ग्राम सरकार पर प्रधान पति का कब्जा
-जयसिंह रावत-
उत्तराखण्ड
के त्रिस्तरीय पंचायत
चुनाव की मतगणना
के बाद हमारे
एक मित्र ने फेस
बुक पर फूल
मालाओं से लदे
एक बुजुर्ग का
चित्र इस टिप्पणी
के साथ डाल
दिया कि “जीती
बहू और बौराये
ससुर”! यह टिप्पणी
पढ़ कर मेरा
भी माथा ठनका
और मैने राज्य
निर्वाचन आयोग की
वैवसाइट खोल कर
उस गांव के
जीते हुये प्रत्याशी का नाम
जानना जहां के
बारे में मेरा
बचपन का मित्र
कह रहा था
कि वह मात्र
9 वोट से हार
गया। मैं यह
जान कर हैरान
रह गया कि
उस गाव में
जीतने वाला पुरुष नहीं बल्कि
महिला थी और
9 वोट से हारने
वाली भी महिला
और कोई नहीं
बल्कि मेरे बाल
सखा की पत्नी
थी। जिज्ञासा बढ़ने
पर मैंने अपने
ही गांव की
दरियाफ्त कर डाली
तो मेरी हैरानी
चरम पर पहुंच
गयी, क्योंकि वहां
जीतने वाली हमारे ही कुनबे की
भाभी निकली जबकि
मतगणना के दिन
मुझसे बधाई मेरा
भतीजा ले चुका
था। गलती मेरी
नहीं थी। मुझे
भतीजे को ही
बधाई देने के
लिये कहा गया
था। जिस महिला
का चुनाव जीतने
पर बधाई पाने
का अधिकार भी
अगर बेटा छीन
गया हो तो
प्रधान के रूप
में उसके अधिकारों
का क्या हाल
होगा, इसकी सहज
ही कल्पना की
जा सकती है।
ग्राम समुदाय के हाथों
में ग्राम सरकार
की कमान सौंपने
तथा पंचायतों को
लोकसभा और विधानसभा
की तरह संवैधानिक
दर्जा देने के
लिये सन 1992 में
पारित संविधान के
73वें संशोधन
की भावना के
प्रति कर्नाटक और
पष्चिम बंगाल जैसे मुट्ठीभर
राज्यों के अलावा
बाकी राज्य तो
जानबूझ कर अनजान
बने ही हुये
थे, लेकिन पुरुष प्रधान समाज
इस कानून के
हकीकत बनने के
22 साल बाद भी
इसकी भावना को
समझने के लिये
तैयार नहीं है।
संविधान की भावना
का विभिन्न स्तरों
पर अनादर का
प्रमाण यह है
कि राज्य सरकारें
पंचायतों को पूरे
अधिकार देना तो
रहा दूर समय
पर उनके चुनाव
तक नहीं करा
रही हैं, और
प्रधान पति नाम
का एक ऐसा
संविधानेत्तर पद पैदा
हो गया है
जिसके आगे संविधान
के प्रावधानों के
तहत निर्वाचित प्रधान
का पद मात्र
मुखौटा ही बन
कर रह गया
है। सवाल यह
नहीं है कि
प्रधान पति, प्रधान
भाई और प्रधान
बेटों को महिलाओं
की योग्यता पर
भरोसा नहीं है।
मामला यह है
कि आरक्षण के
बावजूद पुरुष अपनी सत्ता छोड़ने को
तैयार नहीं है।
जबकि महिलाओं ने
इन्हीं पंचायतों में स्वयं
को बेहतर साबित
करके भी दिखा
दिया है।
लगभग चार दशक
पूर्व पी. व्ही.
नरसिंहाराव सरकार ने राजीव
गांधी सरकार द्वारा
तैयार पंचायती राज
संस्थाओं से संबधित
विधेयक को संशोधित
कर दिसंबर 1992 में
73 वें संविधान संशोधन के
रूप में संसद
से पारित करवाया
था। यह 73वां
संविधान संशोधन 24 अप्रैल 1993 से
लागू किया गया।
इस संशोधन द्वारा
संविधान में एक
नया भाग अध्याय
9 जोड़ा गया है।
अध्याय 9 द्वारा संविधान में
16 अनुच्छेद और एक
ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी
है। जिसका शीर्षक
“पंचायत” है। 73वां संविधान
संशोधन अधिनियम 1992 में पंचायती
राज व्यवस्था को
न केवल नई
दिशा प्रदान की
गयी, बल्कि उसने
महिलाओं की पंचायतों
में 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान
कर उनकी संसदीय
लोकतंत्र की जड़
पर सहभागिता सुनिष्चित
कर दी।
युगांतरकारी
73 वें संविधान संषोधन 1992 के
पारित होने और
राज्यों द्वारा इस छतरी
कानून की भावना
के अनुकूल अपने
पंचायती राज कानूनों
में परिवर्तन करने
के बाद जब
चुनाव हुये तो
तो सीधे-सीधे
पुरुषोंsa की एक
तिहाई संभावनाओं पर
तो पानी फिर
ही गया था।
लेकिन पुरुष
इतनी जल्दी कहा
हथियार डालने वाले थे!
