मेलों के भीड़तंत्र
में श्रद्धालु भगवान
भरोसे
-जयसिह रावत-
नासिक के त्र्यंबकेश्वर
में गोदावरी के
किनारे सिंहस्थ महाकुंभ के
ध्वाजारोहण के साथ
ही आन्ध्र प्रदेश
के राजामुंद्री जिले
में इसी नदी
के किनारे मनाये
जाने वाले ’पुष्करम”
महोत्सव में हुयी
भगदड़ ने करोड़ों
सनातन धर्मावलंबियों के
रोंगटे खड़े कर
दने के साथ
ही इस महापर्व
के भीड़ प्रबंधकों
को भी आगाह
कर दिया है।
सामान्यतः भगवान या देवी
देवताओं के नाम
पर श्रद्धालुओं की
ऐसी अपार भीड़ें
तो जुटा ली
जाती हैं मगर
उनकी सुरक्षा या
भीड़ के प्रबंधन
को भगवान के
भरासे छोड़ दिया
जाता है। अगर
ऐसा न होता
तो उसी गोदावरी
के इस छोर
पर आन्ध्र प्रदेश
के मुख्यमंत्री की
आंखों के सामने
इतनी बड़ी संख्या
में लोग भीड़
द्वारा कुचल कर
नहीं मारे गये
होते!
हमारे देश में
आस्था के नाम
पर ज्यादा से
ज्यादा मानव समूह
को आकर्षित करने
की होड़ सी
लग जाती है।
दरअसल इस भीड़
शास़्त्र के साथ
एक अर्थशास्त्र भी
जुड़ होता है।
यही नहीं भीड़
के पैमाने के
साथ अपने आराध्य
या धर्मस्थल की
प्रतिष्ठा को भी
प्रतिस्पर्धा में ला
कर खड़ा कर
दिया जाता है।
अगर हरिद्वार महाकंqभ में तत्कालीन
सरकार 9 करोड़ श्रद्धालुओं
के आने का
दावा करती है,
तो फिर प्रयागराज
इलाहाबाद, उज्जैन और नासिक
में महाकुंभों के
आयोजकों के सामने
भी इतनी ही
भीड़ जुटाने की
चुनौती खड़ी हो
जाती है। कभी
कभी इसे प्रतिष्ठा
का विषय मान
कर भीड़ के
आंकड़े बढ़ा-चढ़ा
कर भी पेश
किये जाते हैं।
कुछ सरकारें तो
भीड़ आकर्षित करने
को नाक का
सवाल मान लेती
हैं। महाकुंभ तो
महाकुंभ ही है,
जो कि देश
ही नहीं बल्कि
दुनिया का सबसे
बड़ा धार्मिक महा
जमावड़ा होता है।
लेकिन भीड़ जुटाने
में क्षेत्रीय देवी
देवताओं के धर्मस्थलों
में भी प्रतिपस्पर्धा
शुरू हो जाती
है। जिस देवी
या देवता के
मंदिर में जितनी
अधिक भीड़ जुटेंगी
उसकी उतनी ही
अधिक मान्यता मानी
जायेगी। जाहिर है कि
जितनी अधिक भीड़
जुटेगी उतना ही
चढ़ावा भी आयेगा।
लेकिन इन मठ
मंदिरों या धार्मिक
मेलों के आयोजक
उस भीड़ की
सुरक्षा व्यवस्था को भी
भगवान या देवी
देवताओं के भरोसे
छोड़ देते हैं,
जिसका अंजाम भगदड़
ही जैसे हादसे
होते हैं।
सूर्य के सिंहस्थ
राशि में प्रवेश
के साथ ही
त्र्यंबकेश्वर में गोदारी
के तट पर
महाकुंभ शुरू हो
गया है। अगले
साल 15 अगस्त तक चलने
वाले इस महाआयोजन
में देश विदेश
से लगभग 10 करोड़
से अधिक श्रद्धालुओं
के आने की
संभावना है। इसके
मुख्य स्नान पवों
पर ही एक
ही पर्व पर
स्नानार्थियों की संख्या
करोड़ से कहीं
ऊपर चली जाती
है। इतने विशाल
जनसमूह को नियंत्रित
करने की अगर
फूलप्रुफ व्यवस्था नहीं की
गयी तो महाकंqभों के हादसों
का तो रहा
दूर यह सिंहस्थ
कुंभ अपना ही
इतिहास दुहरा सकता है।
सन् 2003 इसी कुंभ
के अंतिम चरण
में मची भगदड़
में लगभग 40 श्रद्धालु
कुचल कर अपनी
जानें गंवा बैठे
थे। समय के
साथ ही परिस्थितियों
के बदलने से
इतनी अधिक भीड़ों
को नियंत्रित करना
और जन सुरक्षा
सुनिश्चित करना भी
चुनौतीपूर्ण होता जा
रहा है।
महाकुम्भों
में भगदड़ का
लम्बा इतिहास है।
हरिद्वार में सन्
1819 के कुम्भ में हुयी
भगदड़ में 430 लोग
मारे गये थे।
सन् 1954 के इलाहाबाद
महाकुभ के दौरान
हुयी भगदड़ में
लगभग 1000 लोगों के मारे
गये थे। नासिक
के कुम्भ में
ही 2003 में हुयी
भगदड़ में लगभग
40 लोग मारे गये
थे। हरिद्वार में
सन् 1986 के कुम्भ
में हुयी भगदड़
