मरणासन्न हाल में भारत के सबसे पुराने चाय बागान
-जयसिंह रावत
स्मार्ट सिटी के
लिये जमीन के
चयन को लेकर
उठे विवाद ने
मरणासन्न हालत में
पहुंचे देश के
सबसे पुराने चाय
बागानों में शामिल
रहे उत्तराखंड के
बागानों के जख्मों
को कुरेद दिया
है। कभी सात
समंदर पार बिलायत
तक अपनी जायकेदार
चाय से अंग्रेजों
को मुरीद बनाने
वाले ये बचेखुचे ऐतिहासिक चाय बागान
आज न तो
पूरी तरह जीवित
हैं और ना
ही ये मर
रहे हैं। अलबत्ता
इनको निगलने के
लिये इन पर
न केवल सरकार
की बल्कि भूमि
व्यवसायियों की गिद्ध
दृष्टि अवश्य ही लगी
हुयी है।
ईस्ट इंडिया
कंपनी द्वारा उन्नीसवीं
सदी में असम
के बाद उत्तराखंड
में शुरू किये
गये टी प्लांटेशनों
में से एक
हरबंशवाला आर्केडिया पर राज्य
सरकार स्मार्ट सिटी
बनाने जा रही
है। हालांकि केन्द्र
सरकार ने फिलहाल
राज्य सरकार के
इस प्रस्ताव को
पहली सूची में
नहीं रखा है,
फिर भी इस
चाय बागान की
शामत निश्चित ही
है। इससे पहले
नारायण दत्त तिवारी
के कार्यकाल में
भी इसी चाय
बागान पर प्रेस
कालोनी बनाने का निर्णय
हो चुका था।
बागान के मालिक
पूरे क्षेत्र का
भूउपयोग परिवर्तन करने की
शर्त पर इसके
एक हिस्से को
मुफ्त में देने
को तैयार थे
लेकिन ऐन वक्त
पर इसके खिलाफ
इंडियन एक्सप्रेस में खबर
छपने के बाद
पूरी योजना धरी
की धरी रह
गयी थी। इस
बार तो इस
बागान की खैर
नजर नहीं आ
रही है।
मार्केटिंग
के पुराने घिसेपिटे
तरीके और ट्रांसपोर्ट
में भारी खर्च
आने के कारण
बाजारी मूल्य प्रतिस्पर्धा में
गुणवत्ता के लिहाज
से श्रेष्ठ होते
हुए भी असम,
पश्चिम बंगाल, तमिलनाडू और
केरल के बागानों
की चाय के
मुकाबले बाजार में न
टिक पाने के
कारण उत्तराखंड के
लगभग पौने दो
शताब्दी पुराने ऐतिहासिक बागान
मरणासन्न हालत में
हैं। आज प्रदेश
में देहरादून के
बागानों सहित भीमताल,
कौसानी, इनागिरी, बेरीनाग, रानीखेत,
ग्वालदम और भवाली
आदि के जंगलों
में चाय के
पौधे खरपतवार कीतरह खड़े नजर
आते हैं। आज
हालत यह है
कि इन बचेखुचे
चाय बागानों के
मालिकों को बागानों
की चाय बेचने
के बजाय बागानों
की जमीन बेचने
में ज्यादा मुनाफा
नजर आ रहा
है। लेकिन टी
प्लांटेशन ऐक्ट के
चलते चाय बागान
मालिक न तो
इन्हें बेच पा
रहे हैं और
ना ही इनका
सही रखरखाव कर
रहे हैं। इन
बागानों के प्रति
मालिकोंकी अनिच्छा
के चलते भूमाफियाओं
की ललचाई नजर
इन पर टिकी
हुयी है। चाय
के बागान आज
जहां नीलगिरी की
पहाड़ियों का आकर्षण
दोगुना कर बड़े
पैमाने पर पर्यटकों
को आकर्षित कर
रहे हैं वहीं
मार्केटिंग के आधुनिक
तरीके अपना कर
उन पहाड़ियों की
चाय देश विदेश
में धूम मचा
रही है। कोन्नूर
से लेकर डोडाबेटा
और ऊटी तक
“टी पार्कों” में
देशी विदेशी पर्यटकों
का हुजूम देखा
जा सकता है।
दरअसल वहां का
पर्यटन ही वहां
की चाय की
मार्केटिंग और शोकेशिंग
भी कर रहा
