Search This Blog

Thursday, September 6, 2012

TRAFFIC JAM ON EVEREST


हिमालय की खोपड़ी पर कदमताल
- जयसिंह रावत-
जब दुनियां की सबसे ऊंची चोटी ऐरेस्ट पर जबरदस्त ट्रैफिक जाम की स्थिति गयी हो और ऐवरेस्ट तथा फूलों की घाटी जैसे अति संवेदनशल क्षेत्रों में हजारों टन कूड़ा कचरा जमा हो रहा तो हिमालय और उसके आवरण ग्लेशियरों की सेहत की स्वतः ही कल्पना की जा सकती है। अब तो कांवडिय़ों का रेला भी गंगाजल के लिये सीधे गोमुख पहुंच रहा है जबकि लाखों की संख्या में छोटे बड़े वाहन गंगोत्री और सतोपन्थ जैसे ग्लेशियरों के करीब पहुंच गये हैं। हिमालय के इस संकट को दरकिनार कर अगर अब भी हमारे पर्यावरणप्रेमी ग्लोबल वार्मिंग पर सारा दोष थोप रहे हैं तो फिर वे सच्चाई से मुंह मोड़ रहे हैं।
एसोसियेटेड प्रेस (22 मई 2012) की एक रिपोर्ट के अनुसार पहली बार सन् 1953 में एडमण्ड हिलेरी और तेन्जिंग नोर्गे के चरण समुद्रतल से लगभग 8,850 मीटर की ऊंची ऐवरेस्ट की चोटी पर पड़ने के बाद अब तक 3000 से अधिक पर्वतारोही एवरेट की खोपड़ी पर झण्डे गाढ़ चुके हैं। हजारों अन्य चोटी के करीब पहुंच कर वापस लौट चुके हैं।इनके अलावा ऐवरेस्ट पर चढ़ाई के दौरान 225 लोग अपनी जानें गंवा चुके हैं। रिपोर्ट कहती है कि 22 मई 2012 के आसपास 200 पर्वतारोही और उनके पोर्टर ऐवरेस्ट पर चढ़ाई की तैयारियां कर रहे थे जबकि 208 अन्य बेस कैम्प के निकट अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। काठमाण्डू से हिन्दुस्तान टाइम्स के संवादददाता उत्पल पाराशर द्वाराट्रैफिक जाम इन ऐवरेस्टशाीषक से छपे समाचार से तो दुनियां की आंख खुल ही जानी चाहिये। उस स्टोरी में उत्पल ने लिखा था कि ऐवरेस्ट के रूट पर इतनी भीड़ हो चुकी है कि नेपाल सरकार को उसे नियंत्रित करना कठिन हो रहा है तथा इस जाम के कारण बड़ी संख्या में पर्वतारोहयों को अपनी बारी का लम्बे समय तक इन्तजार करना पड़ रहा है। यही नहीं सन् 1965 में चीन के परमाणु परीक्षणों पर निगरानी के उद्ेश्य से नन्दा देवी चोटी पर पर स्थापित करने के लिये ले जाये जा रहे परमाणु उपकरणों के लापता हो जाने से स्थिति और भी गम्भीर हो गयी है।
आर.के.पचौरी की अध्यक्षता वाले संयुक्त राष्ट्र इन्टर गवर्नमेण्टल पैनल की सन् 2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के गायब होने की भविष्यवाणी की फजीहत होने के बाद स्वयं पचौरी ने क्षमा याचना के साथ ही सफाई भी दे दी है। फिर भी सच्चाई तो यही है कि ऐशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के 38,000 वर्ग कि.मी.में फैले लगभग 9757 ग्लेशियरों में से ज्यादातर पीछे हट रहे हैं। जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता प्रो0 आर.के गंजू के ताजा अध्ययन के अनुसार ग्लेशियरों के पिघलने का कारण ग्लेाबल वार्मिंग नहीं है। वह कहते हैं कि अगर यह वजह होती तो नार्थ वेस्ट में कम और नार्थ ईस्ट में ग्लेशियर ज्यादा नहीं पिघलते। कराकोरम रेंज में ग्लेशियरों के आगे बढ़ने के संकेत मिले हैं। वहां 114 ग्लेशियरों में से 35 जस के तस हैं और 30 आगे बढ़ रहे हैं, जबकि बाकी सिकुड रहे हैं। यदि ग्लोबल वार्मिंग होती तो ये सारे के सारे ग्लेशियर सिकुड़ रहे होते।
