Article of Jay Singh Rawat published by Divya Himgiri magzine on November 17, 2019 |
खाकी और काले कोट की टक्कर में कानून पिसा
-जयसिंह रावत
देश की राजधानी
में वकीलों और
दिल्ली पुलिस की लड़ाई
में पलड़ा चाहे
जिसका भी भारी
रहे मगर मगर
इस अशोभनीय और
अराजक घटनाक्रम में
कानून और मयादाओं
का कचूमर अवश्य
बन गया। अपने
तर्कों और ज्ञान
से अदालतों मंें
जनता को न्याय
दिलाने वाले काले
कोट धारी कुछ
वकीलों ने जिस
तरह अदालत के
बजाय स्वयं ही
सड़क पर न्याय
कर डाला उससे
कानून और न्याय
व्यवस्था की धज्जियां
तो उड़ी ही
हैं लेकिन किसी
भी शासन की
शक्ति की प्रतीक
पुलिस पर हमला
कर एक तरह
से सत्ता की
सार्वभौमिकता का ही
राजधानी की सड़कों
पर रौंद दिया
है। लेकिन दूसरी
ओर अपने को
असुरक्षित महसूस कर रहे
कानून के रक्षक
तीस हजारी कोर्ट
की घटना के
विरोध में 5 नवम्बर
को अपने ही
मुख्यालय के समक्ष
जिस तरह बेकाबू
हुये उसने 1988 के
दिल्ली पुलिस के असन्तोष
को भी बहुत
पीछे छोड़ कर
1973 के उत्तर प्रदेश के
पीएसी विद्रोह की
याद ताजा कर
दी है। देश
की बेहतरीन समझी
जाने वाली दिल्ली
पुलिस का आवेश
में अनुशासन की
लक्ष्मण रेखा को
इस तरह लांघना
भविष्य के लिये
शुभ संकेत नहीं
है।
संविधान
के महीने संविधान की धज्जियां
वकीलों और पुलिस
के बीच झड़पें
होना कोई नयी
बात नहीं है।
कचहरियों में आम
आदमी के पिटने
की घटनाऐं भी
नयी नहीं हैं।
लेकिन काले कोट
वालों द्वारा खाकी
वर्दीधारियों को देश
की राजधानी की
सड़कों पर इस
तरह बेरहमी से
पिटते कभी नहीं
देखा गया था।
जिस खाकी को
देख कर आम
आदमी खौफ खाता
है वहीं खाकी
दिल्ली की सड़कों
पर पुलिसकर्मियों के
लिये पिटने का
सबब बन गयी
थी। देखा जाय
तो देश के
संविधान के अनुसार
समाज में कानून
का राज कायम
रखने के लिये
नियुक्त कानून के रखवालों
पर इस तरह
संगठित हमला देश
के कानून और
संविधान पर ही
हमला था और
यह हमला उस
नवम्बर के महीने
हुआ है जिस
महीने की 26 तारीख
को बेहतरीन संविधान
देश को मिला
था।
पुलिसकर्मियों ने भी पार की लक्ष्मण रेखा
दिल्ली में 2 नवम्बर और
उसके बाद जो
कुछ हुआ वह
सारी दुनियां ने
देख लिया। इस
घटना के बाद
पहली बार पुलिस
के प्रति जो
देशभर में जो
सहानुभूति देखी गयी
वह स्वाभाविक ही
थी। उसी से
प्रेरित हो कर
देश के विभिन्न
कोनों से वरिष्ठ
आइपीएस एवं आइएएस
अफसरों ने भी
निजी तौर पर
दिल्ली पुलिस के साथ
अपनी एकजुटता प्रकट
की। हालांकि दिल्ली
पुलिस के जवान
अपने आला अफसरों
को धिक्कारते हुये
किरन वेदी को
याद कर रहे
थे। लेकिन दूसरी
ओर विवशता से
ही सही मगर
पुलिस का इस
तरह लक्ष्मण रेखा
को पार करना
कानून व्यवस्था और
