हिमालय
की खोपड़ी पर कदमताल
- जयसिंह रावत-
जब दुनियां की सबसे
ऊंची चोटी ऐरेस्ट
पर जबरदस्त ट्रैफिक
जाम की स्थिति
आ गयी हो
और ऐवरेस्ट तथा
फूलों की घाटी
जैसे अति संवेदनशल
क्षेत्रों में हजारों
टन कूड़ा कचरा
जमा हो रहा
तो हिमालय और
उसके आवरण ग्लेशियरों
की सेहत की
स्वतः ही कल्पना
की जा सकती
है। अब तो
कांवडिय़ों का रेला
भी गंगाजल के
लिये सीधे गोमुख
पहुंच रहा है
जबकि लाखों की
संख्या में छोटे
बड़े वाहन गंगोत्री
और सतोपन्थ जैसे
ग्लेशियरों के करीब
पहुंच गये हैं।
हिमालय के इस
संकट को दरकिनार
कर अगर अब
भी हमारे पर्यावरणप्रेमी
ग्लोबल वार्मिंग पर सारा
दोष थोप रहे
हैं तो फिर
वे सच्चाई से
मुंह मोड़ रहे
हैं।
एसोसियेटेड
प्रेस (22 मई 2012) की एक
रिपोर्ट के अनुसार
पहली बार सन्
1953 में एडमण्ड हिलेरी और
तेन्जिंग नोर्गे के चरण
समुद्रतल से लगभग
8,850 मीटर की ऊंची
ऐवरेस्ट की चोटी
पर पड़ने के
बाद अब तक
3000 से अधिक पर्वतारोही
एवरेट की खोपड़ी
पर झण्डे गाढ़
चुके हैं। हजारों
अन्य चोटी के
करीब पहुंच कर
वापस लौट चुके
हैं।इनके अलावा ऐवरेस्ट पर
चढ़ाई के दौरान
225 लोग अपनी जानें
गंवा चुके हैं।
रिपोर्ट कहती है
कि 22 मई 2012 के
आसपास 200 पर्वतारोही और उनके
पोर्टर ऐवरेस्ट पर चढ़ाई
की तैयारियां कर
रहे थे जबकि
208 अन्य बेस कैम्प
के निकट अपनी
बारी का इन्तजार
कर रहे थे।
काठमाण्डू से हिन्दुस्तान
टाइम्स के संवादददाता
उत्पल पाराशर द्वारा
”ट्रैफिक जाम इन
ऐवरेस्ट“ शाीषक से छपे
समाचार से तो
दुनियां की आंख
खुल ही जानी
चाहिये। उस स्टोरी
में उत्पल ने
लिखा था कि
ऐवरेस्ट के रूट
पर इतनी भीड़
हो चुकी है
कि नेपाल सरकार
को उसे नियंत्रित
करना कठिन हो
रहा है तथा
इस जाम के
कारण बड़ी संख्या
में पर्वतारोहयों को
अपनी बारी का
लम्बे समय तक
इन्तजार करना पड़
रहा है। यही
नहीं सन् 1965 में
चीन के परमाणु
परीक्षणों पर निगरानी
के उद्ेश्य से
नन्दा देवी चोटी
पर पर स्थापित
करने के लिये
ले जाये जा
रहे परमाणु उपकरणों
के लापता हो
जाने से स्थिति
और भी गम्भीर
हो गयी है।
आर.के.पचौरी
की अध्यक्षता वाले
संयुक्त राष्ट्र इन्टर गवर्नमेण्टल
पैनल की सन्
2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के
गायब होने की
भविष्यवाणी की फजीहत
होने के बाद
स्वयं पचौरी ने
क्षमा याचना के
साथ ही सफाई
भी दे दी
है। फिर भी
सच्चाई तो यही
है कि ऐशिया
महाद्वीप के मौसम
को नियंत्रित करने
वाले हिमालय के
38,000 वर्ग कि.मी.में फैले
लगभग 9757 ग्लेशियरों में से
ज्यादातर पीछे हट
रहे हैं। जम्मू
कश्मीर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता
प्रो0 आर.के
गंजू के ताजा
अध्ययन के अनुसार
ग्लेशियरों के पिघलने
का कारण ग्लेाबल