आइ.आइ.टी मुम्बई के प्रोफेसर आनन्द पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित भारत सरकार के वन और अन्तरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञों के अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है मगर साथ ही यह भी उल्लेख किया है कि उत्तर पश्चिमी भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में ठण्ड बढ़ रही है। दल की रिपोर्ट में पश्चिमी तट, मध्य भारत, अन्दरूनी प्रायद्वीप और उत्तरपूर्व में तापमान बढ़ने के संकेत की पुष्टि हुयी है। दल ने अपनी रिपोर्ट में बढ़ते मानव दबाव के चलते हिमस्खलन, ऐवलांच और हिमझीलों के विस्फोट के खतरे बढ़ने की बात भी कही है। सिक्कम की तीस्ता नदी के बेसिन में 14 ब्यास, रावी, चेनाव और सतलज नदियों के बेसन में विस्फोट की सम्भावना वाली ऐसी 22 हिम झीलें बताई गयी है। दल के सदस्य एवं विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट का कहना है कि भागीरथी की तुलना में अलकनन्दा के श्रोत ग्लेशियर अधिक तेजी से गल रहे हैं, क्योंकि वहां मानवीय हस्तक्षेप अधिक है। सतोपन्थ ग्लेशियर 1962से लेकर 2005 तक 22.88 मीटर की गति से पीछे खिसका मगर इसकी पीछे खिसकने की गति 2005-06 में मात्र 6.5 मीटर प्रति वर्ष दर्ज हो पायी। सन् 2007 में भारत सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार आर. चिदम्बरम् द्वारा गठित अध्ययन दल की रिपोर्ट में कहा गया है कि गंगोत्री ग्लेशियर सन् 1962 से लेकर 1991 तक के 26 सालों में लगभग 20 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पीछे खिसका जबकि 1956 से लेकर 1971 तक 27 मीटर प्रति वर्ष और 2005 से लेकर 2007 के बीच मात्र 11.80 मीटर प्रति वर्ष की दर से सिकुड़ा। इसी रिपोर्ट में ओवेन आदि (1997)और नैनवाल आदि (2007)के अध्ययन का हवाला देते हुये कहा गया है कि भागीरथी जलसंभरण क्षेत्र के ही शिवलिंग और भोजवासा ग्लेशियर आगे बढ़ रहे हैं। इसी तरह हिमाचल की लाहौल घाटी में तीन ग्लेशियर जमाव और 2 ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गयी है। रिपोर्ट में ओवेन आदि (2006) के हवाले से लद्दाख क्षेत्र के 5 ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की बात कही गयी है। जाहिर है कि हिमालय के सारे ग्लेशियर एक साथ नहीं सिकुड़ रहे हैं। सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों की पीछे खिसकने की गति भी एक जैसी नहीं है और ना ही एक ग्लेशियर की गति एक जैसी  रही है। अगर पिघलने का एकमात्र कारण ग्लोबल वार्मिंग होता तो यह गति घटती और बढ़ती नहीं। प्रख्यात ग्लेशियर विशेषज्ञ डा0 डी0पी0 डोभाल के अनुसार हिमालय में 70 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर 5 वर्ग कि.मी. से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर के पीछे हटने की अलग-अलग गति के लिये लोकल वार्मिंग को ही जिम्मेदार मानते हैं।
हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ, सतोपन्थ और भागीरथ खर्क ग्लेशियर समूह के काफी करीब है। सन् 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग 60 हजार यात्री तीर्थ यात्रा पर पहुंचते थे। लेकिन यह संख्या अब 10 लाख तक पहुंच गयी है। इतने अधिक तीर्थयात्री मात्र 6 माह में लगभग सवा लाख वाहनों में बद्रीनाथ पहुंचते हैं। समुद्रतल से लगभग 15210 फुट की उंचाई पर स्थित हेमकुण्ड लोकपाल में 1936 में एक छोटे से गुरुद्वारे की स्थापना की गयी। सन् 1977 में वहां केवल 26700 और 1997 में केवल 72 हजार सिख यात्री गये थे, लेकिन वर्ष 2011 में हेमकुण्ड जाने वाले यात्रियों की संख्या लगभग 6 लाख तक पहुंच गयी थी। इसी तरह 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी तो वहां तब तक लगभग 70 हजार यात्री पहुंचते थे। लेकिन गत वर्ष तक गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या 3 लाख 75 हजार से उपर चली गयी। हालांकि यमुनोत्री के यात्रियों की संख्या भी 3 लाख 50 हजार तक पहुंच गयी है। समुद्रतल से 6714 मीटर की उंचाई पर स्थित कैलाश मानसरोवर भी अब प्रति वर्ष 500 यात्री पहुंचने लगे हैं। कुल मिला कर देखा जाय तो पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील उत्तराखण्ड हिमालय के इन तीर्थों पर प्रति वर्ष लगभग 20 लाख लोग पहुंच रहे हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ गंगंोत्री और यमुनात्री के लिये पैदल यात्रा की चट्टियों विशाल नगरों का रूप ले चुकी हैं।
