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Saturday, October 31, 2015
Thursday, October 15, 2015
सब कुर्सी का खेल है भैया सब कुर्सी का खेल. पूर्व मुख्य मंत्री विजय बहुगुणा जी का यह चित्र कभी हर एक दफ्तर में अफसर के सिर के ऊपर टंगा होता था। आज यही चित्र विधानसभा के कूड़ेदान की शोभा बढ़ा रहा है। विधानसभा भवन के पीछे यह फोटो कूड़ेदान पर जानबूझ कर लोगों ने सजा रखी है. इस चित्र में सत्ताच्युत बहुगुणा जी हर आने जाने वाले को निरीह प्राणी की तरह टुकुर -टुकुर निहारते रहते हैं.
Saturday, October 10, 2015
लोकतंत्र की चाह में पुलिस की मौन अभिव्यक्ति
पुलिस का मौन आक्रोश-लोकतंत्र की चाह
-जयसिंह रावत
पन्द्रह अगस्त 2015 के दिन जब सारा देश स्वतंत्रता की 68 वीं वर्षगांठ के उल्लास में डूबा था तो उत्तराखंड के कुछ पुलिसकर्मी बाजुओं पर काली पट्टी बांध कर अपनी ही सरकार के खिलाफ मौन आक्रोश प्रकट कर रहे थे। बात इतने ही तक सीमित नहीं रही। उसके कुछ ही दिन के अन्दर एक सुनियोजित रणनीति के तहत पुलिस के कई मेसों (भोजनालयों) में सरकार का पका पकाया अन्न बेकार चला गया, क्योंकि बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों ने एक दिन का उपवास रख दिया। सिपाही से लेकर इंस्पेक्टर रैंक तक के पुलिस विभाग के इन कार्मिकों को उनके इस मौन आक्रोश को सोशियल मीडिया और इलैक्ट्रानिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक इतना प्रचार मिला कि सरकार विरोधी तमाम ताकतें पुलिसकर्मियों की गुडबुक में आने के लिये उनके साथ खड़ी हो गयीं। इसमें वे लोग भी शामिल हो गये जो कि पुलिसवालों को वर्दीधारी गुंडे बताते थे। इससे उत्साहित पुलिसकर्मियों ने अपने इस निराले आक्रोश को ’मिशन आक्रोश’ का नाम दे कर एक लंबे और निर्णायक आन्दोलन की तैयारियां शुरू कर दीं। राज्य पुलिस के मिशन आक्रोश से प्रदेश की हरीश रावत सरकार की रातों की नींद उड़नी तो स्वाभाविक ही है, लेकिन इससे अन्य राज्यों के सत्ताधारियों के कान भी खड़े हो गये। होंगे भी क्यों नहीं ! लगभग सभी राज्यों के पुलिसकर्मी अपना संगठन बनाना चाहते हैं। मई 1973 के पीएसी के विद्रोह से पहले उत्तर प्रदेश में हालात कुछ इसी तरह पैदा हो गये थे। उसके बाद कमलापति त्रिपाठी की बहुमत वाली सरकार को सत्ताच्युत होना पड़ा था।
मिशन आक्रोश तो उत्तराखंड में चल रहा है और उसकी प्रतिध्वनि सारे देश में सुनाई दे रही है। उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों के इस आक्रोश का राष्ट्रव्यापी असर होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पुलिसकर्मियों के इस ’मिशन’ के पीछे केवल एरियर की चाह नहीं बल्कि अन्ततोगत्वा एक सशक्त पुलिस संगठन या यूनियन के गठन की चाह ही है और कुछ राजनीतिक दलों ने तो आव न देखा ताव न देखा और ’मिशन आक्रोश’ के रणनीतिकारों की इस छिपी भावना को अभिव्यक्ति भी दे दी है। वैसे भी पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश में लम्बी जद्दोजहद के बाद जब पुलिसकर्मियों का संगठन अस्तित्व में आ चुका है तो उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों के भूमिगत नेता कहां पीछे रहने वाले हैं।
