नेताजी
को उत्तराखण्ड से प्रेरणा ही नहीं शक्ति भी मिली
-जयसिंह रावत
मुखर्जी जाँच आयोग के समक्ष 194 राजपुर रोड स्थित इस कोठी को साधू शारदानंद की बताया गया. आयोग के समक्ष १२ में से ८ गवाहों ने शारदानंद को ही नेता जी सुभाष चंद्र बताया था. |
नेता जी सुभाष
चन्द्र बोस और
उनकी आजाद हिन्द
फौज (आइएनए) का
उत्तराखण्ड से गहरा
नाता रहा है।
हालांकि दावा तो
यहां तक किया
गया था कि
नेताजी ने साधू
वेश में 1977 तक
अपना शेष जीवन
देहरादून में ही
बिताया था। उनके
प्रवास की सच्चाई
जो भी हो
मगर यह बात
निर्विवाद सत्य है
कि आजाद हिन्द
फौज बनाने की
प्रेरणा उन्हें देहरादून के
राजा महेन्द्र प्रताप
सिंह से और
पेशावर काण्ड के हीरो
चन्द्र सिंह गढ़वाली
से मिली और
उनकी फौज को
शक्ति गढ़वालियों की
दो बटालियनों ने
भी दी। इडियन
नेशनल आर्मी (आइएनए)
का गठन रास
बिहारी बोस ने
जापान में 1942 में
कर लिया था
और रास बिहारी
भी देहरादून के
फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में
हेड क्लर्क थे
। रास बिहारी
12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली
में वाइसरायॅ लॉर्ड
हार्डिंग पर बम
फेंकने के मामले
में वांछित होने
पर देहरादून से
भाग कर जापान
चले गये थे।
महेन्द्र प्रताप से भी मिली प्रेरणा नेताजी को
एक के बाद
एक जांच समितियों
और आयोगों के
गठन के बाद
भी भले ही
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
की मृत्यु की
असलियत सामने नहीं आ
पाई हो, मगर
उनके जीवन की
अंतिम लड़ाई में
उत्तराखण्ड के कनेक्शन
से इंकार नहीं
किया जा सकता।
यद्यपि नेताजी ने निर्वासित
‘आजाद हिन्द सरकार’ का गठन 21 अक्टूबर 1943 को
सिंगापुर में किया
था। उस सरकार
की राजधानी को
7 जनवरी 1944 को सिंगापुर
से रंगून स्थानान्तरित
किया गया। लेकिन
इससे पहले आजाद
भारत की निर्वासित
सरकार का गठन
राजा महेन्द्र प्रताप
ने काबुल में
1915 में कर दिया
था। उनके प्रधान
मंत्री बरकतुल्ला थे। क्रांतिकारी
राजा महेन्द्र प्रताप
तत्कालीन संयुक्त प्रान्त में
मुसान के राजा
थे, लेकिन क्रांतिकारी
गतिविधियां चलाने के लिये
वह देहरादून आ
गये थे। उनकी
रियासत को भी
अंग्रेजों ने नीलाम
कर दिया था।
उन्होंने 1914 में देहरादून
से ‘‘निर्बल सेवक’’ नाम का अखबार
निकाला जो कि
आजादी समर्थक था
इसलिये महेन्द्र प्रताप को
भारत से भागना
पड़ा और तब
जा कर उन्होंने
अफगानिस्तान में आजाद
भारत की निर्वासित
सरकार बनायी थी।
वह 1946 में भारत
लौटे और शेष
जीवन देहरादून के
राजपुर रोड पर
रहने लगे।
स्वामी शारदानंद का 194 राजपुर रोड स्थित शौलमारी आश्रम |
नेताजी को चन्द्र सिंह गढ़वाली ने प्रभावित किया
सन् 1930 में हुआ
पेशावर काण्ड भी नेताजी
के लिये प्रेरणा
श्रोत बना और
उस काण्ड में
चन्द्र सिंह गढ़वाली
के नेतृत्व में
गढ़वाली सैनिकों द्वारा निहत्थे
आन्दोलनकारी पठानों पर गोलियां
बरसाने से इंकार
किये जाने की
घटना ने नेताजी
को भरोसा दिला
दिया कि गढ़वाली
सैनिक राष्ट्रवादी हैं
और मातृभूमि की
आजादी के लिये
किसी भी हद
तक गुजर सकते
हैं।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का वर्चस्व
दरअसल आजाद हिन्द
फौज (आइएनए) में
गढ़वाल रायफल्स की
दो बटालियन (2600 सैनिक)
शामिल थीं। इनमें
से 600 से अधिक
सैनिक ब्रिटिश सेना
से लोहा लेते
हुए शहीद हो
गये थे। आजाद
हिन्द फौज में
गढ़वाल रायफल्स के
गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व
करने वाले इन
तीन जांबाज कमाण्डरों
में कर्नल चन्द्र
सिंह नेगी, कर्नल
बुद्धिसिंह रावत और
कर्नल पितृशरण रतूड़ी
थे। जनरल मोहन
सिंह के सेनापतित्व
में गठित आजाद
हिन्द फौज की
गढ़वाली अफसरों और सैनिकों
की दो बटालियनें
बनायी गयीं थी।
इनमें से एक
सेकेण्ड गढ़वाल की कमान
कैप्टन बुद्धिसिंह रावत को
और फिफ्त गढ़वाल
रायफल्स की कमान
कैप्टन पितृ शरण
रतूड़ी को सौंपी
गयी। कैप्टन चन्द्र
सिंह नेगी को
आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में
सीनियर इंस्ट्रक्टर बनाया गया।
बाद में उन्हें
आइएनए के आफिसर्स
ट्रेनिंग स्कूल सिंगापुर का
कमाण्डेट बना दिया
गया। इन तीनों
को बाद में
एक साथ पदोन्नति
दे कर मेजर
और फिर ले.
