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Tuesday, June 5, 2012


लोकल वार्मिंग से गल रहा है हिमालय

-जयसिंह रावत-
क्योटो प्रोटोकाल से लेकर कानकुन सम्मेलन तक ग्लोबल वार्मिंग का हल्ला अमेरिका और यूरोप से होते हुये हिमालय की कन्दराओं तक गूंजने लगा है। जलवायु परिवर्तन और पारितंत्र का असन्तुलन चिन्ता की लकीरों को लांघ कर फैशन की दुनियां तक भी पहुंच गया है। इसके लिये ग्लोबल वार्मिंग की का हल्ला तो हो रहा है मगर लोकल वार्मिंग का की कहीं कोई बात नहीं हो रही है। गंगोत्री ग्लेशियर पर तो इतना बबाल हो चुका है कि कुछ अति निराशावादियों ने तो गंगा के लुप्त होने की भविष्यवाणी तक कर डाली थी।

स्ंायुक्त राष्ट्र की इन्टर गवर्नमेण्टल पैनल की सन् 2035 तक हिमालयी ग्लेशियरों के गायब होने की भविष्वाणी वाहियात साबित हो गयी और इसके लिये स्वयं पैनल की ओर से क्षमा याचना के साथ ही सफाई भी दे दी गयी। फिर भी सच्चाई तो यही है कि ऐशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के लगभग 9500 ग्लेशियरों में से ज्यादातर हिमनद पीछे हट रहे हैं। ऐसे ग्ल्ेशियरों में ज्यादात छोटे आकार के हैं। इनके पिघलने का कारण ग्रीन हाउस गैस हों या हों मगर लोकल वार्मिंग जैसे स्थानीय कारण तो अवश्य ही हैं।

विश्व विख्यात चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट का कहना है कि नन्दादेवी नेशनल पार्क मंे स्थित त्रिशूल ग्लेशियर 10 मीटर एवं भेथार तोली ग्लेशियर 8 मीटर की रफ्तार से पीछे खिसक रही है। कोलकाता विश्वविद्यालय के डा. एम.के. बंधोपाध्याय द्वारा किये गये ताजा अध्ययन का हवाला देते हुये भट्ट कहते हैं कि इसी प्रकार प्रकार धौली नदी में ईस्ट कामेट 5 मीटर, गगोत्रीं ग्लेशियर 15 मीटर, अलकनन्दा बेसिन में भागीरथी खर्क, सतोपन्थ ग्लेशियर 12 मीटर, गौरी गंगा बेसिन में मिलम ग्लेशियर 13.5 मीटर, पोटिंग ग्लेशियर 5 मीटर तथा संकल्पा ग्लेशियर 23 मीटर प्रतिवर्ष की रफ्तार से पीछे खिसक रहे हैं। उन्होंने हिमाचल प्रदेश के ग्लेशियरों पर अध्ययन कर रहे अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र के डा. कुलकर्णी का हवाला देते हुये यह भी कहा है कि छोटे और मध्यम आकार के चार सौ के लगभग ग्लेशियर या तो समाप्त हो गये हैं या तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
हिमालयी ग्लेशियरों पर अध्ययन में असाधारण योगदान के लिये गत वर्ष अमेरिका की टाइम मैग्जीन द्वारामैन आफ इयरघोषित डा0 डी0पी0 डोभाल के अनुसार हिमालय में 70 प्रतिशत से अधिक ग्लेशियर 5 वर्ग कि.मी. से कम क्षेत्रफल वाले हैं और ये छोटे ग्लेशियर ही तेजी से गायब हो रहे हैं। उनके अनुसार भागीरथी नदी बेसिन के कैचमेण्ट क्षेत्र में कुल 238 ऐसे ग्लेशियर हैं जिनका क्षेत्रफल 5 कि.मी. से कम है, और इन पर ही जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी मार पड़ रही है। इन छोटे ग्लेशियरों के गायब होने से भी हिमालयी नदियों का जल स्तर प्रभावित हो रहा है। लगभग 147 वर्ग कि.मी. में फैले गंगोत्री ग्लेशियर के पीछे खिसकने की गति 20 से 22 मीटर प्रतिवर्ष और 7 वर्ग कि.मी. में फैले डोकरानी की पिघलने की दर 18 से 20 मीटर प्रतिवर्ष है। लेकिन डोभाल यह भी कहते हैं कि सियाचिन जैसे कुछ विशालकाय ग्लेशियरों के पिघलनेकी गति बहुत कम दर्ज हुयी है।

