गैरसैंण में सरकारी उत्तरायणी मेला
-जयसिंह रावत
लखनऊ से आ कर देहरादून में अटकी हुयी सरकार पहली बार सीमान्त जिला चमोली के दूरस्थ क्षेत्र गैरसैण तक तो पहुंच गयी है मगर जब उसकी सोच दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर प्रस्थान नहीं करती तब तक शायद ही इस तरह के सरकारी उत्तरायणी मेलों का कोई ज्यादा लाभ हो सकेगा। वास्तव में सरकार सुदूर पहाड़ी इलाकों में भौतिक रूप से पहुंचे या नहीं मगर उसकी सोच उत्तरोन्मुखी होनी चाहिये। राष्ट्रहित में सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस क्षेत्र से हो रहे जनसंख्या पलायन को रोकने के लिये भी केन्द्र और राज्य सरकारों का पहाड़ोन्मुखी होना जरूरी है।
देशभर में मकर संक्रंाति के अवसर पर सामान्यतः जनवरी में मनाया जाने वाला उत्तरायणी पर्व उत्तराखण्ड की बहुगुणा सरकार ने गैरसैण में कैबिनेट बैठक कर 2 महीने पहले ही मना लिया है। गैरसैंण की कैबिनेट बैठक भले ही प्रदेश के मंत्रियों और नौकरशाहों के लिये महज एक सैर सपाटा हो मगर दशकों से सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं का इन्तजार कर रहे पहाड़वासियों के लिये यह महज ’एक दिनी तमाशा’ नहीं बल्कि अपनी वेदनाओं की अभिव्यक्ति का एक बेहतरीन मौका है। कैबिनेट के निर्णयों का भविष्य क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा मगर इस बैठक से उम्मीद की जा रही है कि अब राज्य की सरकारें दक्षिणायन से पलट कर उत्तरायण की ओर पहाड़ोन्मुखी होंगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसका खामियाजा न केवल उत्तराखण्ड के पहाड़ बल्कि समूचे राष्ट्र को उठाना पडे़गा। पहाड़ों से और खास कर सीमान्त और दुर्गम क्षेत्रों से जिस तेजी से आबादी का पलायन हो रहा है, उससे देश की सुरक्षा व्यवस्था ही खतरे में पड़ सकती है। भारत-तिब्बत सीमा से लगी नीलंग और नीती माणा से लेकर ब्यांस तथा जोहार घाटियों तक सभी गांव बहुत तेजी से खाली होते जा रहे हैं, जबकि देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी और नैनीताल जैसे नगरों पर जनसंख्या का बोझ असह्य होता जा रहा है।
गैरसैण बैठक के लिये मंत्रियों और अफसरों की सुख सुविधाओं के लिये जिस तरह धन बहाया गया वह भले ही फंूक झोपड़ी और देख तमाशा की कहावत को चरितार्थ कर गया। इसके लिये भाजपा सहित विभिन्न विरोधी पक्षों का मुखर होना भी स्वाभाविक ही था। लेकिन बावजूद इसके यह बैठक उत्तराखण्ड की एक नाजुक रग पर हाथ रख गयी है। यह सही है राजधानी वो बला है जो कि एक बार अंगद की तरह पैर जमा दे तो उसे फिर मोहम्द तुगलक जैसे पागल बादशाह ही दिल्ली से तुगलकाबाद खिसका सकते हैं। उत्तराखण्ड की राजधानी ने भी देहरादून में पांव जमा ही दिये हैं और उसे गैरसैंण ले जाने वाला तुगलक अब शायद ही पैदा हो। इसी सच्चाई को ध्यान में रखते हुये अब तक की भाजपा और कांग्रेस सरकारें देहरादून में ही राजभवन, मुख्यमंत्री आवास, सचिवालय और विधानसभा सहित तमाम जरूरी भवन और सुविधायें जमा चुकी हैं। राजधानियां एक जगह से दूसरी जगह खिसकाना इतना आसान होता तो हिमाचल की राजधानी कबके शिमला से पालमपुर आ जाती और हरियाणा के लोग दूसरा चण्डीगढ़ बसा देते। वास्तविकता यह है कि राजधानी के लिये एक नया शहर बसाना आसान नहीं है। जो सरकारें बसे बसाये देहरादून का मास्टर प्लान तक नहीं बना पा रही हैं उनसे इतना बड़ा शहर बसाने की उम्मीद रखना ही फिजूल है। केन्द्र सरकार अगर मदद देने वाली होती तो उत्तराखण्ड से पहले हरियाणा को अपनी अलग राजधानी मिलती। लेकिन बावजूद यह भी सच्चाई है कि गैरसैंण न केवल पहाड़ी की जनभावनाआंे और अभिलाषाओं का प्रतीक है अपितु गढ़वाल और कुमायूं का केन्द्र बिन्दु भी है। अगर इस सुदूर पहाड़ी इलाके में सरकार आ कर बैठ रही है तो उसे पूरी तरह ”फ्लाप शो“ या ”नाटक“ घाषित करना उचित नहीं है।