पुलिस कर्मचारियों को अन्य सिविलियन कर्मचारियों की तरह यूनियन बनाने के अधिकार की मांग नई नहीं है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कुछ राज्यों में पुलिस एसोसिएशन पहले ही अस्तित्व में हैं। पुलिस फोर्स के लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी करने वालों का मत है कि अन्य सरकारी कर्मचारियों को संगठन बनाने और आंदोलन में उतरने का अधिकार है तो पुलिसकर्मियों को क्यों नहीं? इसके विपरीत दूसरा मत यह भी है कि यदि इस प्रकार के एसोसिएशन बने तो उनका भारी खामियाजा पुलिस विभाग को उठाना पड़ेगा। इसमें अनुशासनहीनता से लेकर विद्रोह की संभावना तक सम्मिलित हैं। इसी लिये पुलिसवालों के संगठन के विरोध में मेरठ और मुरादाबाद आदि स्थानो ंपर हुये साम्प्रदायिक दंगों में पीएसी की भूमिका और अन्य कई स्थानो ंपर पुलिस की उदंडता का भी हवाला दिया जाता रहा है।
सन् 1973 का उत्तर प्रदेश का पीएसी का विद्रोह 1946 के नोसेना विद्रोह के बाद का दूसरा विद्रोह था। नोसेना का विद्रोह तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, लेकिन आजादी के बाद हुआ पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था। तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के.सी. पंत द्वारा 30 मई 1973 को राज्यसभा को दी गयी सूचना के अनुसार 22 से 25 मई 1973 तक चले इस विद्रोह को दबाने के लिये की गयी सैन्य कार्रवाई के दौरान पीएसी के 22 जवान मारे गये थे तथा 56 अन्य घायल हो गये थे। इस सैन्य कार्रवाई में सेना ने भी अपने 13 जवान खो दिये थे और 45 अन्य घायल हो गये थे। इस विद्रोह में शामिल पीएसी के सेकड़ों जवान सेवा से बर्खास्त कर दिये गये थे। इस विद्रोह का इतना जबरदस्त राजनीति असर हुआ कि 425 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में 280 सीटों वाली कांग्रेस की कमलापति त्रिपाठी सरकार को 12 जून 1973 को सत्ता से हटना पड़ा था। इसलिये अब कमलापति त्रिपाठी सरकार का हस्र याद कर यह भी आशंका जताई जा रही है कि कहीं यह हरीश रावत को भी कमलापति त्रिपाठी का जैसा मजा चखाने की यह साजिश तो नहीं? पुलिसकर्मियों के समर्थन में तमाम सरकार विरोधी ताकतें तो एकजुट हो ही गयी हैं मगर इसमें सत्ताधारीदल के असंतुष्टों का हाथ होने की भी आशंका जताई जा रही है। उत्तराखंड के पुलिस थानों और चौकियों से पुलिस के समर्थन में जिस तरह प्रदर्शन कराये जा रहे हैं, उसे देख कर इस आक्रोश के पीछे केवल ऐरियर की मांग नहीं लगती।
सेवा संबंधी विकट परिस्थितियां के कारण अधिकांश पुलिसकर्मी अक्सरे तनावग्रस्त रहते हैं। उनकी ड्यूटी अनिश्चित होती है, काम के घंटे तय नहीं होते, सोने-खाने का भी समय तय नहीं होता, अतिरिक्त काम का ओवरटाइम नहीं मिलता, पूरा आराम नहीं मिलता, उन्हें परिवार के साथ रहने के अवसर कम मिलते हैं। सामान्यतः वे अपनी कुंठाओं को आम लोगों पर उतार लेते हैं। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों ने उत्तर प्रदेश में 1973 में पीएसी विद्रोह को जन्म दिया था। इस विद्रोह को तो सेना ने कुचल दिया लेकिन पुलिस संगठन और लोकतांत्रिक अधिकारों की चाह को सदा के लिये नहीं दबाया जा सका। उत्तर प्रदेश के कुछ जुझारू पुलिसकर्मियों ने 1993 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका (संख्या 5350) दायर की जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि जब हर प्रदेश में आइपीएस समेत सभी अधिकारियों-कर्मचारियों की एसोसिएशन है तो यूपी में इस पर पांबंदी क्यों लगायी जा रही है? इस तर्क को मान कर हाईकोर्ट ने 27 अगस्त 1993 को एसोसिएशन के गठन को मंजूरी का फैसला भी सुना दिया जो कि काफी समय गुजरने के बाद अब साकार हुआ है। उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों ने आखिरकार रजिस्ट्रार फर्म एंड सोसायटी में अपनी एसोसिएशन का पंजीकरण करा दिया है।
भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 (ग) के तहत प्रत्येक नागरिक को समूह बनाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन इसके साथ कुछ सीमायें भी निर्धारित की गयी हैं जो देश की एकता और अखंडता, लोक व्यवस्था तथा सदाचार जैसे कारणों के आधार पर नियत की जाती हैं। लेकिन दूसरी ओर सशस्त्र बलों के लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों में लगे पुलिस बलों के लिए संविधान के ही अनुच्छेद 33 में एसोसिएशन बनाने के विषय में कुछ सीमायें भी तय की गयी हैं। उसमें यह भी कहा गया है कि इस सम्बन्ध में उचित कानून बना कर समूह को नियंत्रित करने का अधिकार देश की संसद को होगा। ऐसा इन बलों की विशिष्ठ स्थिति और कार्यों की आवश्यकता के अनुसार किया गया। पुलिस बलों के लिए बाद में भारतीय संसद द्वारा पुलिस फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट 1966 बनाया गया। इस अधिनियम की धारा 3 के अनुसार पुलिस बल का कोई भी सदस्य बिना केंद्र सरकार (या राज्य सरकार) की अनुमति के किसी ट्रेड यूनियन जैसी यूनियन का सदस्य नहीं बन सकता है। अब कुछ राज्य सरकारों ने कल्याणकारी उद्ेश्य वाली एसोसियेशनों के गठन की अनुमति तो दी है मगर बाकायदा टेªड यूनियन के गठन की अनुमति अब भी कहीं नहीं मिली है। यही नहीं अधिकांश राज्यों ने तो समितियों या एसोसियेशनों के गठन की तक अभी अनुमति नहीं दी है। पुलिस (इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन) एक्ट 1922 की धारा 3 में जान-बूझ कर पुलिस बल में असंतोष फैलाने, अनुशासनहीनता फैलाने आदि को दंडनीय अपराध निर्धारित किया गया है। लेकिन इसके साथ ही इस अधिनियम की धारा 4 के अनुसार केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त किसी एसोसियेशन द्वारा पुलिस बल के कल्याणार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए उठाये गए कदम किसी प्रकार से अपराध नहीं माने जाते हैं।
सन् 1857 के भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटेन की महारानी के आदेश पर बने शाही जांच आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर जब भारत में पुलिस का ढांचा खड़ा किया गया तो उसका उद्ेश्य जनता की रक्षा करना या लोगों की मदद करना नहीं बल्कि किसी भी जनाक्रोश को दबाना था। इसके लिए पुलिस को खुली छूट मिली और वह ख़ौफ़ और दहशत का पर्याय बन गयी। उसकी ज्यादतियों पर ऐसी हायतौबा मची कि एक और बग़ावत जैसे आसार बनने लगे और 20वीं सदी की शुरूआत में शाही पुलिस आयोग का गठन करना पड़ा। इस आयोग ने पुलिस ढांचे की सुधार करने की सिफ़ारिश पेश की। लेकिन शाही आयोग की सिफ़ारिशें धरातल पर नहीं उतर सकीं। देश आज़ाद हो गया लेकिन गुलामों को काबू में रखने के लिये बनायी गयी पुलिस वही की वही बनी रही। जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाली वही पुलिस अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिये छपटपटा रही है।