बद्रीनाथ सतोपन्थ और भागीरथी खर्क हिमनद समूह के काफी करीब है।सन् 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग 60 हजार यात्री तीर्थ यात्रा पर पहुंचते थे। बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के रिकार्ड के अनुसार गत वर्ष 9 लाख 71 हजार तीर्थ यात्री हिन्दुओं के इस सर्वोच्च तीर्थ के दर्शन के लिये पहुंचे। समुद्रतल से लगभग 15210 फुट की उंचाई पर स्थित हेमकुण्ड लोकपाल में 1936 में एक छोटे से गुरुद्वारे की स्थापना की गयी। सन् 1977 में वहां केवल 26700 सिख यात्री गये थे, लेकिन गत वर्ष 2011 तक हेमकुण्ड जाने वाले यात्रियों की संख्या लगभग 7 लाख तक पहुंच गयी है। इसी तरह 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी और 1987 में वहां भैरों घाटी का पुल बना तो वहां तब तक लगभग 70 हजार यात्री पहुंचते थे लेकिन गत वर्ष तक गंगोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या 3लाख 75 हजार से उपर चली गयी। हालांकि यमुनोत्री के लिये अब भी लगभग 14 कि.मी. की पैदल यात्रा है, फिर भी वहां पहंचने वाले तीर्थ यात्रियों की संख्या भी 3 लाख 50 हजार तक पहुंच गयी है। समुद्रतल से 6714 मीटर की उंचाई पर स्थित कैलाश मानसरोवर भी अब प्रति वर्ष 500 यात्री पहुंचने लगे हैं।कुल मिला कर देखा जाय तो पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील उत्तराखण्ड हिमालय के इन तीर्थों पर प्रति वर्ष लगभग 20 लाख लोग पहुंच रहे हैं। तीर्थ स्थल ही क्यों ! मसूरी,शिमला और नैनीताल जैसे पर्यटक नगरों में भीड़ बढ़ने से पारितंत्र प्रभावित हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार नैनीताल में सन् 1958 में 1,60,000 पर्यटक पहुंचे थे जिनकी संख्या 1986 तक 7 लाख सालाना तक तक पहुंच गयी। यही हाल मसूरी का भी है। बद्रीनाथ, केदारनाथ ंगंोत्री और यमुनात्री के लिये कभी पैदल यात्रा थी और उनके पड़ावों पर छोटी-छोटी चट्टियां हुआ करती थी। आज ये चट्टियों विशाल नगरों का रूप ले चुकी हैं।

आटोमोबाइल क्रांति से उत्तराखण्ड या हिमालयी क्षेत्र भी अछूते नहीं हैं। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड में डेढ दशक पहले तक मात्र लगभग 1 लाख चौपहिया वाहन पंजीकुत थे जिनकी संख्या अब 9 लाख पार कर गयी है। हालांकि हिमालयी चार धामों की यात्रा सड़क बनने के बाद से ही वाहनो से होती थी, लेकिन तब ज्यादातर यात्री बसों में आते थे। इसलिये वाहनों की इतनी भीड़ नहीं होती थी। लोगों की आय बढ़ गयी है और दो या तीन परिजन या मित्रजन भी बस के बजाय अपनी कारों से सीधे बद्रीनाथ या केदारनाथ की जड़ रामबाड़ा तक पहुंच रहे हैं। ये वाहन सर्वाधिक प्रदूषण फैला कर लोकल वार्मिंग में सबसे बड़ा योगदान दे रहे है। आज यात्रा सीजन में ऋषिेकश से लेकर चार धाम तक के लगभग 1325 कि.मी. लम्बे रास्ते में जहां तहां जाम मिलता है और वाहन खड़े करने की जगह ही बड़ी मुश्किल से मिलती है। खास कर फूलों की घाटी और हेमकुण्ड यात्रा के बेस गोविन्दघाट में यात्रा सीजन में हर समय सेकड़ों वाहन खड़े मिलते हैं। बद्रीनाथ में भी वाहनों के कारण खड़े होने की भी जगह नहीं मिल पाती।

