बलात्कार का इलाज मृत्युदण्ड भी नहीं
-जयसिंह
रावत
दिल्ली की चलती
बस में हुये
सामूहिक बलात्कार काण्ड से
भारतीय जनमानस न केवल
मर्माहत है बल्कि
उसका गुस्सा सड़कों
पर फूट रहा
है। यह एक
तरह से राष्ट्रीय
शर्म की बात
ही है, लेकिन
समाज दिशा देने
वाले राजनेता और
समाज को दर्पण
दिखाने वाले मीडिया
के साथ ही
विभिन्न तरह के
सामाजिक संगठनों द्वारा जिस
तरह इस मामले
पर बयानबाजियां की
जा रही हैं
वह और भी
ज्यादा चिन्ताजनक है। क्योंकि
कानून भावावेश में
या दबाव में
नहीं बल्कि न्याय
की कसौटी पर
कस कर बनते
हैं। मृत्युदण्ड और
अंगभग या नपुन्सक
बनाने की मांग
मान ली गयी
तो उससे समस्या
का समाधान तो
निकलेगा नहीं मगर
क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम (अपराधिक
न्याय व्यवस्था) के
साथ बलात्कार अवश्य
हो जायेगा।
दिल्ली की ताजा
शर्मनाक घटना के
बाद जिस तरह
से लोग सड़कों
पर आ रहे
हैं, उससे उनके
गुस्से की थाह
स्वतः ही ली
जा सकती है।
इस तरह एक
जघन्य अपराध के
खिलाफ समाज को
खड़ा होना ही
चाहिये और यही
एक जीवन्त और
सजग समाज की
पहचान भी है।
लेकिन क्या ही
अच्छा होता अगर
इसी तरह हमारे
देश का मीडिया,
हमारे पक्ष और
विपक्ष के नेता,
महिला आयोग समेत
विभिन्न संगठन और सरोकारों
के स्वयंभू ठेकेदार
एन.जी.ओ
देश के अन्य
हिस्सों में होने
वाले इसी तरह
के जघन्य अपराधों
के खिलाफ भी
खड़े होते और
बलात्कार पड़िताओं के प्रति
अपनी एकजुटता प्रदर्शित
करते। वास्तव में
देखा जाय तो
एक ही तरह
के अपराधों में
दुहरा मापदण्ड अपने
आप में एक
नैतिक अपराध है।
दिल्ली और देश
के अन्य हिस्सों
के बलात्कारियों में
फर्क करना एक
तरह से स्त्रित्व
की गरिमा का
अपमान और मानवता
के प्रति अपराध
ही है। ऐसा
पहली बार नहीं
हो रहा है।
दिल्ली में एक
बार दुर्भाग्य से
संजय और गीता
चोपड़ा नाम के
दो भाई बहनों
के साथ ही
इसी तरह की
दरिन्दगी हुयी। रंगा और
बिल्ला नाम के
दो हैवानों ने
भाई को पहले
मार डाला और
फिर नाबालिग बच्ची
से कुकर्म कर
उसकी भी जीवन
लाला समाप्त कर
दी। ऐसे जघन्य
कुकृत्य के लिये
मृत्यु दण्ड स्वाभाविक
ही था। बाद
में केन्द्र सरकार
ने इन दो
बच्चों के नाम
से राष्ट्रीय वीरता
पुरस्कार ही शुरू
कर दिये। उसके
बाद भी न
जाने कितने मासूमों
के साथ इस
तरह की हैवानियत
हुयी होगी मगर
न तो केन्द्र
सरकार ने उन
सबके नाम से
पुरस्कार शुरू किये
और ना ही
ऐसे संगठन सड़क
पर उतरे।
दिल्ली की शर्मनाक
घटना को लेकर
देश के विभिन्न
शहरों में जो
कुछ हो रहा
है उसमें अक्रोश
कम और तमाशा
ज्यादा नजर आ
रहा हैं। अगर
कोई अनपढ़ या
नासमझ बलात्कार के
मामलों में मृत्युदण्ड
की मांग करे
तो बात समझ
में आती है।
लेकिन अगर इसी
तरह फांसी की
मांग देश का
मीडिया और स्वयं
कानून बनाने वाले
लोग करने लगें
तो आप उसे