जयसिंह रावत-
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल 09412324999
रंलेपदहीतंूंज/हउंपसण्बवउ
-जयसिंह रावत
पन्द्रह अगस्त 2015 के दिन जब सारा देश स्वतंत्रता की 68 वीं वर्षगांठ के उल्लास में डूबा था तो उत्तराखंड के कुछ पुलिसकर्मी बाजुओं पर काली पट्टी बांध कर अपनी ही सरकार के खिलाफ मौन आक्रोश प्रकट कर रहे थे। बात इतने ही तक सीमित नहीं रही। उसके कुछ ही दिन के अन्दर एक सुनियोजित रणनीति के तहत पुलिस के कई मेसों (भोजनालयों) में सरकार का पका पकाया अन्न बेकार चला गया, क्योंकि बड़ी संख्या में पुलिसकर्मियों ने एक दिन का उपवास रख दिया। सिपाही से लेकर इंस्पेक्टर रैंक तक के पुलिस विभाग के इन कार्मिकों को उनके इस मौन आक्रोश को सोशियल मीडिया और इलैक्ट्रानिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक इतना प्रचार मिला कि सरकार विरोधी तमाम ताकतें पुलिसकर्मियों की गुडबुक में आने के लिये उनके साथ खड़ी हो गयीं। इसमें वे लोग भी शामिल हो गये जो कि पुलिसवालों को वर्दीधारी गुंडे बताते थे। इससे उत्साहित पुलिसकर्मियों ने अपने इस निराले आक्रोश को ’मिशन आक्रोश’ का नाम दे कर एक लंबे और निर्णायक आन्दोलन की तैयारियां शुरू कर दीं। राज्य पुलिस के मिशन आक्रोश से प्रदेश की हरीश रावत सरकार की रातों की नींद उड़नी तो स्वाभाविक ही है, लेकिन इससे अन्य राज्यों के सत्ताधारियों के कान भी खड़े हो गये। होंगे भी क्यों नहीं ! लगभग सभी राज्यों के पुलिसकर्मी अपना संगठन बनाना चाहते हैं। मई 1973 के पीएसी के विद्रोह से पहले उत्तर प्रदेश में हालात कुछ इसी तरह पैदा हो गये थे। उसके बाद कमलापति त्रिपाठी की बहुमत वाली सरकार को सत्ताच्युत होना पड़ा था।
मिशन आक्रोश तो उत्तराखंड में चल रहा है और उसकी प्रतिध्वनि सारे देश में सुनाई दे रही है। उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों के इस आक्रोश का राष्ट्रव्यापी असर होना स्वाभाविक ही है। क्योंकि पुलिसकर्मियों के इस ’मिशन’ के पीछे केवल एरियर की चाह नहीं बल्कि अन्ततोगत्वा एक सशक्त पुलिस संगठन या यूनियन के गठन की चाह ही है और कुछ राजनीतिक दलों ने तो आव न देखा ताव न देखा और ’मिशन आक्रोश’ के रणनीतिकारों की इस छिपी भावना को अभिव्यक्ति भी दे दी है। वैसे भी पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश में लम्बी जद्दोजहद के बाद जब पुलिसकर्मियों का संगठन अस्तित्व में आ चुका है तो उत्तराखंड के पुलिसकर्मियों के भूमिगत नेता कहां पीछे रहने वाले हैं।
पुलिस कर्मचारियों को अन्य सिविलियन कर्मचारियों की तरह यूनियन बनाने के अधिकार की मांग नई नहीं है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल जैसे कुछ राज्यों में पुलिस एसोसिएशन पहले ही अस्तित्व में हैं। पुलिस फोर्स के लोकतांत्रिक अधिकारों की पैरवी करने वालों का मत है कि अन्य सरकारी कर्मचारियों को संगठन बनाने और आंदोलन में उतरने का अधिकार है तो पुलिसकर्मियों को क्यों नहीं? इसके विपरीत दूसरा मत यह भी है कि यदि इस प्रकार के एसोसिएशन बने तो उनका भारी खामियाजा पुलिस विभाग को उठाना पड़ेगा। इसमें अनुशासनहीनता से लेकर विद्रोह की संभावना तक सम्मिलित हैं। इसी लिये पुलिसवालों के संगठन के विरोध में मेरठ और मुरादाबाद आदि स्थानो ंपर हुये साम्प्रदायिक दंगों में पीएसी की भूमिका और अन्य कई स्थानो ंपर पुलिस की उदंडता का भी हवाला दिया जाता रहा है।
