सीवोटर
की चोट से निकली उत्तराखण्ड की ग्रीष्मकालीन राजधानी
की चोट से निकली उत्तराखण्ड की ग्रीष्मकालीन राजधानी
सीवोटर सर्वेक्षण ऐजेंसी द्वारा
अपने सर्वेक्षण में
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
को देश के
सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों
में दूसरे नम्बर
पर और लोकप्रियता
में सबसे नीचे
मनोहर लाल खट्टर
के पास रखे
जाने के ठीक
4 दिन बाद उत्तराखण्ड
सरकार ने गैरसैण
(भराड़ीसैण) को ग्रीष्मकालीन
राजधानी बनाने की घोषणा
की पुष्टि के
लिये अधिसूचना जारी
कर दी। यह
घोषणा भी भराड़ीसैण
में विधानसभा के
शीतकालीन सत्र में
उस समय की
गयी थी जबकि
राज्य में नेतृत्व
परिवर्तन की अटकलें
चरम पर पर
थीं, जो कि
कोरोना महामारी के संकट
से ही थम
सकीं थीं। ऐसी
परिस्थितियों में ग्रीष्मकालीन
राजधानी को लेकर
सरकार की नीयत
पर सवाल उठना
स्वाभाविक ही है।
अपने सर्वेक्षण में
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
को देश के
सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्रियों
में दूसरे नम्बर
पर और लोकप्रियता
में सबसे नीचे
मनोहर लाल खट्टर
के पास रखे
जाने के ठीक
4 दिन बाद उत्तराखण्ड
सरकार ने गैरसैण
(भराड़ीसैण) को ग्रीष्मकालीन
राजधानी बनाने की घोषणा
की पुष्टि के
लिये अधिसूचना जारी
कर दी। यह
घोषणा भी भराड़ीसैण
में विधानसभा के
शीतकालीन सत्र में
उस समय की
गयी थी जबकि
राज्य में नेतृत्व
परिवर्तन की अटकलें
चरम पर पर
थीं, जो कि
कोरोना महामारी के संकट
से ही थम
सकीं थीं। ऐसी
परिस्थितियों में ग्रीष्मकालीन
राजधानी को लेकर
सरकार की नीयत
पर सवाल उठना
स्वाभाविक ही है।
कुछ ही दिन
पहले तक उत्तराखण्ड
में कोराना मरीजों
की संख्या 50 से
कम चल रही
थी और अधिकांश
जिलों में मरीजों
की संख्या शून्य
थी। अगर संक्रमितों
की संख्या 25 हजार
तक पहुंचने की
स्वयं मुख्यमंत्री की
भविष्यवाणी को गंभीरता
से लें परिस्थितियां
कहीं अधिक भयंकर
हो सकती हैं।
ऐसी स्थिति में
कोरोना के मोर्चे
पर डटे रहने
के बजाय ग्रीष्मकालीन
राजधानी का शगूफा
छेड़ना भराड़ीसैण को
राजनीतिक ढाल बनाने
का प्रयास नही
ंतो और क्या
है? इस मामले
में सरकार अगर
सचमुच गंभीर होती
तो मार्च में
इसकी घोषणा के
साथ ही अधिसूचना
भी जारी कर
देती। मीडिया द्वारा
इस मुद्दे को
जिस तरह प्रचारित
किया जा रहा
है वह महामारी
के संकट से
तो ध्यान भटका
ही रहा है,
साथ ही सीवोटर
के सर्वेक्षण को
झुटलाने का एक
प्रयास भी नजर
आ रहा है।
पहले तक उत्तराखण्ड
में कोराना मरीजों
की संख्या 50 से
कम चल रही
थी और अधिकांश
जिलों में मरीजों
की संख्या शून्य
थी। अगर संक्रमितों
की संख्या 25 हजार
तक पहुंचने की
स्वयं मुख्यमंत्री की
भविष्यवाणी को गंभीरता
से लें परिस्थितियां
कहीं अधिक भयंकर
हो सकती हैं।
ऐसी स्थिति में
कोरोना के मोर्चे
पर डटे रहने
के बजाय ग्रीष्मकालीन
राजधानी का शगूफा
छेड़ना भराड़ीसैण को
राजनीतिक ढाल बनाने
का प्रयास नही