कर्नल बना दिया
गया। नेताजी सुभाष
चन्द्र बोस गढ़वाली
सैनिकों को बहुत
पसन्द करते थे।
उन्होंने मेजर बुद्धिसिंह
रावत को अपने
व्यक्तिगत स्टाफ का एडज्यूटैण्ट
और रतूड़ी को
गढ़वाली यूनिट का कमाण्डैण्ट
बना दिया था।
इसी तरह मेजर
देबसिंह दानू पर्सनल
गार्ड बटालियन के
कमांडर के तौर
पर तैनात थे।
आजाद हिन्द फौज में गढ़वालियों का शौर्य
शारदानंद बाबा का कमरा |
इन तीन अफसरों
के अलावा लेफ्टिनेंट
ज्ञानसिंह बिष्ट, कैप्टन महेन्द्र
सिंह बागड़ी, मेजर
पद्मसिंह गुसाईं और मेजर
देवसिंह दाणू की
भी अपनी दिलेरी
और निष्ठा के
चलते आजाद हिन्द
फौज में काफी
धाक रही। लेफ्टिनेंट
ज्ञानसिंह बिष्ट जब 17 मार्च
1945 को टौंगजिन के मोर्चे
पर अपनी टुकड़ी
का नेतृतव कर
रहे थे तो
उनके पास केवल
98 गढ़वाली सैनिक थे। जिनके
पास रायफलें ही
रक्षा और आक्रमण
करने के लिये
थीं। इन्होंने अंग्रेजी
फौज के हवाई
और टैंक-तोपों
के हमलों का
मुकाबला किया। इनमें से
40 ने वीरगति प्राप्त
की। स्वयं ज्ञानसिंह
भी दुश्मनों के
दांत खट्टे करने
के बाद सिर
पर गोली लगने
से शहीद हो
गये थे। स्वयं
जनरल शहनवाज खां
ने अपनी पुस्तक
में इन गढ़वाली
सैनिकों और खास
कर ज्ञानसिंह बिष्ट
की असाधारण वीरता
का विस्तार से
उल्लेख किया है।
कर्नल जी.एस.ढिल्लों ने भी
अपनी रिपोर्ट “चार्ज
ऑफ द इमोर्टल्स” में इन रणबांकुरों
के बारे में
लिखा है। इसी
तरह महेन्द्र सिंह
बागड़ी के नेतृत्व
में गढ़वाली सेना
ने कोब्यू के
मोर्चे पर अंग्रेजों
की तोपों और
टैंकों से लैस
लगभग 1000 सैंनिकों की तादात
वाली सेना को
केवल रायफलों और
उन पर लगी
संगीनों से ही
खदेड़ दिया था।
कर्नल पितृशरण रतूड़ी
को सरदारे-जंग
का वीरता पदक
मिला था। दुर्भाग्यवश
दूसरे विश्व युद्ध
में जापान की
हार के साथ
ही आज़ाद हिन्द
फ़ौज को भी
पराजय का सामना
करना पड़ा। आज़ाद
हिन्द फ़ौज के
सैनिक एवं अधिकारियों
को अंग्रेज़ों ने
1945 में गिरफ्तार कर लिया।
आजाद हिन्द फौज
के गिरफ्तार सैनिकों
एवं अधिकारियों पर
अंग्रेज सरकार ने दिल्ली
के लाल किले
में नवम्बर, 1945 में
मुकदमा चलाया।
जांच पर जांच बैठी मगर सच्चाई पर पर्दा बरकार
जापान ने सबसे
पहले 23 अगस्त 1945 को घोषणा
की थी कि
नेताजी की मृत्यु
18 अगस्त 1945 को एक
विमान दुर्घटना में
हो गयी। लेकिन
टोकिया और टहैकू
के विरोधाभासी बयानों
पर संदेह उत्पन्न
होने पर प्रधानमंत्री
जवाहर लाल नेहरू
ने 3 दिसम्बर 1955 को
3 सदस्यीय जांच समिति
का गठन करने
की घोषणा की
जिसमें संसदीय सचिव और
नेताजी के करीबी
शाहनवाज खान, नेताजी
के बड़े भाई
सुरेश चन्द्र बोस
और आइसीएस एन.एन. मैत्रा
शामिल थे। इस
कमेटी के शाहनवाज
खान और मैत्रा
ने नेताजी के
निधन की जापान
की घोषणा को
सही ठहराया तो
सुरेश चन्द्र बोस
ने असहमति प्रकट
की। इसलिये विवाद