क्या कहेंगे। कई
बार तो लगता
है कि इतने
गम्भीर मामले में भी
लोग मशखरी ही
कर रहे हैं।
कुछ लोग बलात्कारियों
को फांसी का
प्रावधान करने की
वकालत कर रहे
हैं तो कुछ
उन्हें नपुन्सक ही बना
डालने की मांग
तक करने लगे
हैं। कुछ विद्वान
नर नारी बलात्कारियों
के लिये इन्जेक्शन
तैयार करने की
राय दे रहे
हैं तो कुछ
अंगभग की वकालत
भी कर रहे
हैं। कुल मिला
कर देखा जाय
तो इतना गम्भीर
मामला मजाक बनाता
जा रहा हैं।
अब इसी से
समझा जा सकता
है कि ऊंची-ऊंची हांकने
वाला हमारा सामाजिक
और राजनीतिक नेतृत्व
ऐसे मामलों
में भी कितना
गम्भीर है। कानून
बनाने वाली देश
की सर्वोच्च पंचायत
संसद के एक
सदन लोकसभा में
प्रतिपक्ष की नेता
ने भी बलात्कारियों
को मृत्युदण्ड की
वकालत की है।
लेकिन वह भूल
गयीं कि सन्
1999 में जब लालकृष्ण
आडवाणी गृहमंत्री थे तो
उन्होंने भी कानून
को कठोरतम बनाने
की घोषणा की
थी। अगर कठोरतम्
कानून ही एक
समाधान होता तो
यह काम सुष्मा
स्वराज की अपनी
पार्टी के शासनकाल
में ही वह
शुभ कार्य क्यों
नहीं हुआ।
बिडम्बना
देखिये कि एक
तरफ तो आप
पकड़े गये अधिकांश
बलात्कारियों को एक
दिन की भी
सजा नहीं दिला
पा रहे हैं
और बात मृत्युदण्ड
की कर रहे
हैं। जिन लोगों
को अदालत मृत्युदण्ड
देती भी है
उन्हें हमारी व्यवस्था फांसी
के तख्ते तक
नहीं पहुंचा पा
रही है। अगर
इसी तरह मशखरी
में मृत्युदण्ड की
व्यवस्था हो गयी
तो वह कानून
के साथ बलात्कार
ही होगा। राष्ट्रीय
अपराध रिकार्ड ब्यूरो
(एन.सी.आर.बी) के
अनुसार देश
की अदालतों में
वर्ष 2010 के शुरू
में 89707 बलात्कार के मामले
विचाराधीन या पेण्डिंग
थे। इनमें से
उस साल 10,475 मामलों
में आरोपी दोषमुक्त
हो गये और
मात्र 3,788 मामलों में बलात्कारियों
को सजा हो
पायी। इस प्रकार
हमारी कानून व्यवस्था
मात्र 26.55 प्रतिशत मामलों में
सजा दे पायी
और 73.44 प्रतिशत मामलों में
आरोपी दोषमुक्त हो
कर छूट गये।
यही नहीं उस
साल के अन्त
में अदालतों में
75,295 मामले लम्बित पड़े थे।
इस प्रकार समय
से न्याय न
मिलने पर भी
पीड़ितायें न्याय से वंचित
रह गयीं, क्योंकि
न्याय की ही
भावना है कि
(”जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाइड“।) अगर,
न्याय में विलम्ब
होता है तो
न्यायार्थी न्याय से वंचित
हो जाता है।
अपराध रिकार्ड ब्यूरो
के अनुसार विभिन्न
प्रदेशों और संघ
शाषित प्रदेशांे की
पुलिस के पास
जनवरी 2010 में बलात्कार
के कुल 33436 मामले
विवेचनाधीन थे। इनमें
से 1 मामला वापस
हुआ तो 44 मंे
पुलिस ने जांच
स्वीकार नहीं की।
इनके अलावा पुलिस
ने 1681 बलात्कार के आरोप
फर्जी पाये जबकि
18654 मामलों में ही
पुलिस अदालत में
बलात्कारियों पर चार्जशीट
दाखिल कर सकी।
साल के अन्त
में पुलिस के
पास 11980 मामले लम्बित पड़े
थे या आरोपियों
के खिलाफ पूरे