में 50 से अधिक
लोग मारे गये।
कुम्भ ही नहीं
देश में अन्य
धार्मिक आयोजनों के समय
भगदड़ की घटनायें
अक्सर होती रही
हैं। नवरात्रि के
अवसर पर 30 सितम्बर
2008 में जोधपुर राजस्थान के
चौमुण्डा देवी मन्दिर
भगदड़ में 147 के
मारे गये थेे
और 425 घायल हो
गये थे। पुरी
रथ यात्रा के
दौरान भी भगदड़
में 6 लोग मारे
गये थे। इस
सदी की सबसे
भयावह भगदड़ त्रासदी
2005 में सतारा महाराष्ट्र की
मन्धार देवी मेले
में हुयी थी
जिसमें लगभग 300 लोग दब
कर और कुचल
कर मारे गये
थे। 3 अगस्त 2008 को
हिमाचल प्रदेश के नैनादेवी
भगदड़ में 162 लोग
कुचलकर मारे गये
थे और 300 से
अधिक घायल हो
गये थे। इसी
स्थान पर 1978 में
हुयी भगदड़ में
65 श्रद्धालु मारे गये
थे।
पिछली भगदड़ों पर गौर
करें तो ज्यादातर
त्रासदियों के लिये
अफवाहें जिम्मेदार रही हैं।
हिमाचल के नैनादेवी
में वर्षा से
बचने का आश्रय
ढहा था और
अफवाह भूस्खलन की
फैल गयी। मीडिया
जिस तरह आतंकवाद
सम्बन्धी खबरों को सनसनीखेज
तरीके से पेश
करता है, उससे
अफवाहों का बाजार
जल्दी ही गरमाना
लाजिमी ही है।
खास कर जब
मानव मुण्डों का
महासमुद्र एकत्र हो तो
कहीं भी और
किसी भी कोने
से अफवाह आसानी
से उड़ाई जा
सकती है। आतंकवादियों
को भी हथियार
लेकर आने की
जरूरत नहीं है।
छोटी सी वारदात
कर तालाब में
कंकड़ फेंकने की
तरह हलचल पैदा
की जा सकती
है।
अब तक प्रायः
भीड़ का दबाव
बढ़ने के कारण
ही ऐसे आयोजनों
में भगदड़ें होती
रही हैं। वीआइपी
वेषधारी श्रद्धालुओं के आगमन
से भी अव्यवस्था
फैल जाती है।
इस सच्चाई को
ध्यान में रखते
हुये सन् 2010 के
महाकुंभ में उत्तराखंड
सरकार ने तो
अति महत्वपूर्ण व्यक्तियों
की आगवानी से
साथ इंकार कर
दिया था। मगर
उस अनुरोध को
मानता ही कौन
है। दरअसल यह
मनाही सत्ताधारी दल
के महत्वपूर्ण व्यक्तियों
के लिये नहीं
होती है। हरिद्वार
में इन नेताओं
को स्नान कराने
के लिये ही
1886 में भीड़ रोकी
गयी थी और
जब दबाव असहनीय
हो गया तो
उसे नियंत्रित करने
के लिये लाठी
चार्ज हुआ और
उसके बाद भगदड़
मच गयी। हरिद्वार
में ही सोमवती
अमावस्या पर मनसा
देवी भगदड़ में
भी भीड़ का
दबाव रोकने के
लिये पुलिस द्वारा
किया गया लाठी
चार्ज ही भगदड़
का करण रहा
है। उस भगदड़
में 21 लोग मारे
गये थे।
अभी तो नासिक
कुंभ का आगाज
ही हुआ है।
मुख्य स्नानपर्व अभी
काफी दूर हैं,
इसलिये महाराष्ट्र की राज्य
सरकार को भीड़
प्रबंधन के लिये
न केवल भारत
सरकार के साथ
बेहतर तालमेल बिठाना
है बल्कि इसी
तरह हरिद्वार, इलाहाबाद
और उज्जैन में
महाकुंभों के आयोजनों
में शामिल रहे
पुलिस और प्रशासन
के अधिकारियों की
सेवाएं भी लेनी
चाहिये। ऐसे आयोजनों
में भीड़ को
व्यवस्थित करने के
लिये डंडाधारी पुलिसकर्मियों
के साथ ही
पैनी नजर और
तेज श्रवणशक्ति वाले
खुफिया तंत्र की भी
जरूरत होती है।
इसके बाद अगल
साल जनवरी से
हरिद्वार में अर्धकंभ
शुरू होना है।
उसके लिये उत्तराखंड
में कुभ प्रशासन
पहले ही गठित
कर दिया गया
है। इसलिये हरिद्वार
कुंभ के प्रबंधकों
को नासिक से
भी सबक लेने
के लिये कहा
जाना चाहिये।
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जयसिंह रावत-
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स
एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल
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jaysinghrawat@gmail.com
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