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Wednesday, April 2, 2014
इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन (आईजेयू) की बंगलौर में आयोजित राष्ट्रीय परिषद की बैठक में जर्नलिस्ट यूनियन ऑफ उत्तराखंड के अध्यक्ष जय सिंह रावत के नेतृत्व में उत्तराखंड के पत्रकारों के प्रतिनिधिमंडल ने भी भाग लिया, जिसमें जय सिंह रावत ने पत्रकारिता की वर्तमान दशा और दिशा पर प्रकाश डालने के साथ ही उत्तराखंड के पत्रकारों के समक्ष आने वाली समस्याओं और चुनौतियों को भी देशभर के वरिष्ठ पत्रकारों के समक्ष रखा। यह बैठक 27 और 28 मार्च को बंगलौर के होटल ईडन पार्क और वुडलैंड में संपन्न हुई। उत्तराखंड से यूनियन के अध्यक्ष जय सिंह रावत के अलावा यूनियन के उपाध्यक्ष राजेंद्र जोशी ने भी बैठक में शिरकत की।
Thursday, March 6, 2014
UTTARAKHAND CM HARISH RAWAT RELEASES THE BOOKS ON TRIBES BY SENIOR JOURNALIST JAY SINGH RAWAT ON MARCH 4TH 2014.
उत्तराखण्डः जनजातियों का इतिहास
उत्तराखण्ड की पाचों जन जातियों पर वरिष्ठ पत्रकार जयसिह रावत की शोधपूर्ण पुस्तक बाजार में आ गयी है। हमेशा जन सरोकारों से जूझते रहे जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में पांचों जनजातियों की वर्तमान स्थिति और भविष्य की सम्भावनाओं पर भी रोशनी डालने का प्रयास किया है, ताकि नीति निर्धारकों और शासकों की आंखें खुल सकें।
जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में मानव विज्ञान के चस्में से उत्तराखण्ड की जनजातीय संसार को परखने के बजाय एक पत्रकार के ही तौर पर जनजातियों के अतीत को सामने रख कर वर्तमान तथा भविष्य के बारे में चिन्तन करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक के में जनजातियों का शोषण, गैर आदिवासियों द्वारा उनकी जमीनें हड़पना, भारत -तिब्बत सीमा क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा, तराई में जनजातियों के पांव तले से उनकी जमीनों का खिसकना, वनाधिकार अधिनियम २००६ की अनदेखी, संविधान की अनुसूची पांच की भावना के अनुरूप जनजातियों के लिये सलाहकार परिषद और पंचायती राज के लिये पेसा कानून तथा जनजातीय सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण और संवर्धन जैसे विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया गया है। पुस्तक में रवांई और जौनपुर के साथ ही भारत-तिब्बत से लगे सम्पूर्ण सीमान्त क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किये जाने की मांग की वकालत की गयी है। इसमें आदिवासियों के शोषण के परिणामस्वरूप इसमें नक्सलवाद पनपने की सम्भावनाओं के प्रति आगाह किया गया है।
चिपको आन्दोलन के प्रणेता और मेगासेसे तथा पद्मभूषण जैसे सम्मानों से अलंकृत चण्डी प्रसाद भट्ट ने इस पुस्तक की प्रस्तावना (आमुख) लिखी है। पुस्तक से नयी पीढ़ी को जहां उत्तराखण्ड की समृद्ध सास्कृतिक धरोहर की झलक मिलेगी वहीं राज्य की आदिवासी जीवन के अतीत की भी जानकारी मिल सकेगी। ए
