गांधी पुलिस को सजा-ए-मौत
-जयसिंह रावत
कहां तो गांधी पुलिस के नाम से भी पुकारी जाने वाली उत्तराखण्ड में भारत की एकमात्र निहत्थी राजस्व पुलिस को उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के मद्देनजर उसे विश्व धरोहर में शामिल किये जाने की अपेक्षा की जा रही थी और कहां उत्तराखण्ड सरकार की संवेदनहीनता और अदूरदर्शिता के चलते उसे नैनीताल हाइकोर्ट से सजा-ऐ-मौत सुना दी गयी है। फांसी की सजा मुकर्रर होने के बाद पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड की विशिष्ट भौगोलिक और सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रतीक इस ग्राम मित्र पुलिस का 6 माह के अंदर अंतिम संस्कार किया जाना है। अब देखना यह है कि राज्य सरकार किस तरह अदालत के फैसले को लागू करती है और किस तरह पहाड़ी समाज अपने अंदर खाकी वर्दीधारी सिविल पुलिस को आत्मसात करती है।
पहाड़ों की रानी नैनीताल स्थित उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने दहेज हत्या से सम्बन्धित एक मामले में अपना फैसला सुनाते समय अंग्रेजों द्वारा पहाड़ों की विशेष भौगोलिक और सामाजिक व्यवस्था के अनुसार स्थापित राजस्व पुलिस के भाग्य का फैसला भी सुना दिया। हाइकोर्ट की न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खण्डपीठ ने पटवारियों और उनके अनुसेवकों के बल पर चल रही राजस्व पुलिस को समय की मांग के अनुसार अव्यवहारिक और अनुपयोगी बताते हुये 6 माह के अंदर इसे समाप्त कर इसके सभी क्षेत्र सिविल पुलिस के सुपुर्द करने के आदेश राज्य सरकार को दे दिये। वर्तमान में पहाड़ी कस्बों और चारधाम यात्रा मार्ग के अलावा बाकी 60 प्रतिशत भूभाग पर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राजस्व पुलिस की है जिसका निर्वाह वह सदियों से कर रही है। हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया था, लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254/टप्प्प्.228.।.81 के तहत विस्तारित किया गया। इसी दौरान सन् 1874 में जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 (शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट) आया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू पुलिस को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस एक्ट की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लिये “कुमाऊं पुलिस” कानून बनाया गया जिसे अधिसूचना संख्या 494/टप्प्प्ध्.418.16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। इस अधिसूचना के प्रावधानों के तहत कुमाऊं पुलिस व्यवस्था में थोकदार-पदानों, सयाणों और कमीणों जैसे ग्राम मुखियाओं की परम्परागत भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं।
देखा जाय तो उत्तराखण्ड की बेमिसाल पटवारी पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यू. ट्रेल को ही दिया जा सकता है। टेªल ने पटवारियों के 16 पद सृजित कर इन्हें पुलिस, राजस्व कलेक्शन, भू अभिलेख का काम दिया था। कंपनी सरकार के शासनकाल में पहाड़ी क्षेत्र के अल्मोड़ा में 1837 और रानीखेत में 1843 में थाना खोला था। कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाममात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत और नैनीताल जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है।
राजस्व पुलिस को समाप्त करने के पीछे हाइकोर्ट का तर्क है कि पटवारियों को पुलिस की तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और नही राजस्व पुलिस के पास विवेचना के लिये आधुनिक साधन, कम्प्यूटर, डीएनए, रक्त परीक्षण, फौरेंसिक जांच की व्यवस्था, फिंगर प्रिंट लेने जैसी मूलभूत सुविधायें भी नहीं हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और अपराधियों को इस कमी का लाभ मिल जाता है। कोर्ट का यह भी कहना था कि समान पुलिस व्यवस्था नागरिकों का अधिकार है।
अदालत भी साक्ष्यों गवाहों और ठोस तर्कों को कसौटी पर कस कर फैसला देते है और अगर दूसरा पक्ष कमजोर हो या पैरवी ही न करें तो उसमें अदालत का क्या दोष? राज्य सरकार की ओर से अगर राजस्व पुलिस को लागू की जाने वाली सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों की पूरी जानकारी अदालत को दी जाती तो अदालत का आदेश रेवेन्यू पुलिस के प्रति संभवतः इतना कठोर नहीं होता। सरकार की ओर से राजस्व पुलिस के पक्ष में यह नहीं बताया गया कि इसके गठन से लेकर अब तक यह बेहद कम खर्चीली व्यवस्था प्रदेशवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक ताने-बाने से सामंजस्य स्थापित कर चुकी है। वर्दीधारी पुलिसकर्मी से लोग दूरी बना कर रखते हैं और उनसे डरते भी हैं। जबकि पहाड़ी गावों में बिना वर्दी के राजस्व पुलिसकर्मी गांव वालों के साथ घुलमिल जाते हैं और जनता से सहयोग के कारण अपराधी कानून से बच नहीं पाते। अदालत में अगर सिवलि पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र के अपराध के तुलनात्मक आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति सपष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत भाग की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया। अदालतों में दाखिल मामलों में भी सिविल पुलिस कहीं भी राजस्व पुलिस के मुकाबले नहीं ठहरती। सिविल पुलिस द्वारा दाखिल हत्या के मामलों में औसतन 60 और बलात्कार के मामलों में लगभग 30 प्रतिशत को ही सजा हो पाती है और ज्यादातर अपराधी दोष मुक्त हो जाते हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य पुलिस द्वारा हत्या के मामलों में अनावरण या हत्यारोपियों की गिरफ्तारी का प्रतिशत मात्र 85 ही है। जाहिर है कि राज्य की पुलिस 15 प्रतिशत हत्यारों तक पहुंच भी नहीं पाती है। लेकिन रेवेन्यू पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते। जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2008 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया। इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषण, भीड़ का विनियमन और राहत, राहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधन, जैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जाये, पुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करना, जो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’ गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रह हैं। ऐसा नहीं कि सिविल पुलिस हर मामले को सुलझाने में सक्षम हो। अगर ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआइडी, एसआइटी और कभी-कभी सीबीआइ को क्यों सौंपे जाते? सिवलि पुलिस व्यवस्था राजस्व पुलिस से बेहद खर्चीली भी है।
चूंकि अब अदालत का आदेश आ चुका है और अगर सरकार का इरादा राजस्व पुलिस को कायम रखने का होता तो वह अदालत में सकारात्मक पक्ष रखती। अब देखना यह है कि राज्य सरकार 1225 पटवारी सर्किलों के लिये इतने थानों और हजारों पुलिसकर्मियों का इंतजाम 6 महीनों के अंदर कैसे करती है और कैसे पहाड़ी समाज वर्दीधारी पुलिसकर्मियों को गावों में सहन करती है।वैसे भी राजस्व का काम ही बहुत कम है। वैसे भी खेती की 70 प्रतिशत से
अधिक जोतें आधा हेक्टेअर से कम हैं इसलिये ऐसी छोटी जोतों से सरकार को कोई राजस्व लाभ
नहीं होता। अगर पुलिसिंग का दायित्व छिन जाता है तो समझो कि पहाड़ के पटवारी कानूनगो
बिना काम के रह जायेंगे। इसके साथ ही अल्मोड़ा का पटवारी ट्रेनिंग कालेज और राजस्व पुलिस
के आधुनिकीकरण पर लगाई गयी सरकारी रकम भी बेकार चली जायेगी।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
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