सन् 1973 का उत्तर प्रदेश का पीएसी का विद्रोह 1946 के नोसेना विद्रोह के बाद का दूसरा विद्रोह था। नोसेना का विद्रोह तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, लेकिन आजादी के बाद हुआ पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था। तत्कालीन गृह राज्य मंत्री के.सी. पंत द्वारा 30 मई 1973 को राज्यसभा को दी गयी सूचना के अनुसार 22 से 25 मई 1973 तक चले इस विद्रोह को दबाने के लिये की गयी सैन्य कार्रवाई के दौरान पीएसी के 22 जवान मारे गये थे तथा 56 अन्य घायल हो गये थे। इस सैन्य कार्रवाई में सेना ने भी अपने 13 जवान खो दिये थे और 45 अन्य घायल हो गये थे। इस विद्रोह में शामिल पीएसी के सेकड़ों जवान सेवा से बर्खास्त कर दिये गये थे। इस विद्रोह का इतना जबरदस्त राजनीति असर हुआ कि 425 सदस्यीय उत्तर प्रदेश विधानसभा में 280 सीटों वाली कांग्रेस की कमलापति त्रिपाठी सरकार को 12 जून 1973 को सत्ता से हटना पड़ा था। इसलिये अब कमलापति त्रिपाठी सरकार का हस्र याद कर यह भी आशंका जताई जा रही है कि कहीं यह हरीश रावत को भी कमलापति त्रिपाठी का जैसा मजा चखाने की यह साजिश तो नहीं? पुलिसकर्मियों के समर्थन में तमाम सरकार विरोधी ताकतें तो एकजुट हो ही गयी हैं मगर इसमें सत्ताधारीदल के असंतुष्टों का हाथ होने की भी आशंका जताई जा रही है। उत्तराखंड के पुलिस थानों और चौकियों से पुलिस के समर्थन में जिस तरह प्रदर्शन कराये जा रहे हैं, उसे देख कर इस आक्रोश के पीछे केवल ऐरियर की मांग नहीं लगती।
सेवा संबंधी विकट परिस्थितियां के कारण अधिकांश पुलिसकर्मी अक्सरे तनावग्रस्त रहते हैं। उनकी ड्यूटी अनिश्चित होती है, काम के घंटे तय नहीं होते, सोने-खाने का भी समय तय नहीं होता, अतिरिक्त काम का ओवरटाइम नहीं मिलता, पूरा आराम नहीं मिलता, उन्हें परिवार के साथ रहने के अवसर कम मिलते हैं। सामान्यतः वे अपनी कुंठाओं को आम लोगों पर उतार लेते हैं। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों ने उत्तर प्रदेश में 1973 में पीएसी विद्रोह को जन्म दिया था। इस विद्रोह को तो सेना ने कुचल दिया लेकिन पुलिस संगठन और लोकतांत्रिक अधिकारों की चाह को सदा के लिये नहीं दबाया जा सका। उत्तर प्रदेश के कुछ जुझारू पुलिसकर्मियों ने 1993 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका (संख्या 5350) दायर की जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि जब हर प्रदेश में आइपीएस समेत सभी अधिकारियों-कर्मचारियों की एसोसिएशन है तो यूपी में इस पर पांबंदी क्यों लगायी जा रही है? इस तर्क को मान कर हाईकोर्ट ने 27 अगस्त 1993 को एसोसिएशन के गठन को मंजूरी का फैसला भी सुना दिया जो कि काफी समय गुजरने के बाद अब साकार हुआ है। उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों ने आखिरकार रजिस्ट्रार फर्म एंड सोसायटी में अपनी एसोसिएशन का पंजीकरण करा दिया है।
भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 (ग) के तहत प्रत्येक नागरिक को समूह बनाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। लेकिन इसके साथ कुछ सीमायें भी निर्धारित की गयी हैं जो देश की एकता और अखंडता, लोक व्यवस्था तथा सदाचार जैसे कारणों के आधार पर नियत की जाती हैं। लेकिन दूसरी ओर सशस्त्र बलों के लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों में लगे पुलिस बलों के लिए संविधान के ही अनुच्छेद 33 में एसोसिएशन बनाने के विषय में कुछ सीमायें भी तय की गयी हैं। उसमें यह भी कहा गया है कि इस सम्बन्ध में उचित कानून बना कर समूह को नियंत्रित करने का अधिकार देश की संसद को होगा। ऐसा इन बलों की विशिष्ठ स्थिति और कार्यों की आवश्यकता के अनुसार किया गया। पुलिस बलों के लिए बाद में भारतीय संसद द्वारा पुलिस फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट 1966 बनाया गया। इस अधिनियम की धारा 3 के अनुसार पुलिस बल का कोई भी सदस्य बिना केंद्र सरकार (या राज्य सरकार) की अनुमति के किसी ट्रेड यूनियन जैसी यूनियन का सदस्य नहीं बन सकता है। अब कुछ राज्य सरकारों ने कल्याणकारी उद्ेश्य वाली एसोसियेशनों के गठन की अनुमति तो दी है मगर बाकायदा टेªड यूनियन के गठन की अनुमति अब भी कहीं नहीं मिली है। यही नहीं अधिकांश राज्यों ने तो समितियों या एसोसियेशनों के गठन की तक अभी अनुमति नहीं दी है। पुलिस (इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन) एक्ट 1922 की धारा 3 में जान-बूझ कर पुलिस बल में असंतोष फैलाने, अनुशासनहीनता फैलाने आदि को दंडनीय अपराध निर्धारित किया गया है। लेकिन इसके साथ ही इस अधिनियम की धारा 4 के अनुसार केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त किसी एसोसियेशन द्वारा पुलिस बल के कल्याणार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए उठाये गए कदम किसी प्रकार से अपराध नहीं माने जाते हैं।
सन् 1857 के भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटेन की महारानी के आदेश पर बने शाही जांच आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर जब भारत में पुलिस का ढांचा खड़ा किया गया तो उसका उद्ेश्य जनता की रक्षा करना या लोगों की मदद करना नहीं बल्कि किसी भी जनाक्रोश को दबाना था। इसके लिए पुलिस को खुली छूट मिली और वह ख़ौफ़ और दहशत का पर्याय बन गयी। उसकी ज्यादतियों पर ऐसी हायतौबा मची कि एक और बग़ावत जैसे आसार बनने लगे और 20वीं सदी की शुरूआत में शाही पुलिस आयोग का गठन करना पड़ा। इस आयोग ने पुलिस ढांचे की सुधार करने की सिफ़ारिश पेश की। लेकिन शाही आयोग की सिफ़ारिशें धरातल पर नहीं उतर सकीं। देश आज़ाद हो गया लेकिन गुलामों को काबू में रखने के लिये बनायी गयी पुलिस वही की वही बनी रही। जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करने वाली वही पुलिस अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिये छपटपटा रही है।
जयसिंह रावत-
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव,
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रंलेपदहीतंूंज/हउंपसण्बवउ
Wednesday, October 7, 2015
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