इस पुस्तक में जयसिंह रावत ने माना है कि भारत के जनजातीय समुदायों ने भारतीय परंपरा और सभ्यता को बचाते हुये मानव जीवन की एक सामानांतर सभ्यता को विकसित किया है। इन प्रकृति पुत्र और पुत्रियां का जीवन और धर्म ही प्रकृति है। यही आदिम मानव समूह भारत के मूल निवासी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी कैलाश बनाम महाराष्ट्र मामले (दिनांक 5 जनवरी 2011) में उन्हें भारत का मूल निवासी माना है। रावत का कहना है कि आदिवासी वह है जो अपने जीवन की अटूट आस्था को आदि काल से प्रकृति में स्थापित करता रहा है। अनुसूचित जाति या आदिम जाति के लोगों की अलग सांस्कृतिक पहचान के कारण बाकी लोग उन्हें पिछड़े या असभ्य मानते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति की जननी है। आदिकाल से लेकर आज तक प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, ईमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों में मौजूद है। इस धरती पर जितने आदिम या जनजाति समूह हैं उतनी ही संस्कृतियां भी हैं। आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है।
दरअसल यह पुस्तक जयसिंह रावत के लिये महज एक पुस्तक नहीं बल्कि यह उनकी पत्नी उषा, पुत्र मेजर अजय, अंकित और उनकी साझा तपस्या है। पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी, 8,प्रथम तल, के-सी-सिटी सेण्टर, 4 डिस्पेंसरी रोड पर उपलब्ध है और इसके प्रकाशक कीर्ति नवानी के अथक प्रयासों और उनके ही सौजन्य से उनके वितरकों के पास उपलब्ध होने जा रही है। प्रकाशक ने कुल 326 पृष्ठों की इस पुस्तक की कीमत 495 रुपये रखी है।
जयसिंह रावत की दो अन्य पुस्तकें विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी में ही मुद्रणाधीन हैं, जो कि शीघ्र ही बुक स्टालों पर पहुंच जायेंगी।
उत्तराखण्ड की पाचों जन जातियों पर वरिष्ठ पत्रकार जयसिह रावत की शोधपूर्ण पुस्तक बाजार में आ गयी है। हमेशा जन सरोकारों से जूझते रहे जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में पांचों जनजातियों की वर्तमान स्थिति और भविष्य की सम्भावनाओं पर भी रोशनी डालने का प्रयास किया है, ताकि नीति निर्धारकों और शासकों की आंखें खुल सकें।
जयसिंह रावत ने इस पुस्तक में मानव विज्ञान के चस्में से उत्तराखण्ड की जनजातीय संसार को परखने के बजाय एक पत्रकार के ही तौर पर जनजातियों के अतीत को सामने रख कर वर्तमान तथा भविष्य के बारे में चिन्तन करने का प्रयास किया है। इस पुस्तक के में जनजातियों का शोषण, गैर आदिवासियों द्वारा उनकी जमीनें हड़पना, भारत -तिब्बत सीमा क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा, तराई में जनजातियों के पांव तले से उनकी जमीनों का खिसकना, वनाधिकार अधिनियम २००६ की अनदेखी, संविधान की अनुसूची पांच की भावना के अनुरूप जनजातियों के लिये सलाहकार परिषद और पंचायती राज के लिये पेसा कानून तथा जनजातीय सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण और संवर्धन जैसे विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया गया है। पुस्तक में रवांई और जौनपुर के साथ ही भारत-तिब्बत से लगे सम्पूर्ण सीमान्त क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किये जाने की मांग की वकालत की गयी है। इसमें आदिवासियों के शोषण के परिणामस्वरूप इसमें नक्सलवाद पनपने की सम्भावनाओं के प्रति आगाह किया गया है।
चिपको आन्दोलन के प्रणेता और मेगासेसे तथा पद्मभूषण जैसे सम्मानों से अलंकृत चण्डी प्रसाद भट्ट ने इस पुस्तक की प्रस्तावना (आमुख) लिखी है। पुस्तक से नयी पीढ़ी को जहां उत्तराखण्ड की समृद्ध सास्कृतिक धरोहर की झलक मिलेगी वहीं राज्य की आदिवासी जीवन के अतीत की भी जानकारी मिल सकेगी। ए