सामान्यतःप्रदूषण के कारकों में सबसे पहले आटोमोबाइल की ही गिनती होती है। खास कर वायु प्रदूषण में वाहनों का धुआं सबसे कुख्यात है। वैज्ञानिकों का मत है कि ये वाहन मैदान की तुलना में पहाड़ पर कम से कम चार गुना प्रदूषण करते हैं।  मैदानों में प्रायः 60 किलोमीटर प्रतिघण्टा चलने वाले वाहन पहाड़ों की चढ़ाइयों और तेज मोड़ों पर पहले और  दूसरे गेयर में 20 किलोमीटर की गति से भी नहीं चल पाते। जिससे उनका ईंधन दोगुना खर्च होता है। इस स्थिति में वाहन केवल कई गुना अधिक धुआं छोड़ते हैं बल्कि इतना ही अधिक वातावरण को भी गर्म करते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि समुद्रतल से उंचाई बढ़ते जाने के साथ ही पर्यावरणीय संवेदनशीलता भी बढ़ती जाती है। हिमालय पर जितना ऊपर आप चढे़ंेगे उतनी ही वर्षा कम होने लगती उत्तराखण्ड की चारधाम यात्रा ऋषिकेश से शुरू होती है, जो कि समुद्रतल से लगभग 300 मीटर की उंचाई पर स्थित है। वाहन यहां से शुरू हो कर समुद्रतल से 3042 मीटर की उंचाई पर स्थित गंगोत्री और 3133 मीटर की उंचाई पर स्थित बद्रीनाथ पहुंचते हैं। केदारनाथ और यमुनोत्री तक यद्यपि मोटर रोड नहीं है फिर भी इन धामों के काफी निकट लगभग 14 कि.मी. पीछे तक वाहन जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक यात्रा सीजन में लगभग 30 हजार वाहन सीधे गंगोत्री पहुचंते हैं। इतने वाहन अगर गोमुख के इतने करीब पहुंचेंगे तो इस ग्लेशियर समूह का पीछे खिसकना स्वाभाविक ही है। इस ग्लेशियर के लिये एक नया संकट यह पैदा हो गया कि पिछले एक दशक तक कांवड़िये हरिद्वार से ही गंगा जल भर कर लौट जाते थे, मगर अब वे जल भरने सीधे गोमुख जा रहे हैं। प्रतिवर्ष इन बेकाबू कांवड़ियों की संख्या 50 हजार तक पहुंच गयी है। यही नहीं  गंगोत्री और गोमुख के बीच जैनेरेटर भी लग गये हैं। जो हालत गंगोत्री की है वही बद्रीनाथ की भी है। वहां यात्रा सीजन में प्रति दिन डेढ हजार तक वाहन पहुंच रहे हैं। बद्रीनाथ के लिये जोशीमठ से गेट सिस्टम है,जिसमें जोशीमठ और बद्रीनाथ से 5 गेट याने कि वाहनों के 5 काफिले छोड़े जाते हैं और प्रत्येक काफिले में लगभग 250 से 300 तक गाड़ियां होती हैं। जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच हनुमान चट्टी से चढ़ाई और मोड़ दोनों ही शुरू हो जाते हैं और वहीं से सर्वाधिक प्रदूषण शुरू हो जाता है। बद्रीनाथ के बाद माणा गांव आता है और उसके बाद सतोपन्थ ग्लेशियर शुरू हो जाता है। आप कह सकते हैं कि बद्रीनाथ से कुछ दूरी से स्थाई हिम रेखा शुरू हो जाती है। यहां यह बात भी ध्यान रखने वाली है कि पेड़े पौधे कार्बनडाइ आक्साइड सोखते हैं और आक्सीजन छोड़ते हैं। लेकिन बद्रीनाथ तक वृक्ष रेखा समाप्त हो जाती है। इसलिये वाहनो द्वारा भारी मात्रा में छोड़ा गया धुआं या कार्बनडाइ आक्साइड सोखने के लिये वहां पेड़ भी नहीं हैं। लगभग यही स्थिति केदारनाथ और यमुनात्री की भी है। गंगोत्री से लेकर बद्रीनाथ तक कालिन्दी पास और घस्तोली होते हुये ट्रैकिंग रूट है जो कि दुनियां के पथारोहियों का स्वर्ग माना जाता है। इस रूट पर भी भीड़ बढ़ने लगी है। इस हिमाच्छादित क्षेत्र में लगभग 5000 मीटर की उंचाई पर कालिन्दी पास है। सबसे बुरा हाल तो हिमाच्छादित सप्तश्रृंगों से घिरी हेमकुण्ड लोकपाल झील और उसके आसपास के इलाके का है। समुद्रतल से 4329 मीटर की उंचाई पर स्थित  इस झील के किनारे विशालकाय गु़रुद्वारा बन गया है। यहां 1997 में केवल 72 हजार यात्री गये थे, लेकिन अब वहां लगभग 5 लाख यात्री मात्र तीन महीनों में जाते हैं। यह स्थान विश्वविख्यात फूलों की घाटी और नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के बीच है। सवाल केवल गंगोत्री और सतोपन्थ का नहीं है। मिलम ग्लेशियर की स्थिति भी मानवीय दखलंदाजी के कारण अच्छी नहीं है। इन ग्लेशियरों की सेहत बिगड़ने का सीधा असर इन पर निर्भर नदियों पर पड़ने लगा है। नदियों का जल स्तर घटने से हिमालयी राज्यों का बिजली उत्पादन भी घट रहा है।

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