सालभर तक कोई
कार्यवाही नहीं हो
सकी थी। मतलब
यह कि पुलिस
एक साल में
मात्र 79 प्रतिशत मामलों को
ही न्याय के
लिये अदालत में
पेश कर सकी।
बलात्कार ही नहीं
हमारी अपराधिक न्यायिक
व्यवस्था में हत्या
जैसे जघन्य मामलों
में भी कानून
निरीह नजर आता
है। कानून के
छेदों के कारण
बलात्कारी ही नहीं
अपितु हत्यारे भी
साफ बच निकल
आते हैं और
दिन प्रतिदिन उनके
हौसले बुलन्द होते
जाते हैं। ऐसी
स्थिति में बलात्कारियों
को मृत्युदण्ड की
मांग करना अपने
आप में एक
मशखरी ही है।
दुनियां
में जहां मनावाधिकारों
के नाम पर
मृत्युदण्ड का विरोध
हो रहा है
वहीं भारत में
हर मामले में
मृत्युदण्ड की मांग
उठ रही है।
लगता है कि
हमारा देश मध्यकालीन
युग में जा
रहा है। द्वितीय
विश्व युद्ध से
मृत्युदंड उन्मूलन हेतु लगातार
प्रयास होते रहे
हैं। सन् 1977 में,
6 देशों ने इसे
निषेध किया था।
वर्तमान स्थिति यह है
कि 95 देशों ने
मृत्युदंड निषेध कर दिया
है, 9 देशों ने
इसे अन्य सभी
अपराधों के लिये
निषेध किया है,
सिवाय विशेष परिस्थितियों
के, और 35 देशों
ने इसे पिछले
दस वर्षों में
किसी को आरोपित
नहीं किया है।
अन्य 58 देशों ने इसे
पूरी तरह लागू
किया हुआ है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार,
वर्ष 2009 में 18 देशों ने
कम से कम
714 मृत्युदंड दिये हैं
और लागू भी
किये हैं। हाल
ही में कसाब
को तो फांसी
हो गयी मगर
देश में अफजल
गुरू और राजवाना
जैसे अब
भी 401 ऐसे कैदी
हैं जिन्हें फांसी
की सजा सुनाई
गई है। इनमें
से 10 फीसदी कैदियों
ने ही राष्ट्रपति
के समक्ष दया
याचिकाएं दायर की
हैं, जिसका निपटारा
नहीं हो पाया
है। इन कैदियों
में पूर्व प्रधानमंत्री
स्वर्गीय राजीव गांधी की
हत्या के दोषी
तीन कैदी भी
शामिल हैं। भारत
में 1975 से 1991 के बीच
कम से कम
40 लोगों को फांसी
के फंदे पर
लटकाया गया था।
लेकिन तमिलनाडु के
सलेम में 27 अप्रैल
1995 को सीरियल किलर आटो
शंकर को फांसी
देने के नौ
साल बाद अगस्त
2004 में कोलकाता में धनंजय
चटर्जी को फांसी
के फंदे पर
लटकाया गया। उसके
बाद मुम्बई आतंकी
हमले के दोषी
पाकिस्तानी आतंकी अजमल कसाब
को फंासी पर
लटकाया जा सका।
अपराध की दुनियां
मे भारतीय दण्ड
संहिता की धारा
307 को 302 के मुकाबले
ज्यादा खतरनाक माना जाता
है। इसका कारण
यह कि धारा
302 हत्या के मामले
में प्रभावी होती
है और उसमें
पीड़ित गवाही के
लिये जिन्दा नहीं
रह पता है,
जबकि हत्या का
प्रयास वाली दफा
307 में हिंसा पीड़ित व्यक्ति
गवाही के लिये
स्वयं जीवित रहता
है। पिछले रिकार्ड
देखों तो हत्या
के प्रयास के
मामलों में सजा
की दर हत्या
के मामलों से
कहीं अधिक नजर
आती है। इसलिये
अपराधी हत्या का प्रयास
करने के बजाय
हत्या करने में
ही अपने को
सुरक्षित मानते हैं। अगर
बलात्कार के सभी
