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गरीबों के भरोसे भारत की सेना ?
-जयसिंह रावत
भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून के ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह (पासिंग आउट परेड) में इस बार भी इस देश की अनेकता में एकता की झलक तो अवश्य नजर आई मगर उसमें न तो कोई नेता और ना ही आइएएस या आइएफएस जैसी नौकरशाही की बिरादरी का कोई ब्यूरोक्रैट नजर आया। वे आते भी क्यों \ वास्तव में आइएमए की दीक्षान्त परेड का गवाह बनने वही लोग पहुंचते हैं जिनके लाडले देश की आन बान और शान पर मर मिटने वाली भारत की सेना की दहलीज पर खडे़ हों] और देश में ऐसा नेता या ब्यूरोक्रैट कैसे हो सकता है जो सुख सुविधाओं में पली अपनी संतान को जान की जोखिम में डाल दे!
भारतीस सैन्य अकादमी ही क्यों\ नोसेना और वायु सेना की अकादमियों में भी आपको किसी नेता या ब्यूरोक्रैट का लाडला नजर नहीं आयेगा] क्योंकि उन्हें देश पर शासन करना है या प्रशासन करना है। अगर इतना पढ़ लिख भी नहीं सके तो व्यवसाय में ऐश्वर्य के दरवाजे उनके लिये पलक पावड़े बिछाये रहते हैं। लेकिन शासकों] प्रशासकों और उद्योग या व्यापार जगत से जुडे लोगों की सोच से इतर अगर आप सोचंs तो सवाल उठता है कि क्या इस देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी केवल एक आम आदमी या गरीब किसान की ही है। अगर इस देश की सुरक्षा या डिफेंस की यही डाक्ट्रिन है तो फिर देश की सुरक्षा वास्तव में खतरे में है। यह सोच लोकतंत्र की मूल भावना से भी मेल नहीं खाती है।
भारत] पाकिस्तान] बांग्लादेश और म्यांमार सहित विभिन्न देशों की सेनाओं को लगभग 58 हजार जांबाज कमांडर देने देने वाली भारतीय सैन्य अकादमी का यह ग्रीष्मकालीन दीक्षान्त समारोह दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की असलियत को बयां कर गया। लोकतंत्र से इतर राजशाही या तानाशाही में लड़ाकुओं की जान केवल खेलने या बहादुारी दिखाने के लिये होती थी और शासकों द्वारा जातीय अभिमान के नाम पर जाति व्यवस्था के तहत बाकायदा रणबांकुरों की फसल बोई जाती थी। युद्धों के इतिहास के पन्नों को अगर आप पलटें तो पता चलता है कि प्राचीन युग में सबसे पहले मरने वाले भी जातीय या क्षेत्र के आधार पर तय किये जाते थे। जब तीर समाप्त हो जाते थे और तलवारें कंqद हो जाती थीं तो तब सेनापतियों के अपने लड़ाकू मैदान में उतारे जाते थे। क्षत्रिय तो मरने के लिये ही पैदा होता था। उसके जीवन का लक्ष्य मरना या मारना ही होता था। लेकिन आज] जबकि समाज जातीय बंधनों को तोड़ कर हर क्षेत्र में हर आदमी को हाथ आजमाने का मौका दे रहा है तो शासक और प्रशासक वर्ग अब भी अपनी सुविधानुसार उस प्राचीन व्यवस्था को बनाये रखना चाहता है] जिसमें मरने या मारने की जिम्मेदारी शासक नहीं बल्कि शासित वर्ग की होती है। यह जिम्मेदारी आज भी एक फौजी] किसान] मजदूर या फिर वंचित वर्ग को उठानी पड़ रही है।
लेकतंत्र के इस युग में जब हम जाति विहीन या वर्ण विहीन समाज की ओर बढ़ रहे हों तो तब शासकों और प्रशासकों की बिरादरी हमें एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर क्यों ले जा रही है\ जब नेता का बेटा या बेटी नेता और आइएएस या फिर किसी भी नौकरशाह को बेटा या बेटी नौकरशाह ही बनेंगे तो क्या हम एक नयी वर्ण व्यवस्था की ओर नहीं बढ़ रहे हैं\
