तारीख पर तारीख....तारीख पर तारीख,
मगर इंसाफ नहीं
मिलता
Ø
उत्तराखण्ड
में 30 हजार से
अधिक लोग न्याय
की प्रतीक्षा में
Ø
42 प्र.श. मामलों
में अपराधियों को
सजा नहीं हो
पाती
Ø
अदालतें
केवल 33 प्रतिशत मामले ही
निपटा पा रही
हैं
जयसिंह रावत
देहरादून। कानूनी कहावत है
कि न्याय में
विलम्ब होता है
तो न्यायार्थी न्याय
से वंचित हो
जाता है। (जस्टिस
इज डिलेड, जस्टिस
इज डिनाइड) इस
कहावत के आलोक
में देखें तो
छोटे से पहाड़ी
राज्य उत्तराखण्ड में
भी न्यायार्थियों को
तारीख पर तारीख
तो मिल जाती
है मगर इंसाफ
आसानी से नहीं
मिलता। जिससे कानून का
राज और अपराधिक
न्याय व्यवस्था स्वयं
कठघरे में खड़ी
हो गयी है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो
(एनसीआरबी) की ताजा
रिपोर्ट के अनुसार
प्रदेश के 13 जिलों के
जिला एवं सत्र
न्यायालय से लेकर
जुबेनाइल कोर्ट तक की
अदालतों में गत
वर्ष 2015 में लंबित
मुकदमों की संख्या
30 हजार पार कर
गयी। इस तरह
प्रदेश की निचली
अदालतों में निस्तारित
मामलों की तुलना
में लंबित मामलों
का प्रतिशत 77 तक
पहुंच गया है।
यही नहीं जिन
अपराधिक मुकदमों में अदालतें
फैसला दे भी
रही हैं उनमें
सजा मात्र 58 प्रतिशत
मुकदमों में हो
रही हैं। मतलब
यह कि 42 प्रतिशत
अपराधिक मामलों में अपराधियों
को अभियोजन और
पुलिस जांच की
कमियों के कारण
सजा नहीं हो
पा रही है।
एक सर्वेक्षण के
अनुसार बलात्कार के मामलों
में 25 प्र.श.
और हत्या के
मामलों में केवल
35 प्रतिशत मामलों में ही
सजा होती है।
राज्य की अदालतों
पर मुकदमों का
बोझ तो हर
साल बढ़ रहा
है मगर उनके
डिस्पोजल के लिये
विशेष प्रयास नहीं
हो रहे हैं।
एनसीआरबी की 2014 की रिपोर्ट
के अनुसार राज्य
की निचजी अदालतों
में वर्ष 2014 के
शुरू में 26,355 मुकदमें
उससे पहले साल
से लंबित थे
और उस वर्ष
5504 नये मामले ट्रायल के
बाद कुल विचाराधीन
मामलों की संख्या
31859 हो गयी। इनमें
से 25 अपराधिक मामले
राज्य सरकार ने
वापस लिये, 1465 कम्पाउण्ड
हुये और 1729 आपसी
समझाौते के बाद
वापस हो गये।
फिर भी नये
वर्ष 2015 के लिये
25435 मामले शेष रह
गये।
एनसीआरबी की रिपोर्ट
के अनुसार वर्ष
2015 में अदालतों के पास
ट्रायल के लिये
कुल 30,844 मामले थे जिनमें
से मात्र 6,779 मुकदमों
का ट्रायल पूरा
हो सका। बाकी
23,998 मुकदमें इस साल
2016 के लिये छूट
गये। इनमें भी
केवल 58.1 प्रतिशत मामलों में
सजा हो सकी
और बाकी दोषमुक्त
हो गये। पिछले
साल कुल लंबित
मामलों का प्रतिशत
77 प्रतिशत था। मतलब
यह कि अदालतें
केवल 23 प्रतिशत मामले ही
निपटा पायीं। ये
आंकडें तो केवल
भारतीय दंड संहिता
की विभिन्न धाराओं
के तहत दर्ज
मुकदमों और सविल
अदालतों के हैं।
इनसे कहीं अधिक
मामले स्पेशल लोकल
लॉ (एसएलएल) के
दर्ज होते हैं।
पिछले वर्ष इस
तरह के 19,799 मामले
अदालतों में पेंडिंग
पड़े थे। इस
तरह के अपराधों
में जुआ, शराब,
पुलिस ऐक्ट, वन
अपराध आदि के
होते हैं। आइपीसी
(भादंसं) के तहत
दर्ज कुल अपराधों
में से जिन
6,779 मुकदमों के फैसले
हुये उनमें से
3,937 में ही मुल्जिमों
को सजा हो
पायी और 2,842 अदालत
से दोषमुक्त हो
कर छूट गये।
अदालतों पर मुकदमों
का बोझ बढ़ने
से न्यायार्थियों को
न्याय मिलने में
बहुत समय लग
रहा है। एनसीआरबी
की रिपोर्ट के
अनुसार उत्तराखण्ड की निचली
अदालतों में गत
वर्ष आइपीसी
के तहत दर्ज
केवल 333 मामले ऐसे थे
जिनका निपटारा 6 महीनों
के अन्दर हो
गया। इनके अलावा
6 ऐसे मामले भी
थे जिनके फैसले
10 साल से भी
अधिक समय गुजरने
के बाद हुये।
इतने सालों तक
कचहरियों के चक्कर
काटने के बाद
न्याय मिलने का
फायदा नहीं रह
जाता। एनसीआरबी की
रिपोर्ट के अनुसार
वर्ष 2015 में 2,561 मामले 6 से
लेकर 12 महीनों के अन्दर,
2,217 मामले 3 साल के
अन्दर, 1,292 मामले 3 से लेकर
5 साल, और 366 मामले 5 से
लेकर 10 साल के
अन्दर अदालतों द्वारा
निपटाये गये। पिछले
साल 10 साल से
अधिक समय में
कुल 6 मुकदमों का
निपटारा करने वाली
अदालतों में चीफ
ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट और ज्यूडिशियल
मैजिस्ट्रट की अदालतें
शामिल थीं। इसी
प्रकार 5 से लेकर
10 साल की अवधि
में जिला जजों
ने 51, अतिरिक्त जिला एवं
सेशन जजों ने
54, मुख्य न्यायिक मैजिस्ट्रेट अदादालतों
ने 83, ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेट प्रथम
और द्वितीय ने
63, स्पेशियल ज्यूडिशियल मैजिस्ट्रेटों ने
13 और अन्य अदालतों
ने 26 मामले निपटाये।
-- जयसिंह
रावत--
ई- 11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी, देहरादून।
मोबाइल-
9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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