कई दशकों के संघर्ष के बाद भारत-तिबबत और नेपाल से लगे इस पहाड़ी क्षेत्र के लिये सरकार लखनऊ से देहरादून तो आ गयी मगर देहरादून से उत्तराखडियों की सरकार बारह सालों में ही पहाड़ चढ़ने में हांपने लगी है। इस सरकार के विकास की गाड़ी का पहाड़ चढ़ते समय इंजन ही फेल हो गया है। आज एक बार फिर पहाड़वासियों को अपनी ही सरकार को उत्तराखण्ड आन्दोलन का स्मरण कराना पड़ रहा है। उस आन्दोलन के पीछे मात्र तीन कारण थे जिनमें से पहला भौगोलिक दूसरा आर्थिक और तीसरा सांस्कृतिक पहचान का था। इनमें से भौगोलिक कारण का अगर समाधान कर दिया होता तो मंत्रियों और नौकरशाहों को जहाज में उड़ कर गैरसैंण नहीं जाना पड़ता। लोगों के लिये आज भी अस्पताल, स्कूल, पीने का पानी और अन्य जरूरी सुविधाऐं इतनी दूर न होती। प्रदेश के कई गावों के लिये पानी 5 किमी से दूर है। इसी तरह 244 गावों के लिये प्राइमरी स्कूल, 2384 गांवों केलिये मिडिल या सीनियर बेसिक स्कूल, 9869 गांवों के लिये बालिका हाइस्कूल, 8671 के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र या ऐलोपैथिक अस्पताल, 1994 के लिये मोटर मार्ग या मुख्य सड़क और 3213 गांवों के लिये डाकघर की दूरी 5 किमी से अधिक है।
उत्तराखण्ड राज्य की मांग के पीछे आर्थिक पक्ष भी एक प्रमुख कारण था। यह कारण अब भी ज्यों का त्यों न होता तो इस तरह सेकड़ों गांव जनसंख्या विहीन नहीं हो जाते और पौड़ी तथा अल्मोड़ा की जनसंख्या बढ़ने के बजाय घटती नहीं जाती। राज्य गठन के समय प्रदेश की राजधानी देहरादून का जनसंख्या घनत्व 415 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. था जो कि 2011 में 550 हो गया। इसी तरह हरिद्वार का जनसंख्या घनत्व 613 व्यक्ति से 817 और उधमसिंहनगर जिले का 486 से 648 व्यक्ति प्रति कि.मी हो गया। जबकि उत्तरकाशी का जनसंख्या घनत्व 41,चमोली का 49 और पिथौरागढ़ का घनत्व 69 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी तक ही पहंुच पाया। जनगणना के आंकणों पर गौर करें तो सन् 1991 और 2001 के बीच उत्तराखण्ड के 45 गांव और 2001 से लेकर 2011 तक 32 गांव जनसंख्या विहीन हो गये। यही नहीं हजारों पहाड़ी गांवों की आबादी आधी रह गयी। हालात इस कदर नाजुक हो गये हैं कि गांव में शव को शमशान ले जाने के लिये 4 युवा कन्धे जुटाना मुश्किल हो गया है। नाबार्ड के स्टेट फोकस पेपर 2010-2011 के अनुसार सरकारों की लापरवाही के कारण विकास की दौड़ में मैदानी जिलों की अपेक्षा पहाड़ी जिले बहुत पीछे हैं। पहाड़ी जिलों में पक्की सड़कों की औसत लम्बाई मात्र 318-78 किमी प्रति हजार वर्ग किमी है तो मैदान में यही अनुपात दोगुने से भी ज्यादा 799 किमी है। पहाड़ी जिलों में जहाँ लगभग 78 प्रतिशत लोगों को पीने के पानी के लिये घरों से बाहर निकलना पड़ता है। वहाँ मैदान में यह सिर्फ 30 प्रतिशत है। पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ 50 प्रतिशत घरों में बिजली है वहीं मैदानी जिलों में 70 प्रतिशत घरों में बिजली है। इसमें चिंताजनक बात यह है कि पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों में विकास की यह खाई लगातार बढ़ रही है।
उत्तराखण्ड की हालत आज यह हो गयी कि पहाड़ के मंत्रियों को गैरसैंण जाने के लिये हवाई जाहज की जरूरत पड़ रही है। नयी राजनीतिक जमीन के लिये हरीश रावत अल्मोड़ा से हरिद्वार आ गये। पूर्व मुख्यमंत्रियों में से भुवनचन्द्र खण्डूड़ी धूमाकोट से कोटद्वार और रमेश पोखरियाल निशंक थलीसैण से देहरादून के डोइवाला में आ गये। डोइवाला पर कांग्रेस के मंत्री हरक सिंह रावत ने पहले ही ताल ठोक दी थी। इसी तरह नैनीताल और हल्द्वानी तथा उनके निकट की सीटों पर पहाड़ी नेता आ कर जम गये हैं।
उत्तराखण्ड आन्दोलन में नारे लगाने के लिये भले ही आज कुछ लोग पंेशन आदि के रूप में भाड़ा मांग रहे हैं। लेकिन तीन दर्जन से अधिक ऐसे आन्दोलनकारी भी रहे जिन्होंने अलग राज्य के लिये अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिये तथा हजारों अन्य ने पुलिस के लाठी डण्डे खाये और लाखों लोग सड़कों पर उतरे थे।यह उन्माद पहाड़वासियों का अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिये ही था। पहाड़वासिों की अपनी संस्कृति पलायन के कारण देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार जैसे शहरों की गलियों में भटक कर विकृत हो गयी है। पहाड़ के लोगों को अपनी संस्कृति देहरादून में नहीं बल्कि गैरसैंण में सुरक्षित नजर आती है। देहरादून में धन्ना सेठों और चकड़ैतों के हाथों न केवल सत्ता बल्कि संस्कृति भी बन्धक हो गयी है।
-- जयसिंह रावत--
ई- 11 फं्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनीए देहरादून।
मोबाइल- 9412324999
फोन-2665384
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