उन्होंने ग्राम सरकार की
सत्ता परोक्ष रूप
से हथियाने के
लिये अपनी पत्नियों,
बहनों और माताओं
को चुनाव मैदान
में उतारना शुरू कर
दिया। जब ये
एक तिहाई महिलाएं
चुन कर आयीं
तो उनकी जगह
पुरुष न
केवल घर पर
प्रधान की जिम्मेदारी
संभालने लग गये
बल्कि ग्राम सभा
और बीडीसी आदि
बैठकों में भी
स्वयं शामिल होने
लगे और अपने
वाहनों पर प्रधान
पति की नेम
प्लेट लगा कर
घूमने लगे। इस
प्रकार असली प्रधान
या ब्लाक पंचायत
सदस्य पीछे हो
गयीं और फर्जी
पदधारी आगे आ
गये। लगता है
कि अब वह
दिन दूर नहीं
जबकि प्रधानपति अपना
पदनाम बदल कर
ग्रामपति रख देंगे।
संविधान द्वारा प्रदत्त एक
तिहाई आरक्षण जब
कम महसूस होने
लगा तो आन्ध्र
प्रदेश , बिहार,
छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश ,
झारखंड, केरल, मध्य प्रदेश , महाराश्ट्र, ओडिशा,
राजस्थान, त्रिपुरा और उत्तराखण्ड
राज्यों ने पंचायतों
में महिला आरक्षण
को बढ़ा कर
50 प्रतिषत कर दिया
तो फिर संसद
ने भी पंचायती
राज व्यवस्था में
महिलाओं के लिए
50 प्रतिशत आरक्षण देने के
लिए हरी झंडी
दे दी। इस
व्यवस्था के आते
ही महिलाओं की
पंचायती राज में
भूमिका चाहे जितनी
भी बढ़ी हो
मगर पुरुषों
की संविधानेत्तर भूमिका
अवष्य बढ़ गयी
है। पहले सरकारी
कर्मचारी चुनाव में सीधे
भाग नहीं ले
सकते थे लेकिन
अब वे अपनी
पत्नियों को चुनाव
लड़वा कर उनके
नाम से लोकतांत्रिक
सत्ता का इस्तेमाल
करने लगे हैं।
यही नहीं मुद्दत
पहले गांव छोड़
कर शहर में
बस गये लोग
भी अपनी पत्नियों
को चुनाव लड़वाने
के लिये गांव
ले जा रहे
हैं। और तो
रहे और प्रदेश स्तर के
नेता भी पत्नियों
के माध्यम से
पंचायतीराज का सुख
भोग रहे हैं।
ऐसे भी उदाहरण
हैं जब ग्राम
प्रधान का पद
आरक्षित होने पर
पुरुष चुनाव
प्रकृया से ही
अलग हो गये,
क्यों कि वे
महिला प्रधान के
अधीन सदस्य या
उप प्रधान के
तौर पर काम
नहीं करना चाहते
थे। ऐसे उदाहरण
भी बहुत हैं
जबकि महिला प्रधानों
पर भ्रष्टाचार
के आरोप लगा
कर उन्हें अविश्वास प्रस्ताव से हटा
दिया गया।
दरअसल बलवंत राय मेहता
समिति से लेकर
73वें संविधान संशोधन तक विभिन्न
समितियों के माध्यम
से महिला आरक्षण
की बातें उठती
रही हैं। पंचायती
राज योजना से
संबंधित मेहता समिति ने
नवम्बर 1957 में प्रस्तुत
अपने प्रतिवेदन में
महिलाओं एवं बच्चों
से संबंधित कार्यक्रमों
के क्रियान्वयन को
देखने के लिए
जिला परिषद मे
दो महिलाओं के
समावेश की अनुशंसा
की थी। सन्
1978 में अशोक मेहता
की अध्यक्षता में
गठित समिति ने
दो सर्वाधिक मत
पाने वाली महिलाओं
को जिला परिषद
का सदस्य बनाने
की सिफारिश
की थी। कर्नाटक
पंचायत अधिनियम में महिलाओं
के लिए 25 प्रतिशत
आरक्षण का प्रावधान
पहले ही कर
दिया गया था।
ऐसी ही व्यवस्था
हिमाचल प्रदेश के पंचायत
अधिनियम में भी
थी। “नेशनल पर्सपेक्टिव
प्लान फॉर द
विमेन 1988” ने ग्राम
पंचायत से लेकर
जिला परिषद तक
30 प्रतिशत सीटों के आरक्षण
की अनुशंसा की।
मध्यप्रदेश में 1990 के पंचायत
अधिनियम में ग्राम
पंचायत में महिलाओं
के लिए 20 प्रतिशत
तथा जिला पंचायत
में 10 प्रतिषत आरक्षण का
प्रावधान था। महाराष्ट्र
पंचायत अधिनियम में 30 प्रतिशत
एवं उड़ीसा पंचायत
अधिनियम में एक
तिहाई आरक्षण का
प्रावधान 73 वां संविधान
संशोधन से पूर्व
ही था। पंचायती
राज संस्थाओं को
सकारात्मक संवैधानिक दर्जा देने
के उद्देश्य से
1989 में 64 वां संविधान
संशोधन विधेयक संसद के
सम्मुख प्रस्तुत किया गया,
लेकिन राजनीतिक कारणों
से यह संशोधन
विधेयक पारित नहीं हो
सका।
पुरुष प्रधान मानसिकता के
लिये केवल ग्राम
समाज को ही
क्यों दोशी ठहराया
जाय? संसद और
विधानसभाओं में महिलाओं
के लिये एक
तिहाई आरक्षण का
विधेयक 1996 से लटका
हुआ है। जब
बड़े नेता केन्द्र और राज्यों
की सत्ता में
महिलाओं को भागीदारी
देने को तैयार
न हों तो
एक देहाती से
दरियादिली की उम्मीद
कैसे की जा
सकती है।
नोट - मूल लेख के फाँट को कन्वर्ट करने में वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ रह गयी हैं
-- जयसिंह रावत--
ई- 11 फ्रेंड्स एन्क्लेव] शाहनगर
डिफेंस कालोनी
रोड] देहरादून।
मोबाइल- 9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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