है। नीलगिरी की
तरह असम के
मनास राष्ट्रीय पार्क
में प्रवेश द्वार
पर ही आपका
स्वागत चाय बागान
करता है। हर
जगह चाय बागान
और पर्यटन एक
दूसरे के पूरक
नजर आते हैं।
इन चाय बागानों
में फिल्मों की
शुटिंग भी खूब
होती है। जबकि
उत्तराखंड के बागानों
से रौनक को
गायब हुये तो
एक अर्सा बीत
ही चुका है
और अब इन
में बीरानगी ही
बीरानगी छायी नजर
आती है।
मालिकों के लियेबोझ साबित हो
रहे इन बागानों
पर केन्द्र और
राज्य सरकार की
गिद्ध दृष्टि केवल
आज ही टिकी
हो, ऐसा नहीं
है। इससे पहले
देहरादून के मोहकमपुर
में केन्द्र सरकार
ने चाय बागान
की जमीन अधिग्रहित
कर उसमें भारतीय
पेट्रोलियम संस्थान का विशाल
भवन और संस्थान
के कर्मचारियों की
कालोनी बनवा डाली
थी। उसके बाद
देहरादून टी गार्डन
की 256 एकड़ जमीन
1981 में भारतीय सैन्य अकादमी
के हवाले कर
दी गयी। इस
मामले में तत्कालीन
उत्तर प्रदेश सरकार
भी कहां पीछे
रहने वाली थी?
उसने भी बंजारावाला
टी एस्टेट को
टिहरी बांध विस्थापितों
के लिये अधिग्रहित
कर दिया। देहरादून
की गोरखपुर टी
एस्टेट की कब्रगाह
पर डिफेंस कालोनी
की इमारतें उग
आयी हैं।
इसी तरह कुमाऊं
के बेरीनाग चाय
बागान की फैक्ट्री
की जगह एक
आवासीय कालोनी बन गयी
है। अब बेरीनाग
टी कंपनी ध्वस्त
हो चुकी है
एवं चौकोड़ी बागान
में चाय के
पुराने पौंधों से ही
थोड़ी मात्रा में
चाय का उत्पादन
होता है। देहरादून
की ताजी आबोहवा
तो पहले से
ही देश विदेश
के लोगों को
आकर्षित कर रही
थी लेकिन सन्
2000 में यहां राजधानी
बनने के बाद
जमीनों के भाव
आसमान छूने लगे
हैं और इस
स्थिति में सबकी
निगाह इन बागानों
पर टिकी हुयी
है। ये बागान
जो कभी आबादी
से काफी दूर
होते थे, आज
ये आबादी से
घिरे हुये हैं
और कहीं-कहीं
तो आबादी और
सरकारी संस्थान बागानों के
अंदर ही घुस
गये हैं। इनमें
कई बागानों का
अब अस्तित्व के
रेवेन्य रिकार्ड तक ही
सीमित है।
सन्
1863-64 में आयी डेनियल
की पहली भूबंदोबस्त
रिपोर्ट के अनुसार
उस समय देहरादून
में 1700 एकड़ में
चाय बागान लगे
थे। जीआरसी विलियम्स
के ’मेम्वॉयर ऑफ
दून’ में छपे
एक विवरण के
अनुसार 1870 तक देहरादून
जिले में आर्केडिया,
हरबंशवाला, एनफील्ड, बंजारावाला, लखनवाला,
कॉलागढ़, गुडरिच, न्यू गुडरिच,
वेस्टहोपटाउन, निरंजनपुर, अम्बाड़ी, रोजविले,
चार्लविले, हरभजनवाला, गढ़ी, दुरतावाला
और अम्बीवाला, नत्थनपुर,
धूमसिंह का प्लांटेशन
और निरंजनपुर नाम
के 19 चाय बागान
थे जो कि
2024.2 एकड़
में फैले हुये
थे और इन
बागानों से लगभग
2,97,828 पौंड चाय का
उत्पादन होता था।
उसके बाद देहरादून
के चाय बागानों
की सख्या 73 तक
पहुंच गयी थी
लेकिन आजादी के
बाद चाय उद्योग
के पतन की
शुरुआत के साथ
ही सन् 1951 तक
यहां के बागानों
की संख्या घट
कर 45 और क्षेत्रफल
सिमट कर 2805 हेक्टेअर
तथा सन् 1982 तक
बागानों की संख्या