ंतो और क्या
है? इस मामले
में सरकार अगर
सचमुच गंभीर होती
तो मार्च में
इसकी घोषणा के
साथ ही अधिसूचना
भी जारी कर
देती। मीडिया द्वारा
इस मुद्दे को
जिस तरह प्रचारित
किया जा रहा
है वह महामारी
के संकट से
तो ध्यान भटका
ही रहा है,
साथ ही सीवोटर
के सर्वेक्षण को
झुटलाने का एक
प्रयास भी नजर
आ रहा है।
पहाड़ की राजधानी
पहाड़ में होना
एक बेहद भावनात्मक
मुद्दा है। यह
हिमालयी राज्य है और
इसकी विशेष भौगोलिक
और सांस्कृतिक पहचान
बनाये रखने के
लिये इस पहाड़ी
राज्य की मांग
उठी थी और
इसके लिये तीन
दर्जन से अधिक
लोगों ने अपनी
जानों की कुर्बानी
दी थी। यही
भावनात्मक कारण है
कि राजनीतिक दलों
के ऐजेंडे में
गैरसैण प्रमुखता से रहता
आया है। लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं कि पहाड़
के लोग अपनी
पहचान के लिये
जितने भावुक और
विकास के लिये
जितने लालायित हैं,
वे उतने ही
भोले या नादान
होंगे। अगर ऐसा
होता तो राज्य
गठन के बाद
हुये पहले विधानसभा
चुनाव में उत्तराखण्ड
क्रांति दल (उक्रांद)
के प्रत्याशी की
उसी कर्णप्रयाग क्षेत्र
में जमानत जब्त
नहीं होती। उस
समय उक्रांद प्रत्याशी
को 11 सौ से
कम मत मिले
थे। जबकि गैरसैण
उक्रांद का मुख्य
मुद्दा रहा है।
काग्रेस सरकार ने सबसे
पहले वहां 3 नवम्बर
2012 को कैबिनेट की बैठक
कर अपनी प्रतिबद्धता
प्रकट की थी।
उसके बाद 9 जून
से 12 जून 2014 तक
वहां विधानसभा का
ग्रीष्मकालीन सत्र टेंटों
में चला। वहां
दूसरा सत्र 2 नवम्बर
2015 से चला। कांग्रेस
के ही कार्यकाल
में 2016 में 17 एवं 18 नवम्बर
को गैरसैण के
निकट ही भराड़ीसैण
में विधानसभा सत्र
नवनिर्मित विधानसभा भवन में
आयोजित हुआ। वहां
भवन आदि पर
100 करोड़ से अधिक
की राशि भी
कांग्रेस सरकार ने ही
खर्च की थी।
इसके बावजूद 2017 के
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस
पार्टी को प्रदेश
की 70 में से
केवल 11 सीटें मिलीं और
स्वयं हरीश रावत
एक नहीं बल्कि
दो सीटों पर
चुनाव हार गये।
अलग उत्तराखण्ड राज्य
के संघर्ष में
उक्रांद की नेतृत्वकारी
भूमिका थी। इस
राजनीतिक दल का
गठन ही अलग
राज्य की लड़ाई
लड़ने के लिये
हुआ था। फिर
भी पहले चुनाव
में उसे 70 में
से मात्र 4 सीटें
मिलीं। उसके बाद
2007 में 3 सीटें और 2012 में
उसे केवल एक
सीट पर सन्तोष
करना पड़ा जबकि
2017 के चुनाव में वह
गायब ही हो
गया। जाहिर है
कि पहाड़ के
लोग भोले जरूर
हैं, मगर राजनीतिक
रूप से नादान
हरगिज नहीं हैं
और राजनीतिक पैंतरेबाजी
या सगूफाबाजी को
खूब समझते हैं।
पहाड़ में होना
एक बेहद भावनात्मक
मुद्दा है। यह
हिमालयी राज्य है और
इसकी विशेष भौगोलिक
और सांस्कृतिक पहचान
बनाये रखने के
लिये इस पहाड़ी
राज्य की मांग
उठी थी और
इसके लिये तीन
दर्जन से अधिक
लोगों ने अपनी
जानों की कुर्बानी
दी थी। यही
भावनात्मक कारण है
कि राजनीतिक दलों
के ऐजेंडे में
गैरसैण प्रमुखता से रहता
आया है। लेकिन
इसका मतलब यह
नहीं कि पहाड़
के लोग अपनी