अनुशासन को लेकर
भविष्य के गर्भ
में दबी आशंकाओं
को भी कुलबुला
गया है। सामान्यतः
इस तरह की
सीमाएं जब एक
बार टूटती हैं
तो फिर अक्सर
टूटती जाती हैं।
पिटे पुलिसकर्मियों को क्यों याद आयी किरन बेदी
चोरी के मामले
में 16 जनवरी 1988 को दिल्ली
पुलिस राजेश अग्निहोत्री
नाम के वकील
को हथकड़ी डाल
कर तीस हजारी
कोर्ट में ले
गयी तो वहां
वकीलों ने अपने
साथी को हथकड़ी
पहनाने पर भारी
विरोध किया। यही
नहीं उन्होंने अपना
विरोध मजिस्ट्रेट के
समक्ष भी प्रकट
किया तो मजिस्ट्रेट
ने भी वकीलों
के विरोध को
जायज ठहरा कर
अभियुक्त वकील को
उसी दिन रिहा
करने के आदेश
दे दिये। अगले
दिन 18 जनवरी को वकील
पुलिस के खिलाफ
हड़ताल पर चले
गये। तत्कालीन डीसीपी
किरन बेदी ने
20 जनवरी को प्रेस
कान्फ्रेंस कर पुलिस
की कार्यवाही को
जायज ठहराया तो
उनके विरोध में
तीस हजारी कोर्ट
परिसर स्थित किरन
बेदी के कार्यालय
के समक्ष वकील
प्रदर्शन करने पहुंच
गये जिन्हें खदेड़ने
के लिये पुलिस
ने लाठी चार्ज,
वाटर कैनन और
आंसू गैस तक
का इस्तेमाल किया
जिससे कई वकील
घायल भी हुयेे।
इस घटना के
विरोध में तथा
किरने बेदी के
खिलाफ कार्यवाही की
मांग को लेकर
वकीलों ने ढाइ
महीने तक हड़ताल
रखी। यही नहीं
हाइकोर्ट द्वारा जब सिटिंग
जज के नेतृत्व
में घटनाक्रम की
जांच बैठाई तो
जांच कमेटी ने
किरन बेदी को
दोषी ठहराया और
अदालत के आदेश
पर किरन बेदी
का तबादला कर
दिया गया। पुलिस
नेतृत्व से निराश
लुटे पिटे जवानों
को ऐसी स्थिति
में किरन बेदी
नही ंतो फिर
कौन याद आता?
संगठन के बैनरतले एकजुट होना चाहते हैं पुलिसकर्मी
दिल्ली के पुलिसकर्मियों
की अब पहली
मांग अपना संगठन
बनाने की है,
लेकिन देश की
राजधानी में पुलिस
को संगठन बनाने
की इजाजत दी
जायेगी, इस पर
संदेह है। कानून
भी बिना सरकार
की अनुमति के
संगठन बनाने की
अनुमति नहीं देता।
लेकिन सवाल यह
भी उठ सकता
है कि जब
बिना संगठन के
ही दिल्ली पुलिस
के जवान और
अधीनस्थ कर्मचारी वर्दी समेत
अन्य सिविलियन कर्मचारियों
की तरह सड़कों
पर उतर सकते
हैं तो फिर
तब क्या होगा,
जब इनके ऊपर
संगठन की छत्रछाया
होगी? देखा जाय
तो पुलिस कर्मचारियों
को अन्य सिविलियन
कर्मचारियों की तरह
संठन बनाने के
अधिकार की मांग
नई नहीं है।
बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल,
केरल जैसे कुछ
राज्यों में पुलिस
एसोसिएशन पहले ही
अस्तित्व में हैं।
पुलिस फोर्स के
लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी
करने वालों का
मत है कि
अन्य सरकारी कर्मचारियों
को संगठन बनाने
और आंदोलन में
उतरने का अधिकार
है तो पुलिसकर्मियों
को क्यों नहीं?
