धरती का सबसे खूंखार
जीव है आदमी
-जयसिंह रावत
भारत में चीता सन्
1950 के बाद नहीं दिखाई दिया। उच्च हिमालयी क्षेत्र में आम तौर पर नजर आने वाला हिम
तेंदुआ अब हिम मानव येति की तरह कैमरों में ही कभी कभार ट्रैप हो पाता है। एक ताजा
खबर यह भी है कि कुत्तों ने भी बाघों के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। भैंसों
से ज्यादा दूध की चाह तो पहले ही गिद्धों के कुनवे को संकट में डाल चुकी है। एक खबर
यह भी है कि मोबाइल टावरों की तरंगों ने मधुमक्खियों को भटका दिया है, त्रिपुरा के
पूर्व मुख्य वन संरक्षक ए.के. घोष के एक शोधपत्र के अनुसार उस राज्य में सियारों की
आबादी समाप्ति की और है जबकि मेघालय में पक्षियों के मांस का शौक कौओं के कुनबे के
लिये काल साबित हो रहा है। जिस तरह कस्तूरी मृगों के लिये उनकी बहुमूल्य कस्तूरी और
भालुओं के लिये उनकी पित्त की थैली ही उनकी दुश्मन बन गयी है, उसी तरह सियार का तेल
ही उसके अस्तित्व के लिये खतरा बन गया है। सांडे का तेल मर्दानगी लौटाये या नहीं मगर
उस बेजुबान का अस्तित्व मिटाने में हम मर्दानगी जरूर दिखा रहे हैं।
भारतीय वन्य जन्तु
सर्वेक्षण विभाग की रेड डाटा बुक के अनुसार भारत में पायी जाने वाली जीवजात की स्तनपायियों
की 372 प्रजातियों में से 77, चिड़ियों की 1228 प्रजातियों में से 55, सरीसृपों की
446 में से 20 और एम्फीबिया की 1 और कीड़े मकौड़ों की कई प्रजातियों के अस्तित्व पर विभिन्न
सीमाओं तक खतरा मंडरा रहा है। इनमें से कुछ लुप्तप्राय हो गयी हैं। इनमें से स्तनपाइयों
की 75 प्रजातियां, पक्षियों की 44 और सरीसृपों की 19 प्रजातियां अति संरक्षित श्रेणी
की अनुसूची-एक में तथा स्तनपाइयों की 2 और एम्फीबियन की एक प्रजाति अनुसूची-दो में
शामिल हैं। मतलब यह कि अगर हम नहीं संभले तो ये प्रजातियां जल्दी ही दुनियां से अलवदि
कह सकती हैं। भारत में बंगाल टाइगर, शेर, हांगुल और बारहसिंगा को कुछ ही स्थानों पर
विशेष प्रयासों से बचाया जा सका है। कस्तूरी मृग की ही तरह कृष्ण मृग भी खतरे की जद
में आ गया है। घड़ियाल, सौन चिड़िया, और मगर आदि भी उसी अस्तित्व के खतरे की ओर बढ़ रहे
हैं। अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन (आइयूसीएन) की संकटापन्न वन्य जीवों की
सूची तो और भी लम्बी है, जिसमें लुप्त प्रजातियों में भारत में पाया जाने वाला हिम
तेंदुआ भी है। उसके अलावा भी आइयूसीएन ने लासाइन, डोडो, यात्री कबूतर, टाइरानोसारस,
कैरेबियन मॉन्क सील को लुप्त घोषित कर दिया है। इंसान ने कुछ जीवों को भोजन के लिये
मार डाला तो कुछ का विनाश उनके अंगों की बिक्री के लिये कर डाला। इनके अलावा गिद्ध
जैसे ऐसे जीव भी हैं जिनकी मौत ऐसी मृत गाय-भैंसों को खाने से हो रही है जिनका दूध
उत्पादन बढ़ाने के लिये डेयरियां वाले डिक्लोफिनैक इंजेक्शन लगाते हैं। एक ताजा समाचार
के अनुसार बीमार कुत्ते खाने से बाघ भी मारे जा रहे हैं।
प्राणिजात की इतनी
बड़ी संख्या का लुप्त या संकटापन्न हो जाना मनुष्य के लिये खतरे की घंटी है। देखा जाय
तो इंसान इस पृथ्वी का सबसे खतरनाक जीव साबित हो रहा है। उसकी विस्तारवादी और संसार
के अन्य प्राणियों पर अधिपत्य की प्रवृति के फलस्वरूप पर्यावरण में प्राकृतिक संसाधनों
