गोभक्तों के राज में गोमाता की खाल खिंचाई
गाय की खालों से देहरादून नगर निगम की 1 लाख की कमाई
-जयसिंह रावत
विधानसभा में प्रस्ताव
पास करा कर
गाय को राष्ट्रमाता
घोषित करने वाला
उत्तराखण्ड देश का
पहला राज्य तो
बन गया मगर
साथ ही सवाल
भी उठ रहा
है कि गाय
को राष्ट्रमाता घोषित
कराने की पहले
करने से क्या
देवभूमि उत्तराखण्ड में गायों
या गोवंश की
हो रही दुर्दशा
में सुधार आ
जायेगा? अगर राज्य
सरकार सचमुच गौ
संरक्षण के प्रति
संवेदनशील होती तो
नैनीताल हाइकोर्ट को स्वयं
को राज्य की
गायों का कानूनी
अभिभावक घोषित नहीं करना
पड़ता और राज्य
सरकार को गो
वध को तत्काल
रोकने और पर्याप्त
संख्या में कांजी
हाउस या गौ
सदन स्थापित करने
का आदेश नहीं
देना पड़ता। गोरक्षक
सरकार की नाक
के नीचे देहरादून
के सरकारी कांजी
हाउस की गायों
की खालें निकालने
के साथ ही
उनके अवशेष बेचे
जाते हैं जबकि
नियमानुसार उनको दफनाया
जाना चाहिये।
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Article of Jay Singh Rawat published in Navjivan (Associated Journal Ltd) on 13 January 2019 |
राज्य गठन के
बाद पैतृक राज्य
उत्तर प्रदेश के
सभी कानूनों को
अपनाने वाले उत्तराखण्ड
में पहले से
ही उत्तर प्रदेश
गोवध अधिनियम 1955 लागू
हो गया था।
इसके बाद राज्य
में 2007 में भाजपा
सरकार आयी तो
उसने उत्तराखण्ड गो
वंश संरक्षण अधिनियम
2007 बना दिया जिसकी
नियमावली 2011 में प्रख्यापित
की गयी। यद्यपि
राज्य में उत्तर
प्रदेश गो सेवा
आयोग अधिनियम 1999 को
अन्य नियमों के
साथ ही 2002 में
अपना लिया गया
था। राज्य की
भाजपा सरकार ने
स्वयं को सबसे
बड़ी गोरक्षक साबित
करने की दिशा
में एक और
कदम बढ़ाते हुये
21 अक्टूबर 2017 को गढ़वाल
और कुमाऊं मण्डलों
में दो गो
वंश सरक्षण स्क्वाडों
का गठन भी
कर दिया। उसके
बाद राज्य गौ
संरक्षण आयोग ने
अगस्त 2018 में गो
रक्षकों को बाकायदा
मान्यता प्राप्त पहचान पत्र
जारी करने का
भी निर्णय ले
लिया। दिसम्बर 2018 के
शीतकालीन सत्र में
त्रिवेन्द्र सरकार ने विधानसभा
से गाय को
राष्ट्रमाता का दर्जा
देने का प्रस्ताव
पारित करा कर
उसे केन्द्र सरकार
को भेज कर
स्वयं को देश
की अकेली और
सबसे बड़ी गोवंश
रक्षक सरकार होने
का ताज स्वयं
ही अपने सिर
बांध दिया। लेकिन
वास्तविकता यह है
कि राज्य में
गो भक्ति और
गो वंश संरक्षण
के नाम पर
केवल ढकोसला ही
हो रहा है
और राज्य सरकार
को सड़कों तथा
गली कूचों में
दम तोड़ रहे
घायल, बीमार, आशक्त
और परित्यक्त गौवंश
की कोई चिन्ता
नहीं है। राज्य
सरकार को आवारा
साडों द्वारा उत्पात
मचाये जाने की
भी परवाह नहीं
है और नैनीताल
हाइकोर्ट ने 13 अगस्त 2018 को
अपने ऐतिहासिक फैसले
में राज्य में
गाय, बैल, बछड़े
एवं आवारा साडों
को छोड़े जाने
एवं इन पशुओं
पर क्रूरता तथा
अशक्त स्थिति में
इनको संरक्षण न
दिये जाने पर
गहरी चिन्ता प्रकट
करने के साथ
ही स्वयं को
इन बेजुबान और
लावारिश पशुओं का कानूनी
वारिश और संरक्षक
घोषित कर एक
तरह से सरकार
के दावों पर
अविश्वास जाहिर कर दिया।
अदालत द्वारा सरकार
की जिम्मेदारियों को
अपने हाथ में
लेने का साफ
मतलब है कि
राज्य सरकार जो
भी प्रयास कर
रही है, केवल
घकोसला ही है।
यही नहीं अदालत
ने सड़कों पर
आवारा पशुओं के
भटकने पर अधिकारियों
की भी जिम्मेदारी
तय कर दी।
अदालत ने लावारिश
पशुओं के लिये
प्रत्येक नगर निकाय
में और 25 गावों
पर एक कांजी
हाउस या गोसदन
बनाने के निर्देश
भी राज्य सरकार
को दिये।
उत्तराखंड में गो
सेवा आयोग के
लिए 2002 में अधिनियम
बना था लेकिन
आयोग को अस्तित्व
में आते-आते
आठ साल लग
गये। 2010 में आयोग
अस्तित्व में आया।
उसके बाद अब
फिर से आठ
साल हो चुके
हैं और आयोग
में अभी तक
अधिकारियों-कर्मचारियों के पदों
का ढांचा तक
नहीं बन पाया
है। आयोग के
पास अपना कोई