पहचान के लिये
जितने भावुक और
विकास के लिये
जितने लालायित हैं,
वे उतने ही
भोले या नादान
होंगे। अगर ऐसा
होता तो राज्य
गठन के बाद
हुये पहले विधानसभा
चुनाव में उत्तराखण्ड
क्रांति दल (उक्रांद)
के प्रत्याशी की
उसी कर्णप्रयाग क्षेत्र
में जमानत जब्त
नहीं होती। उस
समय उक्रांद प्रत्याशी
को 11 सौ से
कम मत मिले
थे। जबकि गैरसैण
उक्रांद का मुख्य
मुद्दा रहा है।
काग्रेस सरकार ने सबसे
पहले वहां 3 नवम्बर
2012 को कैबिनेट की बैठक
कर अपनी प्रतिबद्धता
प्रकट की थी।
उसके बाद 9 जून
से 12 जून 2014 तक
वहां विधानसभा का
ग्रीष्मकालीन सत्र टेंटों
में चला। वहां
दूसरा सत्र 2 नवम्बर
2015 से चला। कांग्रेस
के ही कार्यकाल
में 2016 में 17 एवं 18 नवम्बर
को गैरसैण के
निकट ही भराड़ीसैण
में विधानसभा सत्र
नवनिर्मित विधानसभा भवन में
आयोजित हुआ। वहां
भवन आदि पर
100 करोड़ से अधिक
की राशि भी
कांग्रेस सरकार ने ही
खर्च की थी।
इसके बावजूद 2017 के
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस
पार्टी को प्रदेश
की 70 में से
केवल 11 सीटें मिलीं और
स्वयं हरीश रावत
एक नहीं बल्कि
दो सीटों पर
चुनाव हार गये।
अलग उत्तराखण्ड राज्य
के संघर्ष में
उक्रांद की नेतृत्वकारी
भूमिका थी। इस
राजनीतिक दल का
गठन ही अलग
राज्य की लड़ाई
लड़ने के लिये
हुआ था। फिर
भी पहले चुनाव
में उसे 70 में
से मात्र 4 सीटें
मिलीं। उसके बाद
2007 में 3 सीटें और 2012 में
उसे केवल एक
सीट पर सन्तोष
करना पड़ा जबकि
2017 के चुनाव में वह
गायब ही हो
गया। जाहिर है
कि पहाड़ के
लोग भोले जरूर
हैं, मगर राजनीतिक
रूप से नादान
हरगिज नहीं हैं
और राजनीतिक पैंतरेबाजी
या सगूफाबाजी को
खूब समझते हैं।
राजधानी का मतलब
केवल कुछ दिन
का विधानसभा सत्र
नहीं होता। सवाल
उठता है कि
जिस भराड़ीसैण में मार्च
में आयोजित बजट
सत्र के पांचवें
दिन ही मुख्यमंत्री
समेत भाजपा के
56 में 39 विधायक और 9 मंत्री
ठण्ड के डर
के मारे खिसक
कर देहरादून आ
गये थे, उस
भराड़ीसैण में आइएएस,
आइपीएस, आइएफएस, पीसीएस और
अन्य सेवाओं के
आला अफसरों की
लम्बी चौड़ी फैज
पूरे सरकारी तामझाम
के साथ पहुंचा
पायेगी?। अगर
सरकार की नीयत
सचमुच साफ है
तो वहां 6 महीनों
के लिये जम्मू
और कश्मीर की
जैसी व्यवस्था करने
के लिये समूचा
सचिवालय स्थापित करना होगा
और कार्यालयों के
साथ ही हजारों
अधिकारियों और कर्मचारियों
के लिये परिवार
समेत आवासीय व्यवस्था
भी करनी होगी।
उससे पहले वहां
समस्त सुविधाओं से
युक्त एक टाउनशिप
विकसित करनी होगी।
वर्तमान में 70 विधायकों और
12 सदस्यीय मंत्रिमण्डल के अलावा
विधानसभा का 332 सदस्यीय स्टाफ
है। अगर सचिवालय
प्रशासन भी वहां
ले जाया गया
तो मुख्य सचिव
जैसे आला अधिकारियों
समेत कुल 1854 अधिकारियों
और कर्मचारियों के
कार्यालय और कम
से कम आधा
दर्जन श्रेणियों के
आवास की व्यवस्था
करनी होगी। राजधानी
बिना पुलिस मुख्यालय
के नहीं चलती।
इसलिये वरिष्ठ आइपीएस समेत
हजारों पुलिसकर्मियों के लिये