के दुरुपयोग तथा अनियंत्रित व्यापार विनियमन आदि के कारण प्राणिजाति के विलुप्त होने
से एक खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो रही है। इस श्रृष्टि में इंसान नाम की अकेली प्रजाति
लाखों पादप और प्राणि प्रजातियों के हिस्से का भी लगभग 40 प्रतिशत जीवनोपयोगी संसाधन,
फोटोसिन्थेसिस आउटपुट हड़पने के साथ ही उन जीवों को ही निगल रही है।
पृथ्वी पर प्रकृति
का ऊजा प्रवाह बनस्पतियों से शाकाहारी जीवों और शाकाहारी जीवों को खाने से मांसाहारी
जीवों तक पहुंचता है और उनके मरने पर सूक्ष्म जीवों के जरिये वापस प्रकृति या धरती
में चला जाता है। इस श्रृंखला में हरे पौधे सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करके उप पाचन या
मैटाबोलिज्म क्रिया द्वारा स्टार्च, प्रोटीन और अन्य पदार्थ तैयार करते हैं जो कि शाकाहारियों
और मांसाहारियों में घूम फिर कर फिर प्रकृति में लौट जाते हैं। इस प्रकार अगर फोटोसिन्थैसिस
वाले ऊर्जा प्रवाह की कड़ी टूट गयी तो ऊर्जा प्रवाह बंद होने पर सम्पूर्ण जीवन पोषण
तंत्र छिन्न भिन्न हो जाने से पृथ्वी पर जीवन ही समाप्त हो जायेगा।
वन्यजीवों की भोजन,
आवास स्थल और सुरक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति वनों से ही होती है। जिस तरह वन्यजीवों
को वनों की आवश्यकता होती है उसी तरह वनों को भी जीव जन्तुओं की आवश्यकता होती है।
बहुत से वन्यजीव वनस्पति प्रजातियों के प्रजनन और पुनरोत्पादन में सहायक होते हैं।
ये पेड़ों के फल बीज समेत खा जाते हैं और कहीं दूर या ऊंचाई वाले स्थान पर मल त्याग
कर उन बीजों को बहार फेंक देते हैं जिनसे नये पौधे पैदा होते हैं। कुछ बीज इनके बालों
पर चिपक जाते हैं और दूर कहीं फिर जमीन पर गिर जाते हैं। यही नहीं कठफोड़वा जैसे पक्षी
फफूंद, कीड़े मकोड़े और दीमक को खा कर पेड़ की रक्षा करते हैं। वन्य जीवों की ड्रापिंग्स
खाद का काम करती है। सांप को ही देख लीजिये! सांप अगर चूहों की आबादी को नियंत्रित
न करें तो चूहे आदमियों की आबादी को भूखों मरने पर विवश कर दें। मिट्टी को निरंतर उपजाऊ
बनाये रखने के लिये सूक्ष्म जीवों या माइक्रो ऑर्गानिज्म का महत्पूर्ण योगदान रहता
है।
भारत में ही नहीं बल्कि
सारी दुनियां में वन्यजीवों का प्राकृतिक आवास वन क्षेत्र तेजी से सिमट रहे हैं। केन्द्रीय
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 1951-52 से लेकर 1975-1976 तक
देश में लगभग 41,35,000 हैक्टेअर वन क्षेत्र घट गया था। आजादी के बाद से वन अधिनियम
1980 के अस्तित्व में आने तक लगभग 50 हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र गैर वानिकी भूउपयोग
में बदल गया था, जिसमें से 9400 वर्ग किमी पर अवैध कब्जे शामिल हैं। नवीनतम् 2013 की
वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार देश का वनावरण 21.23 प्रतिशत ही रह गया है। जिसमें घने
जंगल 2.54 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गये हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की ताजा रिपोर्ट
के अनुसार 2011 से लेकर 2013 तक की मात्र दो साल की अवधि में देश के सघन वन क्षेत्र
का 1991 वर्ग किमी क्षेत्र घट गया। देश के 35 प्रदेशों और केन्द्र शाषित प्रदेशों में
16 का वनावरण पिछले दो साल में घटा हुआ मिला है।