31 और उनका क्षेत्रफल
घट कर 1804 हेक्टेअर
रह गया था।
उन्नीसवीं सदी के
अंत तक स्थापित
कुल 19 चाय बाागनों
में से आज
एक दर्जन बागान
भी मौजूद नहीं
हैं और जो
मौजूद हैं भी
वे मरणासन्न हालत
में हैं।
एक जमाना था जबकि
अग्रेज भी उत्तराखंड
की चाय के
जायके के दीवाने
होते थे। देहरादून
की चाय की
महक ब्रिटेन तक
पहुंचती थी। इसीलिये
ईस्ट इंडिया कंपनी
ने असम के
बाद उत्तराखंड को
चाय बागान के
लिये चुना था।
असम के बारे
में कहा जाता
है कि वहां
सिंगपो लोग प्राचीन
काल से चाय
निष्कर्षण या बनाने
का काम करते
थे। वहां अहोम
राजाओं के शासनकाल
से जंगली चाय
के पौधों से
पेय बनता था।
1826 की यांडबू संधि के
बाद अंग्रेजों ने
चाय बागान अपने
हाथ में ले
लिये। सन् 1823 में
राबर्ट ब्रूस ने वहां
के जंगली चाय
के पौधों को
चीनी चाय की
नस्ल के ही
पौधे माना था।
इन पौधों की
वकालत पहले भारतीय
चाय बागवान मनीराम
दीवान ने अंग्रेजों
से की थी।
उसी दौरान सहारनपुर
बॉटेनिकल गार्डन के अधीक्षक
डा0 रॉयले की
पहल पर उत्तराखंड
में भी चाय
बागान लगाने की
संभावनाएं तलाशी गयीं। यहां
बाहरी हिमालय की
पर्वत श्रेणियों और
घाटियों में जंगली
“कमेलिया साइनेंसिस” के पौधों
को भी चीनी
मूल की चाय
के पौधे माना
गया।
वास्तव में सहारनपुर
बॉटेनिकल गार्डन के अधीक्षक
डा0 रॉयले ने
1827 में सबसे पहले
उत्तराखंड हिमालय के बाहरी
क्षेत्र में चाय
बागान लगाने की
सिफारिश कंपनी सरकार से
की थी। एटकिंसन
के हिमालयन गजेटियर
और जी.आर.सी. विलियम्स
के मेम्वॉर ऑफ
दून जैसे दस्तावेजों
के अनुसार जब
1831 में गर्वनर जनरल लॉर्ड
बेंटिंक सहारनपुर पहुंचा तो
उससे भी डा0
रॉयले ने यही
सिफारिश की। उसी
दौरान डा0 वालिच
ने हाउस ऑफ
कॉमन्स की भारत
संबंधी कमेटी के समक्ष
भी गढ़वाल, कुमाऊं
और सिरमौर जिलों
में चाय बागन
लगाने की मांग
के लिये प्रस्तुतीकरण
दिया। डा0 रॉयले
ने 1833 में अपनी
पुस्तक ’बॉटनी ऑफ हिमालयन माउंटेंस’
की भूमिका में
भी इसकी चर्चा
की थी। डा0
रॉयले ने 1834 में
देहरादून के राजपुर
और मसूरी के
बीच झड़ीपानी क्षेत्र
को चाय बागन
लगाने के लिये
उपयुक्त बताया था और
उसी दौरान लॉर्ड
बेंटिंक ने कोर्ट
ऑफ डाइरेक्टर्स की
संस्तुति पर भारत
में चाय उद्योग
की संभावनाओं और
विस्तृत प्लान तैयार करने
के लिये एक
कमेटी का गठन
कर लिया। इस
कमेटी ने भी
हिमालय के बाहरी
क्षेत्र की पहाड़ियों
और घाटियों में
पायी जाने वाले
जंगली पौधों को
चीनी चाय के
पौधों की ही
नस्ल का बताया।
इस कमेटी की
सिफारिश पर 1835 में बोहियो
चाय के पौधों
के बीजों से
पैदा नयी पौध
को अनुकूल जिलों
में वितरित किया
गया।
जब उत्तराखंड हिमालय को
भी असम के
साथ ही चाय
बागान लगाने के
लिये उपयुक्त पाया
गया तो डा0
रॉयले के उत्तराधिकारी
डा0 फाल्कोनर ने
प्रयोग के तौर
पर ब्रिटिश गढ़वाल
जिले को चाय
