चार धाम मार्ग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी
-जयसिंह रावत
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तराखण्ड
के विख्यात चारधामों
को जोड़ने वाले
मार्ग को ‘ऑल
वेदर’ बनाने के नाम
पर सड़क की
चौड़ाई बढ़ाने की
सरकार की मांग
को ठुकराये जाने
से पर्यावरणवादियों और
खास कर अपीलकर्ताओं
ने राहत की
सांस तो अवश्य
ली है, मगर
अदालत का ताजा
आदेश भी हिमालय
को दिये गये
उन बहरे जख्मों
पर शायद ही
मरहम लगा पायेगा,
जोकि त्वरित राजनीतिक
लाभ के लिये
बिना वैज्ञानिकों की
राय लिये उतावली
में मोदी सरकार
और उत्तराखण्ड सरकार
ने दिये हैं।
इस परियोजना में
सड़क चौड़ी करने
के लिये अब
तक पहाड़ों को
काटने का लगभग
70 प्रतिशत काम पूरा
हो चुका है
और लगभग 400 किमी
सड़कचौड़ी हो
भी चुकी है
जिसमें 40 हजार हरे
पेड़ भी काटे
जा चुके हैं।
यही नहीं जिन
झाड़ियों और वनस्पतियों
ने मिट्टी को
जकड़ कर भूस्खलन
रोकना था उनका
भी मटियामेट कर
दिया गया है।
पर्यावरणविदों और भूवैज्ञानिकों
को चिन्ता है
कि पहाड़ों पर
हुये इस अत्याचार
का परिणाम कहीं
केदारनाथ जैसी त्रासदियों
की पुनरावृत्ति के
रूप में न
हो जाय !
पर्यावरण के क्षेत्र
में असाधारण योगदान
के लिये पद्मभूषण
एवं गांधी शांति
पुरस्कार जैसे अनेकों
सम्मानों से अलंकृत
चण्डी प्रसाद भट्ट
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारत
सरकार की चारधाम
मार्ग की चौड़ाई
बढ़ाने की मांग
को ठुकराये जाने
का स्वागत करते
हैं, लेकिन साथ
ही वह अब
तक पहुंचाये गये
पर्यावरणीय नुकसान से भी
काफी चिन्तित है।
भट्ट का कहना
है कि पहाड़ों
की बेतहासा कटिंग
से कई सुप्त
भूस्खलन भी सक्रिय
हो गये हैं
और बाकी भी
भविष्य में सक्रिय
हो सकते हैं।
हिमालय की अत्यंत
संवेदनशीलता को अनुभव
करते हुये 2001 में
इसरो ने कराड़ों
रुपये खर्च कर
देश के 12 विशेषज्ञ
संस्थानों के 54 वैज्ञानिकों से
उत्तराखण्ड का ‘लैण्ड
स्लाइड जोनेशन एटलस’’ बनाया था
जिसमें इसी चारधाम
मार्ग पर सेकड़ों
की संख्या में
सुप्त और सक्रिय
भूस्खलन चिन्हित कर उनका
उल्लेख किया गया
था। यह रिपोर्ट
या एटलस भारत
सरकार और उत्तराखण्ड
सरकार को सौंपने
के साथ ही
उत्तराखण्ड के सभी
जिला मैजिस्ट्रेटों को
भी दिया था
ताकि भविष्य में
क्षेत्र की संवेदनशीलता
को ध्यान में
रख कर ही
योजना बनाई जा
सके। लेकिन चारधाम
प्रोजेक्ट में उस
रिपोर्ट को देखने
की जरूरत तक
नहीं समझी गयी।
उन्होंने स्वयं नितिन गडकरी
और प्रधानमंत्री मोदी
को पत्र लिख
कर अपनी चिन्ता
प्रकट की थी
जिनको अनसुना कर
दिया गया। चण्डी
प्रसाद भट्ट के
अनुसार अवैज्ञानिक तरीके से
पहाड़ काटने के
साथ ही मलबा
निस्तारण के लिये
डम्पिंग जोन भी
गलत बने हैं।
अगर वर्ष 2013 की
जैसी अतिवृष्टि हो
गयी तो पहाड़ों
में पुनः केदारनाथ
आपदा की जैसी
स्थिति पैदा हो
सकती है। वह
हैरानी जताते हैं कि
सरकार ने पहले
पहाड़ काट डाले
और बाद में
विशेषज्ञों से अध्ययन
कराया गया।
