठाना चाहते हैं। लेकिन किसान आन्दोलन को बदनाम करने के लिये सारे किसानों को खालिस्तान समर्थक साबित करने का प्रयास भी बेहद खतरनाक हो सकता है। इसी प्रकार नागरिकता कानून के विरोध में शाहीनबाग के आन्दोलन को पाकिस्तान समर्थक साबित करने का प्रयास हुआ था। इन जहरीली बातों को भले ही नेता न उगलें मगर उनके समर्थक खुले आम सोशियल मीडिया पर इस तरह का अभियान चलाते रहते हैं। देश की राजनीति का जिस तरह साम्प्रदायीकण किया जा रहा है वह भी अपने आप में आग से खेलने जैसा ही है। अगर राजनीतिक सत्ता पर धर्म के आधार पर कब्जा करने की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगा तो भविष्य में लालकिले पर धार्मिक निशान वाले झण्डों को फहराने की होड़ लग जायेगी।
जयसिंह रावत
ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।