इसके विपरीत दूसरा
मत यह भी
है कि यूनियन
ना सही फिर
भी यदि इस
प्रकार की एसोसिएशन
बन गयीे तो
उनका भारी खामियाजा
पुलिस विभाग को
उठाना पड़ेगा। इसमें
अनुशासनहीनता से लेकर
विद्रोह की संभावना
तक सम्मिलित हैं।
इसीलिये पुलिसवालों के संगठन
के विरोध में
मेरठ और मुरादाबाद
आदि स्थानो ंपर
हुये साम्प्रदायिक दंगों
में पीएसी की
भूमिका और अन्य
कई स्थानों पर
पुलिस की उदंडता
का भी हवाला
दिया जाता रहा
है।
1973 के पीएसी के विद्रोह की यादें हुयीं ताजा
सन् 1973 का उत्तर
प्रदेश के पीएसी
के विद्रोह के
पीछे भी लगभग
यही कारण थे
और और उस
समय भी पुलिसकर्मियों
ने यूनियन बनाने
की मांग की
थी। यह विद्रोह
1946 के नोसेना विद्रोह के
बाद का दूसरा
विद्रोह था। नोसेना
का विद्रोह तो
ब्रिटिश शासन के
खिलाफ था, लेकिन
आजादी के बाद
हुआ पीएसी की
12वीं बटालियन का
विद्रोह अपनी ही
सरकार के खिलाफ
था। तत्कालीन गृह
राज्य मंत्री के.सी. पंत
द्वारा 30 मई 1973 को राज्यसभा
को दी गयी
सूचना के अनुसार
22 से 25 मई 1973 तक चले
इस विद्रोह को
दबाने के लिये
की गयी सैन्य
कार्रवाई के दौरान
पीएसी के 22 जवान
मारे गये थे
तथा 56 अन्य घायल
हो गये थे।
इस सैन्य कार्रवाई
में सेना ने
भी अपने 13 जवान
खो दिये थे
और 45 अन्य घायल
हो गये थे।
इस विद्रोह में
शामिल पीएसी के
सेकड़ों जवान सेवा
से बर्खास्त कर
दिये गये थे।
टाइम्स आफ इंडिया
की रिपोर्ट के
अनुसार सैन्य कार्यवाही में
पीएसी और पुलिस
के 35 जवान मारे
गये थे और
65 अपराधिक मुकदमों में 795 पुलिसकर्मियों
पर कार्यवाही हुयी
थी। गोलीबारी करने
वाले 500 पुलिसकर्मी बर्खास्त किये
गये थे। इस
समाचार को न्यूयार्क
टाइम्स जैसे विदेशी
अखबारो ंने प्रमुखता
से प्रकाशित किया
था। इस विद्रोह
का इतना जबरदस्त
राजनीति असर हुआ
कि 425 सदस्यीय उत्तर प्रदेश
विधानसभा में 280 सीटों वाली
कांग्रेस की कमलापति
त्रिपाठी सरकार को 12 जून
1973 को सत्ता से हटना
पड़ा था। उसके
बाद उत्तर प्रदेश
में 8 नवम्बर 1973 को
हेमवती नन्दन बहुगुणा द्वारा
मुख्यमंत्री पद संभालने
तक राष्ट्रपति शासन
रहा।
निराशा
का परिणाम था पीएसी का विद्रोह
सेवा संबंधी विकट परिस्थितियां
के कारण अधिकांश
पुलिसकर्मी अक्सर तनावग्रस्त रहते
हैं। उनकी ड्यूटी
अनिश्चित होती है,
काम के घंटे
तय नहीं होते,
सोने-खाने का
भी समय तय
नहीं होता, अतिरिक्त
काम का ओवरटाइम
नहीं मिलता, पूरा
आराम नहीं मिलता,
उन्हें परिवार के साथ
रहने और त्योहार
मानाने के अवसर
कम मिलते हैं।
सामान्यतः वे अपनी
कुंठाओं को आम
लोगों पर उतार
लेते हैं। किरन
बेदी एक अपवाद
ही रहीं जबकि
सामान्यतः ऐसी परिस्थितियों
में पुलिस अफसर
अपने जवानों का
साथ देने के
बजायवहां खड़े होते
हैं, जहां उनके
हित सुरक्षित होते
हैं। इन्हीं विपरीत
परिस्थितियों ने उत्तर
प्रदेश में 1973 में पीएसी
विद्रोह को जन्म
दिया था। इस
विद्रोह को तो
सेना ने कुचल
दिया लेकिन पुलिस
संगठन और लोकतांत्रिक
अधिकारों की चाह
को सदा के
लिये नहीं दबाया
जा सका। उत्तर
प्रदेश के कुछ
जुझारू पुलिसकर्मियों ने 1993 में इलाहाबाद
हाईकोर्ट में याचिका
(संख्या 5350) दायर की
जिसमें उन्होंने तर्क दिया
कि जब हर
प्रदेश में आइपीएस
समेत सभी अधिकारियों-कर्मचारियों की एसोसिएशन
है तो यूपी
में इस पर
पांबंदी क्यों लगायी जा
रही है? इस
तर्क को मान
कर हाईकोर्ट द्वारा