भी वहां व्यवस्था
करनी होगी। कम
से कम विधानसभा
सत्र के दौरान
तो सभी विभागों
के मुखियाओं का
राजधानी में रहना
अनिवार्य होता है।
वर्तमान में प्रदेश
में 63 विभाग, 7 निदेशालय और
बोर्ड, निगम और
प्राधिकरणों समेत सरकारी
संस्थाओं की संख्या
22 है। राजधानी चयन के
लिये गठित दीक्षित
आयोग ने केवल
सरकारी कार्यालयों और आवासों
के लिये ही
500 हेक्टेअर और कम
से कम 360 हेटेअर
की जरूरत बतायी
थी, जबकि में
सरकार अब तक
केवल 201.54 हेक्टेअर भूमि का
ही अधिग्रहण कर
पायी। आयोग ने
वहां लगभग डेढ
लाख की आबादी
वाली टाउनशिप के
लिये ही कम
से कम 960 हेक्टेअर
जमीन की जरूरत
बतायी थी। अगर
भराड़ीसैण में केवल
कुछ दिनों के
लिये विधानसभा सत्र
ही चलाना है
तो यह जनताके
साथ धोखा होगा,
क्योंकि लोगों
भराड़ीसैण में हफ्तेभर
की विधानसभा नहीं
बल्कि वहां महीनों
तक बैठने वाली
सरकार चाहिये।
केवल कुछ दिन
का विधानसभा सत्र
नहीं होता। सवाल
उठता है कि
जिस भराड़ीसैण में मार्च
में आयोजित बजट
सत्र के पांचवें
दिन ही मुख्यमंत्री
समेत भाजपा के
56 में 39 विधायक और 9 मंत्री
ठण्ड के डर
के मारे खिसक
कर देहरादून आ
गये थे, उस
भराड़ीसैण में आइएएस,
आइपीएस, आइएफएस, पीसीएस और
अन्य सेवाओं के
आला अफसरों की
लम्बी चौड़ी फैज
पूरे सरकारी तामझाम
के साथ पहुंचा
पायेगी?। अगर
सरकार की नीयत
सचमुच साफ है
तो वहां 6 महीनों
के लिये जम्मू
और कश्मीर की
जैसी व्यवस्था करने
के लिये समूचा
सचिवालय स्थापित करना होगा
और कार्यालयों के
साथ ही हजारों
अधिकारियों और कर्मचारियों
के लिये परिवार
समेत आवासीय व्यवस्था
भी करनी होगी।
उससे पहले वहां
समस्त सुविधाओं से
युक्त एक टाउनशिप
विकसित करनी होगी।
वर्तमान में 70 विधायकों और
12 सदस्यीय मंत्रिमण्डल के अलावा
विधानसभा का 332 सदस्यीय स्टाफ
है। अगर सचिवालय
प्रशासन भी वहां
ले जाया गया
तो मुख्य सचिव
जैसे आला अधिकारियों
समेत कुल 1854 अधिकारियों
और कर्मचारियों के
कार्यालय और कम
से कम आधा
दर्जन श्रेणियों के
आवास की व्यवस्था
करनी होगी। राजधानी
बिना पुलिस मुख्यालय
के नहीं चलती।
इसलिये वरिष्ठ आइपीएस समेत
हजारों पुलिसकर्मियों के लिये
भी वहां व्यवस्था
करनी होगी। कम
से कम विधानसभा
सत्र के दौरान
तो सभी विभागों
के मुखियाओं का
राजधानी में रहना
अनिवार्य होता है।
वर्तमान में प्रदेश
में 63 विभाग, 7 निदेशालय और
बोर्ड, निगम और
प्राधिकरणों समेत सरकारी
संस्थाओं की संख्या
22 है। राजधानी चयन के
लिये गठित दीक्षित
आयोग ने केवल
सरकारी कार्यालयों और आवासों
के लिये ही
500 हेक्टेअर और कम
से कम 360 हेटेअर
की जरूरत बतायी
थी, जबकि में
सरकार अब तक
केवल 201.54 हेक्टेअर भूमि का
ही अधिग्रहण कर
पायी। आयोग ने
वहां लगभग डेढ
लाख की आबादी
वाली टाउनशिप के
लिये ही कम
से कम 960 हेक्टेअर
जमीन की जरूरत
बतायी थी। अगर
भराड़ीसैण में केवल
कुछ दिनों के
लिये विधानसभा सत्र
ही चलाना है
तो यह जनताके
साथ धोखा होगा,
क्योंकि लोगों
भराड़ीसैण में हफ्तेभर