वार्मिंग नहीं है।
वह कहते हैं
कि अगर यह
वजह होती तो
नार्थ वेस्ट में
कम और नार्थ
ईस्ट में ग्लेशियर
ज्यादा नहीं पिघलते।
कराकोरम रेंज में
ग्लेशियरों के आगे
बढ़ने के संकेत
मिले हैं। वहां
114 ग्लेशियरों में से
35 जस के तस
हैं और 30 आगे
बढ़ रहे हैं,
जबकि बाकी सिकुड
रहे हैं। यदि
ग्लोबल वार्मिंग होती तो
ये सारे के
सारे ग्लेशियर सिकुड़
रहे होते।
आइ.आइ.टी
मुम्बई के प्रोफेसर
आनन्द पटवर्धन की
अध्यक्षता में प्रधानमंत्री
कार्यालय द्वारा गठित भारत
सरकार के वन
और अन्तरिक्ष जैसे
आधा दर्जन संस्थानों
के विशेषज्ञों के
अध्ययन दल ने
पृथ्वी का तापमान
बढ़ने से हिमालय
पर पड़ रहे
प्रभाव को तो
स्वीकार किया है
मगर साथ ही
यह भी उल्लेख
किया है कि
उत्तर पश्चिमी भारत
और दक्षिण भारत
के कुछ हिस्सों
में ठण्ड बढ़
रही है। दल
की रिपोर्ट में
पश्चिमी तट, मध्य
भारत, अन्दरूनी प्रायद्वीप
और उत्तरपूर्व में
तापमान बढ़ने के
संकेत की पुष्टि
हुयी है। दल
ने अपनी रिपोर्ट
में बढ़ते मानव
दबाव के चलते
हिमस्खलन, ऐवलांच और हिमझीलों
के विस्फोट के
खतरे बढ़ने की
बात भी कही
है। सिक्कम की
तीस्ता नदी के
बेसिन में 14 औ
ब्यास, रावी, चेनाव और
सतलज नदियों के
बेसन में विस्फोट
की सम्भावना वाली
ऐसी 22 हिम झीलें
बताई गयी है।
दल के सदस्य
एवं विश्व विख्यात
चिपको आन्दोलन के
प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट
का कहना है
कि भागीरथी की
तुलना में अलकनन्दा
के श्रोत ग्लेशियर
अधिक तेजी से
गल रहे हैं,
क्योंकि वहां मानवीय
हस्तक्षेप अधिक है।
सतोपन्थ ग्लेशियर 1962से लेकर
2005 तक 22.88 मीटर की
गति से पीछे
खिसका मगर इसकी
पीछे खिसकने की
गति 2005-06 में मात्र
6.5 मीटर प्रति वर्ष दर्ज
हो पायी। सन्
2007 में भारत सरकार
के प्रमुख वैज्ञानिक
सलाहकार आर. चिदम्बरम्
द्वारा गठित अध्ययन
दल की रिपोर्ट
में कहा गया
है कि गंगोत्री
ग्लेशियर सन् 1962 से लेकर
1991 तक के 26 सालों में
लगभग 20 मीटर प्रतिवर्ष
की दर से
पीछे खिसका जबकि
1956 से लेकर 1971 तक 27 मीटर
प्रति वर्ष और
2005 से लेकर 2007 के बीच
मात्र 11.80 मीटर प्रति
वर्ष की दर
से सिकुड़ा। इसी
रिपोर्ट में ओवेन
आदि (1997)और नैनवाल
आदि (2007)के अध्ययन
का हवाला देते
हुये कहा गया
है कि भागीरथी
जलसंभरण क्षेत्र के ही
शिवलिंग और भोजवासा
ग्लेशियर आगे बढ़
रहे हैं। इसी
तरह हिमाचल की
लाहौल घाटी में
तीन ग्लेशियर जमाव
और 2 ग्लेशियरों के
आगे बढ़ने की
बात कही गयी
है। रिपोर्ट में
ओवेन आदि (2006) के
हवाले से लद्दाख
क्षेत्र के 5 ग्लेशियरों
के आगे बढ़ने
की बात कही
गयी है। जाहिर
है कि हिमालय
के सारे ग्लेशियर
एक साथ नहीं
सिकुड़ रहे हैं।
सिकुड़ने वाले ग्लेशियरों