इस पुस्तक में जयसिंह रावत ने माना है कि भारत के जनजातीय समुदायों ने भारतीय परंपरा और सभ्यता को बचाते हुये मानव जीवन की एक सामानांतर सभ्यता को विकसित किया है। इन प्रकृति पुत्र और पुत्रियां का जीवन और धर्म ही प्रकृति है। यही आदिम मानव समूह भारत के मूल निवासी हैं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी कैलाश बनाम महाराष्ट्र मामले (दिनांक 5 जनवरी 2011) में उन्हें भारत का मूल निवासी माना है। रावत का कहना है कि आदिवासी वह है जो अपने जीवन की अटूट आस्था को आदि काल से प्रकृति में स्थापित करता रहा है। अनुसूचित जाति या आदिम जाति के लोगों की अलग सांस्कृतिक पहचान के कारण बाकी लोग उन्हें पिछड़े या असभ्य मानते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि आदिवासी संस्कृति विश्व संस्कृति की जननी है। आदिकाल से लेकर आज तक प्रकृति मूल के अपनी रीति-रिवाज, परम्परा, कला-कौशल एवं संस्कृति को आधार मानकर बिना लोभ-लालच, ईमानदारी, सादगीपूर्ण, शांतिपूर्ण एवं संतोषपूर्ण जीवन जीने की कुशलता आदिवासियों में मौजूद है। इस धरती पर जितने आदिम या जनजाति समूह हैं उतनी ही संस्कृतियां भी हैं। आदिवासियों की सांस्कृतिक भिन्नता को बनाए रखने में कई कारणों का योग रहा है।
दरअसल यह पुस्तक जयसिंह रावत के लिये महज एक पुस्तक नहीं बल्कि यह उनकी पत्नी उषा, पुत्र मेजर अजय, अंकित और उनकी साझा तपस्या है। पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी, 8,प्रथम तल, के-सी-सिटी सेण्टर, 4 डिस्पेंसरी रोड पर उपलब्ध है और इसके प्रकाशक कीर्ति नवानी के अथक प्रयासों और उनके ही सौजन्य से उनके वितरकों के पास उपलब्ध होने जा रही है। प्रकाशक ने कुल 326 पृष्ठों की इस पुस्तक की कीमत 495 रुपये रखी है।
जयसिंह रावत की दो अन्य पुस्तकें विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी में ही मुद्रणाधीन हैं, जो कि शीघ्र ही बुक स्टालों पर पहुंच जायेंगी।
Monday, February 17, 2014
WORST HUMAN RESOURCE MANAGEMENT OF UTTARAKHAND
उत्तराखण्ड
की नौकरशाही: चोदह
कुली और पन्द्रह
मेट
जयसिंह रावत,
चौदह कुली और
पन्द्रह मेट वाली
कहावत उत्तराखण्ड सरकार
के मानव संसाधन
कुप्रबन्धन के मामले
में एकदम फिट
बैठ रही है,
क्योंकि राज्य में भले
ही ग्रास रूट
स्तर पर 62 हजार
से अधिक कार्मिकों
के पद खाली
हों मगर शीर्ष
स्तर पर मुख्य
सचिव जैसे एक
ही स्तर के
पदों पर नौकरशाही
का बोझ इस
राज्य पर भारी
बोझ साबित हो
रहा है।
उत्तराखण्ड
में भले ही
गांव स्तर पर
काम करने वाले
विकासकर्मी, ग्राम पंचायत अधिकारी
के 211 पद खाली
पड़े हों मगर
मुख्य सचिव स्तर
के पद पर
तीन-तीन और
अपर मुख्य सचिव
के पद भी
तीन-तीन अफसरों
को तैनात रखने
की परम्परा शुरू
हो गयी है।
निचले स्तर पर
कार्मिकों की भारी
कमी और ऊपर
अफसरों की भीड़
के बोझ ने
नौकरशाही के ढांचे
को बेडोल बना
कर रख दिया
है। विभिन्न विभागों
से जुटाये गये
आंकड़ों के अनुसार
इस समय प्रदेश
के विभिन्न विभागों
और संस्थानों में
62 हजार से अधिक
पद खाली हैं।
बड़ी संख्या में
विभिन्न श्रेणियों के पद
रिक्त होने के
कारण सरकारी मशीनरी
का काम गति
नहीं पकड़ पा
रहा है।
सरकार द्वारा राज्य विधानसभा
में पेश किये
गये आंकड़ों के
अनुसार राज्य में खंड
विकास अधिकारियों के
जहां 38 पद रिक्त
हैं वहीं, ग्राम
पंचायत विकास अधिकारियों के
211 पद रिक्त पड़े हुए
हैं। बीडीओ की