की विधानसभा नहीं
बल्कि वहां महीनों
तक बैठने वाली
सरकार चाहिये।
मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र रावत ने
29 जून 2019 को गढ़वाल
कमिश्नरी के मुख्यालय
पौड़ी की स्वर्णजयन्ती
के अवसर पर
कमिश्नरी स्तर के
अधिकारियों को पौड़ी
में तैनात करने
का वायदा किया
था। लेकिन वहां
कमिश्नर और डीआइजी
को बिठाना तो
रहा दूर उस
कृषि विभाग को
वापस पौड़ी नहीं
भेजा जा सका
जो कि पौड़ी
से खिसक कर
देहरादून आ गया
था। ऐसी स्थिति
में प्रदेश के
आला अफसरों को
भराड़ीसैण में बिठाने
की बात करना
ही शेख चिल्ली
की घोषणा जैसा
है।
त्रिवेन्द्र रावत ने
29 जून 2019 को गढ़वाल
कमिश्नरी के मुख्यालय
पौड़ी की स्वर्णजयन्ती
के अवसर पर
कमिश्नरी स्तर के
अधिकारियों को पौड़ी
में तैनात करने
का वायदा किया
था। लेकिन वहां
कमिश्नर और डीआइजी
को बिठाना तो
रहा दूर उस
कृषि विभाग को
वापस पौड़ी नहीं
भेजा जा सका
जो कि पौड़ी
से खिसक कर
देहरादून आ गया
था। ऐसी स्थिति
में प्रदेश के
आला अफसरों को
भराड़ीसैण में बिठाने
की बात करना
ही शेख चिल्ली
की घोषणा जैसा
है।
50 हजार करोड़ से
भी अधिक कर्ज
के बोझ से
दबे उत्तराखण्ड में
जहां कर्मचारियों का
वेतन भी कर्ज
लेकर दिया जाता
है, वहां दो-दो राजधानियों
की सोच वैसे
ही व्यवहारिक नहीं
है। वर्तमान में
महाराष्ट्र की उप
राजधानी नागपुर में तथा
हिमाचल प्रदेश की तपोवन
धर्मशाला में हैं,
मगर इन दोनों
जगहों से शासन
चलाने के बजाय
वहां केवल सप्ताहभर
के लिये विधानसभा
का शीतकालीन सत्र
ही चलता है।
जम्मू-कश्मीर में
दो राजधानियां चलाना
भौगोलिक और प्रशासनिक
मजबूरी है। जहां
तक आन्ध्र प्रदेश
का सवाल है
तो वहां भी
राजनीतिक कारणों से प्रदेश
की राजधानी अमरावती
और विशाखापत्तनम के
बीच झूल रही
है। वैसे ही
कोरोना बीमारी के महासंकट
के कारण प्रदेश
ही नहीं देश
की अर्थव्यवस्था बरबाद
हो चुकी है
ऐसे में दो
राजधानियों की बात
करना या राजधानी-राजधानी का खेल
खेलना ही बचकाना
है।
भी अधिक कर्ज
के बोझ से
दबे उत्तराखण्ड में
जहां कर्मचारियों का
वेतन भी कर्ज
लेकर दिया जाता
है, वहां दो-दो राजधानियों
की सोच वैसे
ही व्यवहारिक नहीं
है। वर्तमान में
महाराष्ट्र की उप
राजधानी नागपुर में तथा
हिमाचल प्रदेश की तपोवन
धर्मशाला में हैं,
मगर इन दोनों
जगहों से शासन
चलाने के बजाय
वहां केवल सप्ताहभर
के लिये विधानसभा
का शीतकालीन सत्र
ही चलता है।
जम्मू-कश्मीर में
दो राजधानियां चलाना
भौगोलिक और प्रशासनिक
मजबूरी है। जहां
तक आन्ध्र प्रदेश
का सवाल है
तो वहां भी
राजनीतिक कारणों से प्रदेश
की राजधानी अमरावती
और विशाखापत्तनम के
बीच झूल रही
है। वैसे ही
कोरोना बीमारी के महासंकट
के कारण प्रदेश
ही नहीं देश
की अर्थव्यवस्था बरबाद
हो चुकी है
ऐसे में दो
राजधानियों की बात
करना या राजधानी-राजधानी का खेल
खेलना ही बचकाना
है।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-
9412324999
9412324999
No comments:
Post a Comment