चोर दरवाजे से सत्ता की बंदरबांट
-जयसिंह
रावत-
सन्
2003 में अटल बिहारी
बाजपेयी सरकार ने जब
संविधान का 91 वां संशोधन
विधेयक संसद में
पारित कराया था
तो उस समय
सोचा गया था
कि अब कोई
कल्याण सिंह अपनी
कुर्सी बचाने के लिये
जितने दलबदलू उतने
मंत्री बना कर
लोकतंत्र का तमाशा
नहीं बना सकेगा।
तब यह भी
सोचा गया था
कि एक बार
मंत्रिमण्डल का आकार
संविधान में तय
हो जाय तो
फिर मुख्यमंत्री पर
मंत्रि पद के
लिये अनावश्यक दबाव
नहीं पड़ेगा और
राजनीतिक अस्थिरता भी नहीं
रहेगी। लेकिन भारत के
राजनीतिक कर्णधारों ने कर्सी
बचाने और सत्त
की बंदबांट के
लिये संविधान में
भी चोर दरवाजे
निकाल लिये हैं।
इन चोर दरवाजों
से मंत्री और
मुख्यमंत्री के बराबर
रुतवे वाले संविधानेत्तर
पदधारी नेता ही
नहीं बल्कि सुखदेव
सिंह नामधारी जैसे
अपराधिक पृष्ठभूमि के लोग
सत्ता के गलियारों
में प्रवेश कर
रहे हैं। अब
एक की जगह
तीन-तीन मुख्यमंत्री
बनने लगे हैं।
मात्र
12 साल की उम्र
वाले छोटे से
राज्य उत्तराखण्ड में
जब देश के
सर्वाधिक अनुभवी नेता नारायण
दत्त तिवारी ने
सत्ता सुख के
विकेन्द्रकरण के लिये
लाल बत्तियों की
बौछार कर दी
तो भाजपा भी
कहां पीछे रहने
वाली थी। उसने
सत्ता में आ
कर न केवल
लालबत्ती धारकों की फौज
खड़ी की अपितु
7 सभा सचिव बना
कर उन्हें बाकायदा
मंत्रियों की तरह
पोर्टफोलयो तक दे
डाले। फिर सत्ता
बदली तो विजय
बहुगुणा ने न
केवल पिछली सरकार
की ही तरह
7 सभा सचिव बना
दिये बल्कि उन्हें
कैबिनेट मंत्री का दर्जा
तक दे दिया।
उत्तराखण्ड का शासन
विधान अभी उत्तरप्रदेश
सचिवालय नियमावली के अनुसार
चल रहा है
और उसमें सभा
सचिव का क्रम
उप मंत्री से
नीचे है। मतलब
यह कि कांग्रेस
नीत सरकार दिल्ली
में जो काम
संविधान संशोधन से कर
रही है, उसी
दल की सरकार
उत्तराखण्ड में स्वयं
संविधान का पोस्टमार्टम
कर रही है।
मंत्रिमण्डल
के आकार पर
अंकुश के पीछे
संविधान के 91 वें संशोधन
की एक सोच
यह भी थी
कि जितने ज्यादा
रसोइये उतना ही
खाने का जायका
बिगड़ेगा। यह सोचना
भी इसलिये सही
था कुर्सी का
उपयोग काम करने
के लिये नहीं
बल्कि भोगने के
लिये होता है।
कल्याणसिंह अपनी सत्ता
बचाने के लिये
जम्बो मंत्रिमण्डल बनाने
वाले अकेले मुख्यमंत्री
नहीं थे। दरअसल
उन्होंने सन् 1991 में सारे
दलबदलुओं को मंत्री
पद दे कर
93 सदस्यीय मंत्रिमण्डल बना कर
लोकतंत्रकामियों को एक
बार फिर सोचने
को विवश कर
दिया था। उस
समय के एक
अनुमान के अनुसार
कल्याण मंत्रिमण्डल के
सदस्यों के चाय
बिस्कुट आदि की
मेहमान नवाजी पर 55 करोड़
खर्च हुये थे।
7 जुलाइ 2004 को नये
कानून के अस्तित्व
में आने तक
लगभग हर राज्य
में भारी भरकम
मंत्रिमण्डल बनाने की परम्परा
थी। उत्तराखण्ड की
पहली अन्तरिम सरकार
में तक 30 विधायकों
में से 14 मंत्री
बने थे। इस
संविधान संशोधन के लागू
होते समय एक
अनुमान यह भी
था कि इसके
बाद सीमा से
अधिक मंत्री हटाये
जाने पर कर्नाटक
को 3 करोड़ 75 लाख,
महाराष्ट्र और पंजाब
को 4-4 करोड़ तथा
आन्ध्र को 5 करोड़
की बचत होगी
और कुल मिला
कर मंत्रियों का