कमी से जहां
विकासखंडों में विकास
योजनाओं की मानीटरिंग
नहीं हो पा
रही है वहीं,
वीडीओ की कमी
के चलते ग्राम
पंचायतों में विकास
और अन्य कार्य
प्रभावित हो रहे
हैं।
उत्तराखण्ड
में प्रमुख वन
संरक्षक के अन्य
दो पद स्वीकृत
हैं, मगर उन
पदों पर 4 अफसर
तैनात किये गये
हैं। इसी प्रकार
वन विभाग में
ही अपर प्रुमुख
वन संरक्षकों के
कुल 4 पद हैं
जिन पर 8 अफसर
बिठाये गये हैं।
मुख्य वन संरक्षकों
के कुल 12 पदों
पर 18 अफसर बिठा
रखे हैं, मगर
जिन फारेस्ट गार्डों
ने वनों की
रखवाली करनी है
उनके 3650 स्वीकृत पदों में
से केवल 2730 पर
फारेस्ट गार्ड उपलब्ध हैं।
इसी प्रकार रेंजरों
के आवश्यक 308 में
से मात्र 91 और वन
दारोगाओं के 1729 पदों में
से केवल 1425 पदों पर
ही कार्मिक उपलब्ध
हैं।
उत्तराखण्ड
में समूह क,ख,ग
व घ के
कुल 257863 पद सृजित
हैं। इनमें 130432 स्थाई
व 127431 पद अस्थाई
प्रकृति के हैं।
कुल सृजित पदों
के सापेक्ष 195078 भरें
हैं, जबकि 62785 पद
रिक्त हैं। इतनी
बड़ी संख्या में
पदों के खाली
होने का सीधा
असर सेवा क्षेत्र
के साथ-साथ
विकास पर भी
पड़ रहा है।
विगत वर्षों में
यह देखा गया
है कि सरकार
वाहवाही लूटने और प्रचार
पाने के लिए
हर वर्ष वार्षिक
योजना का आकार
तो बढ़ाती रही,
लेकिन योजना राशि
को संबंधित वित्तीय
वर्ष में शत-प्रतिशत खर्च करने
के लिए आवश्यक
मानव संसाधन जुटाने
पर ध्यान नहीं
दिया गया। जानकारी
के अनुसार कुल
रिक्त पदों में
लगभग 18 हजार पदोन्नति
के तथा शेष
सीधी भर्ती के
हैं। पदोन्नति के
पद भर दिए
जाएं तो सीधी
भर्ती के पदों
की संख्या और
बढ़ जाएगी।
संघीय सेवाओं और राज्य
सेवाओं के लिये
लगभग हर महीने
दिल्ली से लेकर
देहरादून में डीपीसी
होती रहती है।
नौकरशाही की इन्ही
अभिजात्य बिरादरियों में सचिवालय
काडर भी शामिल
हो गया है।
सरकार में कहीं
कोई पद खाली
हो या न
हो मगर इन
सेवाओं के अधिकारी
एक ही पद
पर बेचैन होने
लगते हैं। जो
मांगने वाला है,
वही देने वाला
भी है, इसलिये
दरियदिली में कमी
की कोई गुंजाइश
नहीं रहती। इसी
मानव संसाधन कुप्रबन्धन
का नतीजा है
कि आज प्रभावशाली
काडरों के कार्मिक
पदोन्नत हो कर
ऊपर तो चले
जाते हैं मगर
उनके स्थान पर
निचले पद खाली
ही रह जाते
हैं। अस्थिर तथा
अदूरदर्शी सरकारों के नकारेपन
का फायदा उठा
कर आज राज्य
के हितों से
महत्वपूर्ण नौकरशाही के हित
हो गये हैं।
राज्य के एक
करोड़ लोगों के
विकास पर 4 हजार
करोड़ भी खर्च
नहीं हो पा
रहे हैं और
नौकरशाही तथा राजनीतिक
बिरादरी पर 20 हजार करोड़
का बजट भी
कम पड़ रहा
है।
Thursday, January 2, 2014
अन्धेर नगरी- चौपट राजा,
अन्धेर
नगरी- चौपट राजा, टका सेर भाजी, टका सेर खाजा...
सम्पति
का ब्यौरा देने से कतरा रहे हैं मंत्री और विधायक
जयसिंह रावत, देहरादून ( दैनिक
प्रभात)
अन्धेर नगरी चौपट
राजा, टका सेर
सब्जी टका सेर
खाजा वाली कहावत
नये राज्य उत्तराखण्ड
में चरितार्थ हो
रही हैं। विधानसभा
नियमावली के अनुसार
प्रत्येक विधायक को हर
साल अपनी सम्पत्ति
का ब्यौरा विधानसभा
सचिवालय को देना
होता है जिसे
हर साल राज्य
के गजट में
भी प्रकाशित कराना
जरूरी होता है,
लेकिन जब नियमों
का पालन कराने
वाली कार्यपालिका या
सरकार उसका पलान
न करे और
सरकार को नियमों
का पालन कराने
तथा गलत रास्ते
पर जाने से
रोकने वाला विपक्ष
भी सरकार की
ही राह चले
तो फिर इसे
अन्धेर नगरी नही
ंतो और क्या
कहेंगे?