बरकार रहा। इसके
बाद 11 जुलाई 1970 को जस्टिस
जी.डी. खोसला
की अध्यक्षता में
जांच आयोग बैठाया
गया तो आयोग
ने विमान दुर्घटना
वाले पक्ष को
सही माना, मगर
नेताजी के परिजनों,
जिनमें समर गुहा
भी थे, ने
इसे अविश्वसनीय करार
दिया। इसी दौरान
कलकत्ता हाइकोर्ट ने भी
मामले की गहनता
से जांच करने
का आदेश भारत
सरकार को दिया
तो 1999 में सुप्रीम
कोर्ट के जज
मनोज मुखर्जी की
अध्यक्षता में एक
और जांच आयोग
बिठाया गया। मुखर्जी
आयोग ने माना
कि नेताजी अब
जीवित नहीं हैं,
परन्तु वह 18 अगस्त, 1945 में
ताईपेई में किसी
विमान दुर्घटना का
शिकार नहीं हुए
थे। आयोग ने
अपनी रिपोर्ट में
कहा कि ताईवान
ने कहा-18 अगस्त,
1945 को कोई विमान
दुर्घटना नहीं हुई
थी और रेनकोजी
मंदिर (टोक्यो) में रखीं
अस्थियां नेताजी की नहीं
हैं। आयोग की
जांच में यह
भी पाया गया
कि गुमनामी बाबा
के नेताजी होने
का कोई ठोस
सबूत नहीं।
क्या देहरादून का साधू नेताजी थे?
आयोग ने देहरादून
के राजपुर रोड
स्थित शोलमारी आश्रम
के संस्थापक स्वामी
शारदा नन्द को
भी नेताजी होने
की पुष्टि नहीं
की। आयोग के
समक्ष दावा किया
गया था कि
फकाता कूच बिहार
की तर्ज पर
ही शोलमारी आश्रम
बना हुआ है।
आयोग के समक्ष
कहा गया कि
इस आश्रम की
स्थापना 1959 के आसपास
उक्त साधू ने
की थी जिसका
विस्तार बाद में
100 एकड़ में किया
गया और वहां
लगभग 1500 अनुयायी रहने लगे।
आश्रम में सशस्त्र
गार्ड भी रखे
गये जिससे स्थानीय
लोग आशंकित हुये।
सन् 1962 में नेताजी
के एक साथी
मेजर सत्य गुप्ता
आश्रम में पहुंच
कर साधू से
बात की और
वापस कलकत्ता लौटने
पर उन्होंने एक
प्रेस कान्फ्रेंस कर
साधू को नेताजी
होने का दावा
किया जो कि
13 फरबरी 1962 के अखबारों
में छपा। यह
मामला संसद में
भी उठा। उक्त
साधू की 1977 में
मृत्य हो गयी।
जांच आयोग ने
कुल 12 लोगों के बयान
शपथ पत्र के
माध्यम से लिये
जिनमें से 8 ने
साधू को नेताजी
बताया मगर एक
वकील निखिल चन्द्र
घटक, जो कि
साधू के कानूनी
मामले भी देखते
थ,े ने
आयोग के समक्ष
कहा कि साधू
स्वयं कई बार
स्पष्ट कर चुके
थे कि वह
सुभाष चन्द्र बोस
नहीं हैं और
उनके पिता जानकी
नाथ बोस और
माता विभावती बोस
नहीं बल्कि वह
पूर्वी बंगाल के एक
ब्राह्मण परिवार में जन्में
हैं। आयोग नेताजी
के देहरादून में
रहने की पुष्टि
नहीं कर सका।
इसी तरह आयोग
के समक्ष शेवपुर
कलां मध्य प्रदेश
और फैजाबाद के
साधुओं के नेताजी
होने के दावे
किये गये जिन्हें
आयोग ने अस्वीकार
कर दिया।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव,
शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड
देहरादून।
मोबाइल-
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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