की पीछे खिसकने
की गति भी
एक जैसी नहीं
है और ना
ही एक ग्लेशियर
की गति एक
जैसी रही
है। अगर पिघलने
का एकमात्र कारण
ग्लोबल वार्मिंग होता तो
यह गति घटती
और बढ़ती नहीं।
प्रख्यात ग्लेशियर विशेषज्ञ डा0
डी0पी0 डोभाल
के अनुसार हिमालय
में 70 प्रतिशत से अधिक
ग्लेशियर 5 वर्ग कि.मी. से
कम क्षेत्रफल वाले
हैं और ये
छोटे ग्लेशियर ही
तेजी से गायब
हो रहे हैं।
डोभाल भी अलग-अलग ग्लेशियर
के पीछे हटने
की अलग-अलग
गति के लिये
लोकल वार्मिंग को
ही जिम्मेदार मानते
हैं।
हिमालयी तीर्थ बद्रीनाथ, सतोपन्थ
और भागीरथ खर्क
ग्लेशियर समूह के
काफी करीब है।
सन् 1968 में जब
पहली बार बद्रीनाथ
बस पहुंची थी
तो वहां तब
तक लगभग 60 हजार
यात्री तीर्थ यात्रा पर
पहुंचते थे। लेकिन
यह संख्या अब
10 लाख तक पहुंच
गयी है। इतने
अधिक तीर्थयात्री मात्र
6 माह में लगभग
सवा लाख वाहनों
में बद्रीनाथ पहुंचते
हैं। समुद्रतल से
लगभग 15210 फुट की
उंचाई पर स्थित
हेमकुण्ड लोकपाल में 1936 में
एक छोटे से
गुरुद्वारे की स्थापना
की गयी। सन्
1977 में वहां केवल
26700 और 1997 में केवल
72 हजार सिख यात्री
गये थे, लेकिन
वर्ष 2011 में हेमकुण्ड
जाने वाले यात्रियों
की संख्या लगभग
6 लाख तक पहुंच
गयी थी। इसी
तरह 1969 में जब
गंगोत्री तक मोटर
रोड बनी तो
वहां तब तक
लगभग 70 हजार यात्री
पहुंचते थे। लेकिन
गत वर्ष तक
गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों
की संख्या 3 लाख
75 हजार से उपर
चली गयी। हालांकि
यमुनोत्री के यात्रियों
की संख्या भी
3 लाख 50 हजार तक
पहुंच गयी है।
समुद्रतल से 6714 मीटर की
उंचाई पर स्थित
कैलाश मानसरोवर भी
अब प्रति वर्ष
500 यात्री पहुंचने लगे हैं।
कुल मिला कर
देखा जाय तो
पर्यावरणीय दृष्टि से अति
संवेदनशील उत्तराखण्ड हिमालय के
इन तीर्थों पर
प्रति वर्ष लगभग
20 लाख लोग पहुंच
रहे हैं। बद्रीनाथ,
केदारनाथ गंगंोत्री और यमुनात्री
के लिये पैदल
यात्रा की चट्टियों
विशाल नगरों का
रूप ले चुकी
हैं।
वाहनों को प्रदूषण
के मामले में
सबसे आगे माना
जाता है। वैज्ञानिकों
का मत है
कि ये वाहन
मैदान की तुलना
में पहाड़ पर
चार गुना प्रदूषण
करते हैं। मैदानों
में प्रायः 60 किलोमीटर
प्रति घण्टा चलने
वाले वाहन पहाड़ों
की चढ़ाइयों और
तेज मोड़ों पर
पहले और दूसरे
गेयर में 20 किलोमीटर
से भी कम
गति से चल
पाते हैं। जिससे
उनका ईंधन दोगुना
खर्च होता है।
इस स्थिति में
वाहन न केवल
कई गुना अधिक
काला दूषित धुआं
छोड़ते हैं बल्कि
इतना ही अधिक
वातावरण को भी
गर्म करते हैं।
समुद्रतल से 10 हजार की
ऊंचाई के बाद
वृक्ष पंक्ति या
ट्री लाइन लुप्त
हो जाती है।
मतलब यह कि
ये हजारों वाहन
प्रतिदिन उच्च हिमालयी
क्षेत्र में भारी