विधानसभा नियमावली अनुसार प्रत्येक
विधायक को प्रतिवर्ष
अपना वार्षिक सम्पत्ति
विवरण विधानसभा में
देना होता है
तथा जन सूचनार्थ
इसे उत्तराखंड के
गजट में प्रकाशित
भी किया जाता
है। लेकिन जब
मुख्यमंत्री और उनके
सहयोगी मंत्री ही विधानसभा
को अपनी सम्पत्ति
का ब्यौरा हनीं
देंगे तो अन्य
विधायकों से क्या
अपेक्षा की जायेगी। यही
नहीं जब प्रतिपक्ष
के नेता भी
अपना ब्यौरा नहीं
देंगे तो विधानसभा
में सरकार का
जवाब तलब कौन
करेगा? उत्तराखंड के 70 में
से 59 विधायकों ने
01 जनवरी 2012 से अपना
कोई वार्षिक सम्पत्ति
विवरण विधानसभा मेें
नहीं दिया है।
इसमें प्रदेश के
मुख्यमंत्री संहित 12 में से
9 मंत्री भी शामिल
है। सूचना अधिकार
के अन्तर्गत सूचना
अधिकार विशेषज्ञ नदीम उद्दीन
एडवोकेट को उपलब्ध
करायी गयी सूचना
से यह खुलासा
हुआ है।
काशीपुर निवासी सूचना अधिकार
एक्टिविस्ट नदीम उद्दीन
एडवोकेट को विधान
सभा के लोेक
सूचना अधिकारी एवं
मुख्य सम्पादक सुनील
हरिव्यासी ने अपने
पत्रांक 414 दिनांक 23 दिसम्बर 2013 से
उन विधायकों व
मंत्रियों की सूची
उपलब्ध करायी है जिन्हांेंने
01 जनवरी 2012 से अपना
कोई वार्षिक सम्पत्ति
विवरण नहीं दिया
है। नदीम को
उपलब्ध करायी गयी सूचना
के अनुसार सम्पत्तियों
का विवरण उपलब्ध
न कराने वाले
मंत्रियों में मुख्यमंत्री
विजय बहुगुणा तथा
उनके मंत्री मंडल
के 8 मंत्री शामिल
है। इसके अतिरिक्त
नेता प्रतिपक्ष अजय
भट्ट ने भी
पिछले दो वर्षों
में कोई सम्पत्ति
विवरण उपलब्ध नहीं
कराया है।
आर टी
आइ सूचना के
अनुसार सम्पत्ति विवरण उपलब्ध
न कराने वाले
मंत्रियों में हरक
सिंह रावत, प्रीतम
सिंह, दिनेश अग्रवाल,
सुरेन्द्र राकेश, सुरेन्द्र सिंह
नेगी, इन्दिरा ह्रदयेश,
अमृता रावत व
यशपाल आर्य शामिल
है। नदीम को
उपलब्ध करायी गयी सूचना
के अनुसार सम्पत्ति
विवरण न देने
वाले 50 विधायकों मेें माल
चन्द्र, विजय पाल
सिंह सजवाण, राजेन्द्र
सिंह भंडारी, शैला
रानी रावत, भीमलाल
आर्य, सुबोध उनियाल,
विक्रम सिंह, दिनेश धनै,
महावीर सिंह, नवप्रभात, रमेश
पोखरियाल ’निशंक’, प्रेमचन्द्र अग्रवाल,
मदन कौशिक, आदेश
चौहान, चन्द्र शेखर, हरिदास,
फुरकान अहमद, प्रदीप बत्रा,
कुंवर प्रणव सिंह
चैम्पियन, सरवत करीम
अंसारी, संजय गुप्ता,
यतीश्वरानन्द, सुन्दर लाल मन्द्रवाल,
गणेश गोदियाल, तीरथ
सिंह रावत, दलीप
सिंह रावत, हरीश
धामी, मयूख सिंह,
नारायण राम आर्य,
ललित फर्स्वाण, चन्दन
राम दास, मदन
सिंह बिष्ट, सुरेन्द्र
सिंह जीना, अजय
भट्ट, अजय टम्टा,
मनोज तिवारी, पूरन
सिंह फर्त्याल, हेमेश
खर्कवाल, दान सिंह
भंडारी, सरिता आर्य, शैलेन्द्र
मोहन सिंघल, अरविन्द
पांडे, राजकुमार ठुकराल, राजेश
शुक्ला, प्रेम सिंह, पुष्कर
सिंह धामी, उमेश
शर्मा (काऊ), राजकुमार, हरबन्स
कपूर व गणेश
जोशी शामिल है।
ल्लेखनीय है कि
नियमानुसार प्रत्येक विधायक को
अपना वार्षिक सम्पत्ति
विवरण विधानसभा में
देना होता है
तथा जन सूचनार्थ
इसे उत्तराखंड के
गजट में प्रकाशित
भी किया जाता
है।
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