उत्तराखण्डः जनजातियों का इतिहास
मैं कोई मानवशास्त्री नहीं। इसलिये इस पुस्तक में नृविज्ञान के चस्में से उत्तराखण्ड की जनजातीय संसार को परखने के बजाय मैंने एक पत्रकार
के ही तौर पर जनजातियों के अतीत को सामने रख कर वर्तमान तथा भविष्य के बारे में चिन्तन करने का एक छोटा सा प्रयास किया है। इस पुस्तक के माध्यम से मैंने भारत -तिब्बत सीमा क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये खतरा, तराई में जनजातियों के पांव तले से उनकी जमीनों का खिसकना, वनाधिकार अधिनियम 2006 की अनदेखी, संविधान की अनुसूची पांच की भावना के अनुरूप जनजातियों के लिये सलाहकार परिषद और पंचायती राज के लिये पेसा कानून तथा जनजातीय सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण और संवर्धन जैसे विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस पुस्तक में रवांई और जौनपुर के साथ ही भारत-तिब्बत से लगे सम्पूर्ण सीमान्त क्षेत्र को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किये जाने की मांग का विश्लेषण भी किया है। आदिवासियों के शोषण के परिणामस्वरूप इसमें नक्सलवाद पनपने की सम्भावनाओं के प्रति आगाह किया गया है। कुरीतियां हर एक समाज में होती हैं और उन्हें छिपाने से नहीं बल्कि बार-बार उजागर करने से ही दूर किया जा सकता है। इसलिये मैंने अगर जनजातीय संसार की कुछ कुरीतियों पर भी ध्यान केन्द्रित किया है तो उसे अन्यथा नहीं लिया जाना चाहिये।
इस पुस्तक के लेखन में जिन लोगों का मुझे प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग तथा मार्ग दर्शन मिला उनका मैं आभारी हूं। दरअसल यह मेरे लिये महज एक पुस्तक नहीं बल्कि यह मेरी पत्नी उषा, पुत्र अजय, अंकित और मेरी साझा तपस्या है। वैसे पुस्तक लेखन का यह मेरा दूसरा, मगर थोड़ा बड़ा प्रयास है। इससे पहले मैंने भाई महेन्द्र कुंवर की प्रेरणा से ग्रामीण पत्रकारिता पर एक छोटी पुस्तिका लिखी थी।मेरी नवीनतम पुस्तक विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी, 8,प्रथम तल, के.सी.सिटी सेण्टर, 4 डिस्पेंसरी रोड पर उपलब्ध है और इसके प्रकाशक भाई कीर्ति नवानी के अथक प्रयासों और उनके ही सौजन्य से उनके वितरकों के पास उपलब्ध होने जा रही है।मेरी दो अन्य पुस्तकें विन्सर पब्लिशिंग कम्पनी में ही मुद्रणाधीन हैं, जो कि शीघ्र ही बुक स्टालों पर पहुंच जायेंगी।
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