बागान लगाने के
लिये चुना। इसी
दौरान सन् 1838 में
डा0 फाल्कोनर ने
अपने पूर्ववर्ती डा0
रॉयले को सूचित
किया कि गढ़वाल
की कोठ नर्सरी
में उगाये गये
पौधों के बीज
सहारानपुर बॉटेनिकल गार्डन में
भी उग गये
हैं। उन्होंने देहरादून
में बागान के
लिये अनुकूल माना।
लेकिन डा0 रॉयले
झड़ीपानी को ही
सर्वोत्तम मानते रहे। अन्ततः
1844 में देहरादून कस्बे के
निकट कौलागढ़, जो
कि आज देहरादून
शहर का ही
एक हिस्सा है,
में डा0 जेम्सन
की देखरेख में
400 एकड़ जमीन पर
असम के बाहर
पहला चाय बागन
लगाने का काम
शुरू हुआ। सन्
1850 में कंपनी सरकार ने
देहरादून के बागान
की प्रगति की
समीक्षा के लिये
मिस्टर फार्चून को नियुक्त
किया। उसने कई
प्लाटेशन देखे और
एक नकारात्मक रिपोर्ट
सरकार को भेज
दी जिसमें कहा
गया कि यहां
के प्लांटेशन में
चीन के चाय
बागानों की जैसी
रंगत नहीं है।
ये अच्छी क्वालिटी
के नहीं हैं।
उसी फार्चून ने
दुबारा 1856 में सरकार
को रिपोर्ट भेजी
कि देहरादून के
बागान किसी भी
दृष्टि से चीन
के बागानों से
कमतर नहीं हैं।
ईस्ट इंडिया कंपनी के
शासन में जब
देहरादून में चाय
उद्योग जम गया
तो कौलागढ़ वाला
पहला चाय बागान
20 हजार ब्रिटिश पौंड में
सिरमौर के राजा
को बेच दिया
गया। उस समय
जेम्सन का अनुमान
था कि देहरादून
जिले में एक
लाख एकड़ में
चाय बागान लगा
कर एक करोड़
पौंड चाय का
उत्पादन किया जा
सकता है।
आज चीन के
बाद भारत विश्व
का दूसरा सबसे
बड़ा चाय उत्पादक
देश है। भारत
के 16 राज्यों में
चाय के बागान
हैं। इनमें से
भी असम, पश्चिम
बंगाल, तमिलनाडू और केरल
में देश का
95 प्रतिशत चाय उत्पादन
होता है। हैरानी
का विषय यह
है कि जिस
उत्तराखंड हिमालय से अंग्रेजों
ने चाय उद्योग
की शुरुआत की
थी और जिसकी
चाय के दीवाने
दुनियाभर में होते
थे, उस उत्तराखड
का चाय प्रमुख
उत्पादकों में कहीं
नाम नहीं है।
उत्तराखंड के चाय
विकास बोर्ड ने
इस क्षेत्र में
नयी शुरुआत तो
की है मगर
उसकी इस पहल
में उत्साह और
संकल्प का घोर
अभाव नजर आ
रहा है। राज्य
सरकार के बोर्ड
ने प्रदेश के
13 में से 8 पहाड़ी
जिलों में कुल
676 हेक्टेअर क्षेत्र में बागान
लगाये हैं जिनसे
पिछले साल 1,75,590 किलोग्राम
चाय पत्तियों की
तुड़ाई हुयी और
इन पत्तियों से
18,683 किलोग्राम चाय का
उत्पादन हो सका।
बिक्री मामले में भी
चाय बोर्ड फिसड्डी
ही साबित हुआ।
वह कुल उत्पादित
चाय का लगभग
पांचवां हिस्सा याने कि
मात्र 3500 किग्रा ही बेच
पाया। इसके अलावा
उसके पास पिछले
साल की 6196 किग्रा
चाय बिना बिके
बची हुयी थी।
बोर्ड के कर्मचारी
इस निठल्लेपन के
लिये धनाभाव को
जिम्मेदार बताते हैं।
जयसिंह रावत-
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स
एन्क्लेव,
शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल
09412324999
jaysinghrawat@gmail.com