बोझ हल्का होने
से सभी राज्यों
को लगभग 100 करोड़
की बचत होगी।
संविधान
की कार्यप्रणाली की
समीक्षा के लिये
गठित राष्ट्रीय आयोग
की सिफारिश पर
लोकतंत्र की मर्यादा
बनाये रखने तथा
सरकारी कोष पर
बोझ कम करने
के लिये संविधान
के 91 वें संशोधन
से अनुच्छेद 164 और
75 में नयी धाराएं
(1 क)और(1ख)
जोड़ कर यह
व्यवस्था की गयी
थी कि अब
लोक सभा या
विधानसभा की संख्या
के 15 प्रतिशत से
अधिक और कुल
12 से कम मंत्री
नहीं हो सकंगेे।
मगर सत्ता के
खिलाड़ियों ने सत्ता
सुख की बन्दरबांट
के लिये कई
और तरीके निकाल
लिये। यही नहीं
उन लोगों को
भी सत्ता सुख
चखाने का प्रबन्ध
कर दिया जिन्हें
जनादेश प्राप्त नहीं था
या जो हार
गये या फिर
चुनाव लड़ने लायक
भी नहीं रहे।
इसके लिये उत्तराखण्ड
का यह उदाहरण
काफी है कि
यहां संविधान के
प्रावधानों की बंदिशों
के कारण मंत्रियों
की संख्या तो
मात्र 12 है मगर
राज्य सरकार ने
7 विधायकों को संसदीय
सचिव बना कर
अप्रत्यक्ष रूप से
मंत्रिपरिषद की संख्या
19 कर दी है।
यही नहीं अब
राज्यपाल की जगह
मुख्यमंत्री द्वारा शपथ दिलाये
जाने की परम्परा
भी शुरू हो
गयी है। हालांकि सचिवालय
अनुदेश 1882 के अनुच्छेद
7 की धारा 52 के
तहत वे भी
मंत्रिपरिषद में शामिल
हैं और यह
91 वें संशोधन का खुला
उल्लंघन है। ये
7 तो विधायक हैं,
इनकी योग्यता चाहे
जो भी हो,
इन्हें जनता ने
चुना है और
जनता के विवेक
पर उंगली नहीं
उठाई जा सकती
है। लेकिन उत्तराखण्ड
सरकार से मंत्रियों
के जैसे ठाटबाट
वाले पदों की
खैरात एक बार
फिर बंटनी शुरू
हो गयी है।
इतने छोटे से
राज्य में ऐसे
दर्जनों संविधानेत्तर पद बांटने
का कार्यक्रम है,
जिन पर सरकार
को प्रतिवर्ष करोड़ों
रूपये खर्च करने
होंगे।
उत्तराखण्ड
में इन संविधानत्तर
पदधारियों को प्रतिमाह
10 हजार तथा कुछ
को 8 हजार मानदेय
के अलावा असीमित
पेट्रोल खर्च की
सीमा के साथ
एक कार और
चालक,रहने को
बंगला और कार्यालय
तथा दोनों पर
फोन, 6 हजार माहवार
वाला वैयक्तिक सहायक,उससे अधिक
तनख्वाह वाला चपरासी,एक गनर,
यात्रा भत्ता और दैनिक
भत्ता तथा जल-थल और
नभ में यात्रा
के लिये उच्च
श्रेणी की सुविधा
प्राप्त है। इसके
अलावा उन्हें वी.आइ.पी.श्रेणी की चिकित्सा
सुविधा भी प्राप्त
है। पिछली खण्डूड़ी
सरकार के 27 महीनों
के कुल कार्यकाल
में 11 माह के
दौरान इन पर
2 करोड़ से अधिक
का खर्च आया
था। लोकतंत्र की
इससे बड़ी त्रासदी
और क्या हो
सकती है कि
बिना कुछ किये
धरे विधानसभा से
कानून पास करा
कर इतनी सुख
सुविधायें भोगने वालों को
लाभ के पद
की श्रेणी से
अलग कर दिया
गया है। ये
संविधानेत्तर पद विभन्न
बोर्डों, सरकार समितियों, परिषदों
और निगमों आदि
में श्रृजित किये
गये हैं। मजे
की बात तो
यह है कि
जिन का स्कूल
कालेजों के दिनों
में पढ़ाई से
बैर रहा हो
उन्हें पर्यटन और इंजिनियरिंग
जैसे विभागों में
सलाहकार बनाने की परम्परा
चल पड़ी है।
संविधानेत्तर
पदों का रिवाज
लगभग हर राज्य
में है। चपरासी
के लिये भी
बाकायदा चयन समिति
के लिये गुजरना
होता है। उस
पद पर भी
कम से कम
10 वीं पास होना