वन्यजीवों का मानव
जीवन के लिये महत्व को समझते हुये हमारे देश में भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 जैसा
कठोर कानून तो बन गया। लेकिन यह कानून भी वन्यजीवों
का विनाश नहीं रोक पा रहा है। इस अधिनियम के तहत अनुसूची-1 तथा अनुसूची-2 के द्वितीय
भाग, वन्यजीवन को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हैं। इनके तहत अपराधों के लिए उच्चतम दंड
निर्धारित है। अनुसूची-3 और अनुसूची-4 भी संरक्षण प्रदान कर रहे हैं लेकिन इनमे दंड
बहुत कम हैं। अनुसूची-5 में वे जीव शामिल हैं जिनका शिकार हो सकता है। छठी अनुसूची
में शामिल पौधों की खेती और रोपण पर रोक है। फिर भी वन्यजीवों का बड़े पैमाने पर संहार
और उनके अंगों की तस्करी का कारोबार दिन दूना रात चौगुना फलफूल रहा है। जोधपुर के निकट
मथनिया में 28 सितम्बर 1998 को संरक्षित प्रजाति का काला हिरण मारा गया था। आज 16 साल
बाद भी उस निरीह प्राणी को मौजूदा कानून से न्याय नहीं मिल सका। उस बहुचर्चित मामले
में सलमान खान, सैफ अली खान और तब्बू आरोपी हैं। इसी तरह का एक मामला प्रख्यात क्रिकेट
स्टार स्वर्गीय नवाब पटौदी के खिलाफ भी दर्ज हुआ था। वन्यजीव अपराध के मामलों में कानून
की लाचारी के चलते ही वन्यजीव तस्करी का धंधा पनप रहा है। वन्यजीव अपराधों के मामलों
को इतने हल्के ढंग से लिया गया है कि उनकी सुनवाई सेशन जज स्तर के न्यायाधिपति के बजाय
मैजिस्टेट्र की कोर्ट में होती है। शबीर अहमद कुरैशी नाम के एक तस्कर से बाघों की
4 खालें, गुलदारों की 70 खालें तथा गुलदारों के 18 हजार नाखून बरामद हुये थे। इस मामले
में उसे बहुत कम सजा हुयी और वह जल्दी ही सजा काट कर फिर पुराने धंधे में लौट आया।
उत्तराखण्ड सहित कई राज्यों में वन्य जीवों के बड़े पैमाने पर संहार के लिये जिम्मेदार
कुख्यात संसार चंद का भी कानून कुछ ज्यादा नहीं बिगाड़ पाया। संसार चंद की मौत के बाद
अब उसके करीबी उसके इस अवैध कारोबार का साम्राज्य संभाल रहे हैं।
देखा जाय तो अगर कानून
से ही अपराध रुक जाते तो समाज में हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराध घटने
के बजाय बढ़ते ही क्यों ? इन अपराधों के लिये तो मृत्यु दंड से लेकर कई कठोर सजायें
तय हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 51ए में लिखा गया है कि “प्रत्येक भारतवासी का यह
कर्तव्य होगा कि वह वनों, झीलों, नदियों और वन्यजीवों की रक्षा करे और उनके संवर्धन
के साथ ही प्राणियों पर दया करे”। संविधान की इस भावना को जब तक आत्मसात नहीं
किया जाता तब तक सरकार के भरोसे वन्य जीवों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो सकती। इसके
लिये हमारे पास विश्नोई बिरादरी की जैसी अनुकरण्ीय मिसालें हैं। वैसे भी देखा जाय तो
वन्यजीव संरक्षण का इतिहास हमारे देश में ऋषि मुनियों के जमाने से चला आ रहा है। स्वयं
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वन्य जीवों के संरक्षण का उल्लेख है। चाणक्य ने भी वन्य
जीव संरक्षण की व्यवस्था की थी और सम्राट अशोक के शिलालेखों में तो इसका उल्लेख है
ही।
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मोबाइल
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