27 अगस्त 1993 को एसोसिएशन
के गठन को
मंजूरी का फैसला
भी सुनाने के
बाद उत्तर प्रदेश
के पुलिसकर्मियों ने
रजिस्ट्रार फर्म एंड
सोसायटी में अपनी
एसोसिएशन का पंजीकरण
कराया।
संविधान
में सशस्त्र बलों के लिये हैं सीमाएं
भारत के संविधान
में अनुच्छेद 19 (ग)
के तहत प्रत्येक
नागरिक को समूह
बनाने का मौलिक
अधिकार प्रदान किया गया
है। लेकिन इसके
साथ कुछ सीमायें
भी निर्धारित की
गयी हैं जो
देश की एकता
और अखंडता, लोक
व्यवस्था तथा सदाचार
जैसे कारणों के
आधार पर नियत
की जाती हैं।
लेकिन दूसरी ओर
सशस्त्र बलों के
लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों
में लगे पुलिस
बलों के लिए
संविधान के ही
अनुच्छेद 33 में एसोसिएशन
बनाने के विषय
में कुछ सीमायें
भी तय की
गयी हैं। उसमें
यह भी कहा
गया है कि
इस सम्बन्ध में
उचित कानून बना
कर समूह को
नियंत्रित करने का
अधिकार देश की
संसद को होगा।
ऐसा इन बलों
की विशिष्ठ स्थिति
और कार्यों की
आवश्यकता के अनुसार
किया गया। पुलिस
बलों के लिए
बाद में भारतीय
संसद द्वारा पुलिस
फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स)
एक्ट 1966 बनाया गया। इस
अधिनियम की धारा
3 के अनुसार पुलिस
बल का कोई
भी सदस्य बिना
केंद्र सरकार (या राज्य
सरकार) की अनुमति
के किसी ट्रेड
यूनियन जैसी यूनियन
का सदस्य नहीं
बन सकता है।
अब कुछ राज्य
सरकारों ने कल्याणकारी
उद्ेश्य वाली एसोसियेशनों
के गठन की
अनुमति तो दी
है मगर बाकायदा
टेªड यूनियन
के गठन की
अनुमति अब भी
कहीं नहीं मिली
है। यही नहीं
अधिकांश राज्यों ने तो
समितियों या एसोसियेशनों
के गठन की
तक अभी अनुमति
नहीं दी है।
पुलिस में असंतोष भड़काना दंडनीय अपराध
पुलिस (इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन)
एक्ट 1922 की धारा-3
में जान-बूझ
कर पुलिस बल
में असंतोष फैलाने,
अनुशासनहीनता फैलाने आदि को
दंडनीय अपराध निर्धारित किया
गया है। लेकिन
इसके साथ ही
इस अधिनियम की
धारा 4 के अनुसार
केन्द्र अथवा राज्य
सरकार द्वारा मान्यता
प्राप्त किसी एसोसियेशन
द्वारा पुलिस बल के
कल्याणार्थ अथवा उनकी
भलाई के लिए
उठाये गए कदम
किसी प्रकार से
अपराध नहीं माने
जाते हैं।
अंग्रेज
तो गये मगर ढांचा छोड़ गये
सन् 1857 के भारत
के पहले स्वतंत्रता
संग्राम के बाद
ब्रिटेन की महारानी
के आदेश पर
बने शाही जांच
आयोग की सिफ़ारिशों
के आधार पर
जब भारत में
पुलिस का ढांचा
खड़ा किया गया
तो उसका उद्ेश्य
जनता की रक्षा
करना या लोगों
की मदद करना
नहीं बल्कि किसी
भी जनाक्रोश को
दबाना था। इसके
लिए पुलिस को
खुली छूट मिली
और वह ख़ौफ़
और दहशत का
पर्याय बन गयी।
उसकी ज्यादतियों पर
ऐसी हायतौबा मची
कि एक और
बग़ावत जैसे आसार
बनने लगे और
20वीं सदी की
शुरूआत में शाही
पुलिस आयोग का
गठन करना पड़ा।
इस आयोग ने
पुलिस ढांचे की
सुधार करने की
सिफ़ारिश पेश की।
लेकिन शाही आयोग
की सिफ़ारिशें धरातल
पर नहीं उतर
सकीं। देश आज़ाद
हो गया लेकिन
गुलामों को काबू
में रखने के
लिये बनायी
गयी पुलिस वही
की वही बनी
रही। जनता के
लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन
करने वाली वही
पुलिस अपने लोकतांत्रिक
अधिकारों के लिये
छपटपटा रही है।
जयसिंह रावत
ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
Mobile-9412324999
No comments:
Post a Comment