अनिवार्य है मगर
देश में किसी
भी राज्य में
इन संविधानेत्तर पदो
ंके लिये कोई
योग्यता तय नहीं
है। यही नहीं
अगर आपकी सरकार
में मामूली नौकरी
लगती है तो
आपका पुलिस वैरिफिकेशन
होता है। मगर
इन ठाटबाट वाले
पदों के लिये
कोई अर्हता और
कोई वैरिफिकेशन की
जरूरत नहीं है।
इसी कारण इन
पदों पर अपराधिक
पृष्ठभूमि के लोगों
का कबिज हो
जाना आम बात
है। हाल ही
में शराब व्यवसायी
पौण्टी चड्ढा हत्याकाण्ड से
सम्बन्धित अभियुक्त सुखदेव सिंह
नामधारी का राज्य
अल्पसंख्यक आयोग का
अध्यक्ष बनाया जाना एक
ज्वलन्त उदाहरण है। नामधारी
पर कई अपराधिक
मामलों के बावजूद
भाजपा सरकार ने
उसे अध्यक्ष पद
से नवाजा था।
दरअसल राज्यों में जब
मंत्रिमण्डलों के आकार
में हद होने
लगी और गठबन्धन
के शासन का
युग पैर पसारने
लगा तो तब
बाजपेयी सरकार ने चुनाव
सुधारों की श्रृंखला
में मंत्रिमण्डल का
आकार तय करने
के लिये संविधान
संशोधन करने का
निर्णय लिया था। महत्वपूर्ण
बात यह रही
कि इस विधेयक
के लिये तत्कालीन
विपक्षी दल कांग्रेस
का तहेदिल से
समर्थन रहा। 7 मार्च 2003 को
इस सम्बन्ध में
हुयी सर्वदलीय बैठक
में भी इस
प्रस्ताव का भारी
स्वागत हुआ। इसे
संसदीय समिति की सिफारिश
पर पेश किया
गया था। पहले
केन्द्र में लोकसभा
और राज्य सभा
के सदस्यों की
संख्या के 10 प्रतिशत का
प्रावधान था जो
इस संशोधन के
बाद केवल लोकसभा
के सदस्यों का
15 प्रतिशत कर दिया
गया। यह इसलिये
कि कई राज्यों
में उच्च सदन
नहीं था। इसके
मूल विधेयक में
छोटे राज्यों के
लिये मंत्रियों की
संख्या 7 तय की
गयी थी मगर
बाद में प्रणव
मुकर्जी की अध्यक्षता
में बनी गृहमंत्रालय
की 44 सदस्यीय संसदीय
समिति की सिफारिश
पर छोटे राज्यों
के लिये यह
सीमा 12 कर दी
गयी। समिति का
यह भी मानना
था कि जिसे
जनता ने हरा
दिया हो उसे
महत्वपूर्ण पद न
दिया जाय। इसका
मकसद सत्ता में
पिछले दरवाजे से
प्रवेश पर रोक
से था मगर
संशोधन में यह
प्रावधान नहीं रखा
गया। लोकसभा की
संख्या 543 है इसलिये
नयी व्यवस्था के
तहत अब केन्द्र
में 9 सांसदों पर
एक मंत्री के
हिसाब से 81 से अधिक
मंत्री नहीं हो
सकते। राज्यों में
विधायकों की संख्या
4020 है और विधान
परिषद सदस्यों को
मिला कर यह
4487 हो जाती है।
इस हिसाब से
संविधान संशोधन (91वां) अधिनियम
2003 की राष्ट्रपति द्वारा 7 जनवरी
2004 को अधिसूचना जारी होने
के बाद राज्यों
के कुल मंत्रियों
की संख्या 603 होनी
चाहिये। मगर छोटे
राज्यों के लिये
दूसरी सीमा होने
के कारण यह
संख्या कुछ अधिक
तो हो गयी
मगर इनके अलावा
राज्य सरकारों ने
हजारों की संख्या
में संविधानेत्तर पदधारी
बना रखे हैं,
जोकि लोकतंत्र को
चूस रहे हैं।
इनमें विभिन्न राज्यों
में बने संसदीय
या सभा सचिव
भी शामिल हैं
जिनका संविधान में
कोई उल्लेख नहीं
है।
--जयसिंह
रावत-
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव , शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-
09412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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