मामलों में मृत्युदण्ड
का प्रावधान कर
दिया गया तो
बलात्कारी को मृत्युदण्ड
मिले या न
मिले मगर पीड़िता
की मृत्यु तय
मानी जा सकती
है। ऐसे में
बलात्कारी सबूत मिटाने
के लिये पीड़िता
के जीवन को
ही मिटा देंगे।
दरअसल कानून न तो
सड़कों पर बनते
हैं और ना
ही भावनाओं में
बह कर कानून
बनाये जा सकते
हैं। सड़क और
संसद की भाषा
में भी फर्क
होना चाहिये। जो
कानून भावावेश में
बनेंगे उनसे न्याय
की उम्मीद नहीं
की जा सकती
है। कानूनों को
कठोर बना कर
अगर समाज को
अपराध मुक्त किया
जा सकता तो
मृत्युदण्ड के भय
के कारण समाज
में हत्या जैसे
जघन्य अपराध ही
न होते। समाज
में आज अगर
थोड़ी बहुत कानून
व्यवस्था कायम है
तो उसका श्रेय
हमारी सामाजिक व्यवस्था
को दिया जा
सकता है। आज
भी लोग ईश्वर
से डरते हैं
या फिर लोकलाज
और लोक आचरण
का लिहाज करते
हैं। समाज में
यौन अपराध क्यों
बढ़ रहे हैं,
इस पर समाजशास्त्रियों
और जागरूक नागरिकों
को मन्थन करने
की जरूरत हैं।
स्त्री देह का
न केवल फिलमों
और टेलिविजन चैनलों
पर बेजा इस्तेमाल
हो रहा है,
बल्कि उनकी देखादेखी
कर आज फैशन
का नंगा नाच
खुले आम देखा
जा सकता है।
कम से कम
और भड़काऊ या
बदन उघाड़ू वस्त्र
धारण करना ही
फैशन बन गया
है। इस तरह
के फैशन का
आप अगर विरोध
करते हैं तो
आपको मध्ययुगीन सोच
या विकृत सोच
से ग्रसित होने
की पदवी दे
दी जाती हैं।
वर्तमान
बाजारीकरण ने एक
तरफ स्त्री को
यौन वस्तु के
रूप में बदलने
में पूरी ताकत
लगाई है, दूसरी
तरफ पुरुष की
यौनेच्छा को बढ़ाने
से भी ज्यादा
उकसाने का काम
किया है। समाज
अगर सचमुच में
स्त्रियों के प्रति
बढ़ते बलात्कार और
यौन हिंसा से
चिंतित है, तो
उसे स्त्री को
यौन वस्तु के
रूप में दिखाने
वाली हर एक
चीज का विरोध
करना पड़ेगा। गौर
से देखने पर
पाएंगे कि पूरे
माहौल में ”सेक्सश्“
घुला हुआ है।
अखबार, पत्रिकाओं और टीवी
में आने वाले
विज्ञापन फिल्में, अश्लील गाने,
साहित्य, समचार,फोटो, फिल्मी
संवाद, इंटरनेट हर जगह
स्त्री को सबसे
”सेक्सी“ रूप में
परोसा जा रहा
है। अब तो
अगर किसी लड़की
को अच्छा कम्पलीमेण्ट
देना है तो
उसे सेक्सी कहा
जा रहा है।
इस वर्ष इंटरनेट
पर सबसे ज्यादा
पूनम पांडे और
”जिस्म“- 2 की हीरोइन
सनी लिओन को
लोगों ने सबसे
ज्यादा हिट ढूंढा
है। सनी लियोन
की पोर्न छवि
को भुना कर
अपनी टीआरपी बढ़ाने
के लिये एक
चैनल उसे अपने
एक कार्यक्रम में
ले आया था।
ऐसी परिस्थितियों में
अगर आप कानून
से बलात्कार रोकने
की सोच रहे
हैं तो भूल
कर रहे हैं।
-जयसिंह
रावत-
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव , शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-
09412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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