केन्द्र या किसी भी राज्य सरकार का कर्मचारी केवल उस जगह पर अपनी तैनाती चाहता है जहां पर सुख सुविधाओं के सारे संkधन उपलब्ध हों। यही नहीं वह तैनाती स्थल पर ऊपरी कमाई की भी कामना करता है। रिस्क वाली जगह पर तैनाती की बात करना भी उसके मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है। इसी तरह नेताओं की बिरादरी के बच्चे सरहद पर जान जोखिम में डालना तो रहा दूर वे सरकारी या किसी की भी नौकरी नहीं करना चाहते। उन्हें नौकर रखने या शासन करने का विशेषाधिकार चाहिये। व्यापारी या उद्योगपति का बेटा अपनी धन दौलत के सहारे सत्ता और संसाधनों को अपने कब्जे में रखना चाहता है। जबकि गरीब या एक आम आदमी का बेटा सैनिक के रूप में सियाचिन में बर्फ के अंदर महीनों रह सकता है। वह जंगलों में भूखा-प्यासा भटक सकता है। जरूरत पड़ने पर वह कारगिल में अपनी जान भी देश के लिये न्योछावर कर सकता है। लेकिन अगर नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा घर से दो कदम भी बाहर निकला तो उसके मां-बाप को चिंता हो जाती है कि कहीं उसे सर्दी या गर्मी न लग जाय। कहीं उसकी बातानुकूलित कार में गड़बडी़ न आ जाय! अगर इस देश के लोकतांत्रिक ढांचे में हर नागरिक बराबर है और हर नागरिक देश के शासन में शामिल है तो फिर यह भेदभाव क्यों है\ अगर यह देश हर देशवासी का है तो इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी हर एक देशवासी क्यों नही है\ अगर इस देश में तरक्की के अवसरों पर हर एक नागरिक का अधिकार है या सभी को सुख सुविधायुक्त सुरक्षित जीवन जीने का बराबर का अधिकार है तो फिर यह भेदभाव क्यों\ नेता या नौकरशाह के बेटे की जान ज्यादा कीमती और आम आदमी के बेटे की जान सस्ती क्यों\
सामरिक दृष्टि से देखा जाय तो भारत और इज्राइल की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। भारत तो कम से कम दो परमाणु शक्ति सम्पन्न वैमनस्यता रखने वाले देशों की सैन्य आकांक्षाओं से भी घिरा हुआ है। इज्राइल दांतों के बीच में जीभ की जैसी स्थिति के बावजूद हर वक्त डिफेंसिव नहीं बल्कि ऑफेंसिव रहता है। उसके बजूद को मिटाने की इतनी कोशिशों के बावजूद उसका कोई बाल बांका नहीं कर पाता। इसकी वजह यह है कि भारत की तरह वहां एक वर्ग विशेष के जिम्मे देश की सुरक्षा न हो कर यह हर एक नागरिक की जिम्मेदारी होती है। वहां के छोटे नेता से लेकर राष्ट्रपति तक हर किसी को कभी न कभी सेना में योगदान देना ही होता है। इज्रराइल ही क्यों दुनियां के डेढ दर्जन से अधिक देशों में आवश्यक मिलिट्री सेवा का प्रावधान है। ब्रिटेन में तो आज भी राजशाही है और वहां के युवराज या राजकुमारों को आवश्यक मिलिट्री सेवा से गुजरना होता है। ब्रिटिश युवराज चार्ल्स फिलिप अर्थर जॉर्ज स्वयं नोसेना के पदधारी रहे हैं। जबकि उनके बेटे और भावी युवराज विलियम हैरी ने एक सैनिक के तौर पर इराक युद्ध में सक्रिय भागीदारी की थी। इस युद्ध में इस युवराज की जान भी जा सकती थी। अगर देखा जाय तो आज भारत को सबसे बड़ी सैन्य चुनौती चीन की ओर से है। चीन से चुनौती केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनियां के महाबली अमेरिका के लिये भी है। उस चीन में भी 18 साल की उम्र तक पहुंचने वाले हर युवा को पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दफ्तर में अपना पंजीकरण कराना होता है, ताकि जरूरत पड़ने पर उसका उपयोग किया जा सके।