वाहनों को प्रदूषण के मामले में सबसे आगे माना जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर चार गुना प्रदूषण करते हैं। मैदानों में प्रायः 60 किलोमीटर प्रति घण्टा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर से भी कम गति से चल पाते हैं। जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन केवल कई गुना अधिक काला दूषित धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं। समुद्रतल से 10 हजार की ऊंचाई के बाद वृक्ष पंक्ति या ट्री लाइन लुप्त हो जाती है। मतलब यह कि ये हजारों वाहन प्रतिदिन उच्च हिमालयी क्षेत्र में भारी मात्रा में कार्बनडाइ आक्साइड का उर्त्सजन तो कर रहे हैं मगर उसे चूसने वाले और हवा में आक्सीजन छोड़ने वोले वृक्ष वहां नहीं होते हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड में डेढ दशक पहले तक मात्र लगभग 1 लाख चौपहिया वाहन पंजीकृत थे जिनकी संख्या अब 9 लाख पार कर गयी है। आज यात्रा सीजन में ऋषिेकश से लेकर चार धाम तक के लगभग 1325 कि.मी. लम्बे रास्ते में जहां तहां जाम मिलता है और वाहन खड़े करने की जगह ही बड़ी मुश्किल से मिलती है।
उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा ऋषिकेश से शुरू होती है, जो कि समुद्रतल से लगभग 300 मीटर की उंचाई पर स्थित है। वाहन यहां से शुरू हो कर समुद्रतल से 3042 मीटर की उंचाई पर स्थित गंगोत्री और 3133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बद्रीनाथ पहुंचते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक यात्रा सीजन में लगभग 30 हजार वाहन सीधे गंगोत्री पहुचंते हैं। इतने वाहन अगर गोमुख के इतने करीब पहुंचेंगे तो वाहनों की आवाजाही का सीधा असर गंगोत्री ग्लेशियर पर पड़ना स्वाभाविक ही है। पिछले एक दशक से हजारों कावड़ियेे जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। यही नहीं गंगोत्री और गोमुख के बीच कई जैनेरेटर भी लग गये हैं।
एक अनुमान के अनुसार बद्रीनाथ में प्रति सीजन लगभग सवा लाख छोटे बड़े वाहन पहुंचने लगे हैं। बद्रीनाथ से 10 कि.मी. पीछे हनुमान चट्टी से चढ़ाई और मोड़ दोनों ही शुरू हो जाते हैं और वहीं से सर्वाधिक प्रदूषण शुरू हो जाता है। बद्रीनाथ से कुछ दूरी से स्थाई हिम रेखा शुरू हो जाती है और फिर कुछ आगे सतोपन्थ आदि ग्लेशियर शुरू हो जाते हैं। लगभग यही स्थिति केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की भी है। गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक के अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित कालिन्दी पास और घस्तोली होते हुये ट्रैकिंग रूट पर भी भीड़ बढ़ने लगी है।
सांसद सतपाल महाराज ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर उन्हें याद दिलाया है कि 1965 में भारत सकार की अनुमति से चीन पर खुफिया नजर रखने के लिये एक प्लूटोनियम 238 इंधन वाला अत्याधुनिक और अत्यन्त शक्तिशाली जासूसी उपकरण नंदा देवी चोटी पर स्थापित करने के लिये सी.आइ.. ने भेजा था। शिखर पर चढ़ाई के समय अचानक तूफान जाने के कारण उस दल को अपना सारा सामान वहीं छोड़ कर वापस बेसकैम्प लौटना पड़ा। मौसम साफ होने पर जब पर्वतारोही दल उस स्थान पर गया तो वहां बाकी सामान तो मिल गया मगर वह आणविक जासूसी उपकरण नहीं मिला। सम्भवतः वह उपकरण वर्फ को पिघलाकर चट्टानों की किसी दरार में घुस गया।यह उपकरण 300 सालों तक सक्रिय रहने की क्षमता रखता है। इसलिये उतनी अवधि तक इससे प्रदूषण या रेडियोधर्मी विकीरण का खतरा बना रहेगा।



No comments:

Post a Comment