स्थायी अधिकारी-कर्मचारी नहीं
है। पांच कर्मचारी
पशुपालन विभाग से अटैच
किये गये हैं।
प्रभारी अधिकारी के पास
आयोग के अलावा
शासन में अन्य
विभागीय कार्य भी होते
हैं। उत्तराखंड गो
सेवा आयोग के
अध्यक्ष नरेंद्र सिंह रावत
का कहना है
कि बार-बार
पत्र लिखने के
बावजूद सरकार ने आयोग
के कर्मियों का
ढांचा नहीं बनाया।
आयोग के पास
बजट ही नहीं
है। हद तो
यहां तक है
कि शासन के
जिम्मेदार अधिकारी आयोग की
बैठकों में नहीं
आते जिस कारण
बिना विभागीय स्तर
पर कोई निर्णय
नहीं होता और
बैठकें बेनतीजा हो जाती
हैं। वित्तीय तंगी
के कारण कार्यालय
का खर्च चलाने
के लिये आयोग
उधारी पर चल
रहा है।
प्रदेश में 8 नगर निगमों
सहित कुल 90 नगर
निकाय हैं और
नियमानुसार प्रत्येक निकाय में
कांजी हाउस या
गोसदन होने चाहिये
लेकिन इतने नगर
निकायों में से
केवल देहरादून नगर
निगम के पास
एक कांजी हाउस
है। राज्य के
इस एकमात्र सरकारी
कांजी हाउस की
दुर्दशा देख कर
भी गोरक्षकों की
सरकार के ढकोसले
की पोल खुल
जाती है। इस
कांजी हाउस की
क्षमता केवल 50 से 60 गोवंशी
मवेशियों को रखे
जाने की है।
मगर वर्तमान में
उसमें 250 पशु ठूंसे
गये हैं। सचिवालय
में 81 लाख रुपये
लागत से एक
बड़ी गोशाला के
निर्माण का प्रस्ताव
पिछले ढाइ सालों
से सचिवालय में
लंबित पड़ा हुआ
है। राज्य में
राजनीतिक शासकों और नौकरशाहों
के लिये एक
से बढ़ कर
एक आलीशान भवन
बन रहे हैं
मगर बेजुबान पशुओं
को मरने के
लिये एक तंग
शेड में ठूंसा
जा रहा है।
गत वर्ष 7 एवं
8 अक्टूबर को आयोजित
इनवेस्टर्स समिट के
दौरान देशभर में
बदनामी के डर
से देहरादून की
सड़कों पर मंडरा
रहे या दम
तोड़ रहे आवारा
पशुओं को उठा
कर कांजी हाउस
में डाल दिया
गया था ताकि
बाहर से आने
वाले निवेशकों को
सड़कों पर गोवंश
की दुर्दशा दिखाई
न पड़े। उसी
दौरान कांजी हाउस
में अतिरिक्त शेड
बनाने की जरूरत
समझी गयी और
शेड का निर्माण
भी शुरू किया
गया। मगर इनवेस्टर्स
समिट का शोर
थमते ही शेड
का निर्माण भी
थम गया। कांजी
हाउस के एक
कर्मचारी का कहना
था कि यहां
लगभग 2 या 3 पशु
हर रोज आते
हैं और इतने
ही हर रोज
मर भी जाते
हैं। मरी गायों
या सांडों को
उठाने के लिये
राजेश नाम के
एक व्यक्ति की
संस्था को शव
निस्तारण का ठेका
दिया हुआ है।
इस बार का
ठेका लगभग 1 लाख
रु0 में राजेश
के पक्ष में
छूटा था। कांजी
हाउस द्वारा ऐसी
10 संस्थाएं पंजीकृत हैं जो
मृत पशुओं को
हासिल करने के
लिये टेंडर डालते
हैं। कांजी हाउस
वालों की जिम्मेदारी
केवल मृत पशु
को ठेकेदार को
सौंपने तक की
है और उसके
बाद ठकेदार शव
के उपयोग या
अपनी सुविधा से
निस्तारण के लिये
स्वतंत्र है। जबकि
उत्तराखण्ड राज्य गोवंश संरक्षण
अधिनियम 2011 की धारा
7 (2) के अनुसार मृत पशु
को केवल दफनाया
ही जा सकता
है। कर्मचाररियों ने
पूछने पर बताया
कि ठेकेदार द्वारा
मृत गाय की
खाल निकाली जाती
है। लेकिन वे
यह बताने की
स्थिति में नहीं
थे कि खाल
के अलावा मृत
गाय के मांस,
सींग और हड्डियों
का क्या होता
है? अगर मृत
गायों का गोमांस
बिक भी रहा
होगा तो इससे
न तो गऊभक्त
सरकार का और
ना ही आरएसएस
के गोरक्षकों का
कोई वास्ता है।
सरकार प्रदेश के
सभी 90 नगर निगमों
और नगर पालिका
क्षेत्रों में आवारा
पशुओं की समस्या
गंभीर होती जा
रही है मगर
देहरादून के अलावा
कहीं भी इन
पशुओं को रखने
की व्यवस्था नहीं
है। देहरादून नगर
निगम में तो
उसके पशु चिकित्सक
के बैठने के
लिये एक अदद
कमरा तक नहीं
है। राज्य में
एक सरकारी कांजी
हाउस के अलावा
स्वेच्छिक और धर्मार्थ
संस्थाओं द्वारा भी 22 गोसदन
संचालित किये जा
रहे हैं। लेकिन
इन गोसदनों में
गायें किस हाल
में हैं या
मृत गायों का
क्या किया जाता
है, इसकी जानकारी
सरकारी स्तर पर
किसी को नहीं
है। हरिद्वार में
सबसे ज्यादा गायें
एवं सांड सड़कों
पर नजर आते
हैं।