भारत के पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने अपने सेवाकाल के दौरान ही देश में ’आवश्यक मिलिट्री सेवा या ’कन्सक्रिप्शन की जरूरत की बात कही तो इस विचार को अंगीकार करना तो रहा दूर] नेताओं और सिविल नौकरशाहों की बिरादरी की भौंहें चढ़ गयीं । जबकि जनरल कपूर ने तो केवल विचार ही रखा था और यह विचार भी कपोल कल्पना नहीं बल्कि दुनियां के कई देशों की व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुये प्रकट किया था। उनका यह विचार सिविल नौकरशाही के प्रति ईर्ष्या भाव के कारण नहीं बल्कि सेना में बड़ी संख्या में अफसरों की कमी को देखते हुये उनके दिमाग में उभरा था। केवल थल सेना में ही आज की तारीख में लगभग 12 हजार अफसरों की कमी है। अगर हर युवा का आकर्षण नेताओं, अभिनेताओं, टैक्नोक्रैट और ब्यूराक्रैट के बच्चों की तरह शासन प्रशासन और दिन दूनी रात चौगुनी कमाई तथा हनक की ओर होगा तो सेना में मरने के लिये कोई कैसे आकर्षित होगा\
एक जमाने में ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज कभी अस्त नहीं होता था। उस साम्राज्य में 1960 तक आवश्यक सैन्य सेवा का प्रावधान रहा। लेकिन ग्रेट ब्रिटेन के राजकुमार आज भी सेना में भर्ती होते हैं। दुनियां के एकमात्र दारोगा संयुक्त राज्य अमेरिका में 1975 तक यह व्यवस्था थी जिसमें संशोधन तो कर दिया गया मगर पूरी तरह यह व्यवस्था समाप्त नहीं की गयी। अमेरिका को आज भी टक्कर देने की हिम्मत रखने वाले रूस में अब भी यह व्यवस्था किसी न किसी रूप में जिन्दा है। इनके अलावा बोलीविया] बर्मा] इंडोनेशिया] फिनलैंड] इस्टोनिया] जॉर्डन] उत्तर कोरिया] द0 कोरिया] मलएशिया] स्विट्रजरलैंड] सीरिया] ताइवान] थाइलैंड] टर्की] बेनेजुएला और संयुक्त अरब अमीरात में आज भी आवश्यक मिलिट्री सेवा का प्रावधान है। अमेरिका समेत] पुर्तगाल] पोलैंड] नीदरलैंड] लिथुआनिया] जापान और हंगरी जैसे देशों ने आवश्यक मिलिट्री सेवा तो समाप्त कर दी मगर स्वेच्छिक सेवा का विकल्प बंद नहीं किया। जापान में भी सेल्फ डिफेंस फोर्स में 18 साल की उम्र वाले लड़कों को अपना पंजीकरण कराने की अपेक्षा की जाती है।
सवाल केवल राष्ट्रीय सुरक्षा में हर किसी की भागीदारी का नहीं है। चीन के बाद हमारे पास सबसे अधिक जनशक्ति है और हमारी यह जनशक्ति चीन से भी कहीं युवा है। इस देश की बौद्धिक शक्ति का लोहा अमेरिका तक मानता है। अगर हम इन शक्तियों को सेना से जोड़ते हैं तो हमारी सेना संसार की सबसे शक्तिशाली सेना स्वतः ही बन जायेगी। सवाल केवल सेना में महज औपचारिक भागीदारी का नहीं है। सवाल यह भी है कि अगर हर क्षेत्र में काम करने वाले एक दूसरे के काम की जटिलताओं] जोखिमों और महत्व को समझेंगे तो उनमें तालमेल बढ़ेगा और उनका क्षमता विकास भी होगा। जब एक नेता या ब्यूरोक्रैट का बेटा सीमा पर शहादत देगा तो इस बिरादरी को तब जा कर सेना का महत्व समझ में आयेगा। ब्यूरोक्रैट सेना में भी काम करेंगे तो उनमें अनुशासन की भावना बढ़ेगी।
जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव] शाहनगर]
डिफेंस कालोनी रोड] देहरादून।
09412324999