मात्रा में कार्बनडाइ
आक्साइड का उर्त्सजन
तो कर रहे
हैं मगर उसे
चूसने वाले और
हवा में आक्सीजन
छोड़ने वोले वृक्ष
वहां नहीं होते
हैं। हिमालय की
गोद में बसे
उत्तराखण्ड में डेढ
दशक पहले तक
मात्र लगभग 1 लाख
चौपहिया वाहन पंजीकृत
थे जिनकी संख्या
अब 9 लाख पार
कर गयी है।
आज यात्रा सीजन
में ऋषिेकश से
लेकर चार धाम
तक के लगभग
1325 कि.मी. लम्बे
रास्ते में जहां
तहां जाम मिलता
है और वाहन
खड़े करने की
जगह ही बड़ी
मुश्किल से मिलती
है।
उत्तराखण्ड
की चारधाम यात्रा
ऋषिकेश से शुरू
होती है, जो
कि समुद्रतल से
लगभग 300 मीटर की
उंचाई पर स्थित
है। वाहन यहां
से शुरू हो
कर समुद्रतल से
3042 मीटर की उंचाई
पर स्थित गंगोत्री
और 3133 मीटर की
ऊंचाई पर स्थित
बद्रीनाथ पहुंचते हैं। एक
अनुमान के अनुसार
एक यात्रा सीजन
में लगभग 30 हजार
वाहन सीधे गंगोत्री
पहुचंते हैं। इतने
वाहन अगर गोमुख
के इतने करीब
पहुंचेंगे तो वाहनों
की आवाजाही का
सीधा असर गंगोत्री
ग्लेशियर पर पड़ना
स्वाभाविक ही है।
पिछले एक दशक
से हजारों कावड़ियेे
जल भरने सीधे
गोमुख जा रहे
हैं। यही नहीं
गंगोत्री और गोमुख
के बीच कई
जैनेरेटर भी लग
गये हैं।
एक अनुमान के अनुसार
बद्रीनाथ में प्रति
सीजन लगभग सवा
लाख छोटे बड़े
वाहन पहुंचने लगे
हैं। बद्रीनाथ से
10 कि.मी. पीछे
हनुमान चट्टी से चढ़ाई
और मोड़ दोनों
ही शुरू हो
जाते हैं और
वहीं से सर्वाधिक
प्रदूषण शुरू हो
जाता है। बद्रीनाथ
से कुछ दूरी
से स्थाई हिम
रेखा शुरू हो
जाती है और
फिर कुछ आगे
सतोपन्थ आदि ग्लेशियर
शुरू हो जाते
हैं। लगभग यही
स्थिति केदारनाथ, गंगोत्री और
यमुनोत्री की भी
है। गंगोत्री से
लेकर बद्रीनाथ तक
के अति संवेदनशील
उच्च हिमालयी क्षेत्र
में स्थित कालिन्दी
पास और घस्तोली
होते हुये ट्रैकिंग
रूट पर भी
भीड़ बढ़ने लगी
है।
सांसद सतपाल महाराज ने
प्रधानमंत्री को पत्र
लिख कर उन्हें
याद दिलाया है
कि 1965 में भारत
सकार की अनुमति
से चीन पर
खुफिया नजर रखने
के लिये एक
प्लूटोनियम 238 इंधन वाला
अत्याधुनिक और अत्यन्त
शक्तिशाली जासूसी उपकरण नंदा
देवी चोटी पर
स्थापित करने के
लिये सी.आइ.ए. ने
भेजा था। शिखर
पर चढ़ाई के
समय अचानक तूफान
आ जाने के
कारण उस दल
को अपना सारा
सामान वहीं छोड़
कर वापस बेसकैम्प
लौटना पड़ा। मौसम
साफ होने पर
जब पर्वतारोही दल
उस स्थान पर
गया तो वहां
बाकी सामान तो
मिल गया मगर
वह आणविक जासूसी
उपकरण नहीं मिला।
सम्भवतः वह उपकरण
वर्फ को पिघलाकर
चट्टानों की किसी
दरार में घुस
गया।यह उपकरण 300 सालों तक
सक्रिय रहने की
क्षमता रखता है।
इसलिये उतनी अवधि
तक इससे प्रदूषण
या रेडियोधर्मी विकीरण
का खतरा बना
रहेगा।
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