पद्मभूषण डा0 अनिल प्रकाश जोशी कहते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले से हमारी सरकारों को चेत जाना चाहिये और कोई भी योजना हो उसमें पर्यावरणीय संवेदनशीलता का ध्यान रखा जाना चाहिये। डा0 जोशी कहते हैं कि सड़कें भी बहुत जरूरी हैं तभी विकास संभव होगा और लोगों का जीवनस्तर उठेगा। लेकिन सड़कें केवल भारत में नहीं बन रही हैं। स्केडिनेविया, चीन और जापान जैसे मुल्कों में सड़क बनाने के जो मापदण्ड हैं वैसे ही मापदण्ड हमें भी अपनी भौगोलिक परिस्थितियांे के अनुसार अपनाने चाहिये। सड़क निर्माण में ठेकदारों को जल्दबाजी में काम पूरा करने की समय सीमा रखेंगे तो वे इसी तरह बेरहमी से उतावली में पहाड़ काटंेगे। जो ठेकेदार सड़क बनाता है उसी के पास 10 साल तक मैंटेनेंस की जिम्मेदारी भी होनी चाहिये
चिपको आन्दोलन के सक्रिय
कार्यकर्ता रहे समाजसेवी
रमेश पहाड़ी के
अनुसार यह योजना
ऐसे लोगों ने
बनाई है, जो
धरातलीय सच्चाई से वाकिफ
नहीं हैं या
होना चाहते नहीं
हैं। अत्यंत संवेदनशील
हिमालयी क्षेत्रों के साथ
दुश्मन की तरह
काम करने वाला
भारत सरकार का
राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण और
प्रधानमंत्री मोदी के
सलाहकारों ने जिस
प्रकार बिना भूविज्ञानियों
की सलाह के
पहाड़ों को क्षत-विक्षत कर तथा
सदियों पुरानी बसाहतों को
उजाड़ कर फर्राटा
भरने वाले वाहनों
को दौड़ाने के
लिए 12 मीटर चौड़ी
सड़कों का जाल
बिछाने की जो
अंधेरगर्दी मचा रखी
थी, उस पर
सर्वोच्च न्यायालय ने रोक
लगा कर हिमालय
को गहरे तक
जख्म पहुंचाने से
बचाने का बड़ा
उपक्रम किया है।
पहाड़ी कहते हैं
कि इसकी बजाय
गंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी
आदि नदियों के
दूसरे किनारे नई
सड़क के निर्माण,
बनी हुई सड़कों
के सुधार, उपयुक्त
स्थानों पर सुरंगों
व पुलों का
निर्माण कर एक
संजाल (नेटवर्क) बनाकर न
केवल बारहमासी यातायात
की प्रभावी व्यवस्था
की जा सकती
थी।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के डॉ. सुशील कुमार कहते हैं कि टिहरी डैम के निर्माण के लिए भी चारों ओर पहाड़ काटे गये, फिर उन पहाड़ों का उपचार कर उन्हें बेहद मजबूत बनाया गया, लेकिन ऑल वेदर रोड में ऐसा नहीं हो रहा है। कुछ जगहों पर तो पहाड़ मजबूत हैं, लेकिन कुछ जगहों पर बेहद कमजोर भी हैं। मानसून में वहां भू-स्खलन का खतरा बढ़ जाएगा। ऑल वेदर रोड के लिए पहाड़ काटने के बाद उसे थामने के लिए जो रिटेनिंग वॉल बनायी गई है, वह ऊपर से टूट कर आए मलबे को रोकने में सक्षम नहीं दिखती। उसकी ऊंचाई भी ज्यादा नहीं रखी गई है। बल्कि उलटा मानसून में वो सड़कों को ब्लॉक कर सकती है। पहाड़ों को काटने के बाद उनका पूरा उपचार नहीं किया जा रहा है।
चारधाम मार्ग स्थित नन्दप्रयाग के समाजसेवी एवं एडवोकेट समीर बहुगुणा का कहना है कि आज के अहंकारी नेता किसी की सुनने को तैयार नहीं हैं। ये अनपढ अपने से जादा विद्वान किसी को नहीं समझते। बिना विशेषज्ञों से राय मशविरा कर अपनी बातों को थोपना इनकी आदत बन चुकी है। आज तक लिए गये फैसलों से तो यही लगता है। गोपेश्वर चमोली के समाजसेवी एवं चिंतक क्रांति भट्ट का कहना है कि दुनियां के सबसे नवीनतम् पहाड़ विशेष कर मध्य हिमालयी क्षेत्र और बेहद संवेदनशील पहाड़ में ऑल वेदर सड़क चौड़ीकरण के नाम पर बलात्कार शैली में धृष्टता की जा रही थी। विशालकाय मशीनें पहाड़ को रौंद रही थी। उस आंतकनुमा सड़क चौड़ीकरण कार्य पर रोक स्वागत योग्य है। अब तक 40 हजार से अधिक पेड़ कटे। न जाने कितनी वो झांडियां जो यहां मिट्टी को जकड़ कर रखती हैं, वे तबाह हुयी हैं ।
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