उत्तराखंड की पत्रकारिता
में ’समदर्शी’ का
न रहना
-जयसिंह रावत-
बसंत पंचमी हो या
महाशिवरात्रि, उमा शंकर
थपलियाल दोनों पर्वों पर
नरेन्द्रनगर और ऊखीमठ
में मौजूद रहते
थे, ताकि बदरीनाथ
और केदारनाथ के
कपाट खुलने की
सूचना देशभर के
अपने पत्रकार साथियों
को दे सकें।
दशकों से चला
आ रहा यह
क्रम तब भी
जारी रहा जब
वह बदरी-केदार
मंदिर समिति से
प्रचार अधिकारी के तौर
पर सेवा निवृत
हो गये थे
और बाद में
संवाद समिति यूएनआइ
और आकाशवाणी से
भी विदा हो
चुके थे। इस
शिवरात्रि पर भी
हमें उम्मीद थी
कि उमा शंकर
थपलियाल, जिन्हें हम ’उमा
भैजी’ के संबोधन
से पुकारते थे,
हमंे फोन से
ऊखीमठ से अवगत
करायेंगे कि केदारनाथ
के कपाट कब
खुल रहे हैं।
लेकिन उनके द्वारा
केदारनाथ के कपोद्घाटन
की सूचना तो
नहीं मिली मगर
उल्टे उनके और
उनके पत्रकार बेटे
भवानी शंकर के
न रहने की
मनहूस सूचना ने
हमारे महाशिवरात्रि पर्व
के उलास को
मातम में बदल
दिया।
उमा शंकर भैजी
शिव के अनन्य
शिवभक्त थे और
शिवरात्रि पर ही
उनका निधन हो
गया। वह भी
अकेले नहीं बल्कि
उनके साथ उनके
बेटे भवानी ’शंकर’
भी चल बसे।
उन्होंने बेटों को सामान्य
नाम के साथ
’शंकर’ का नाम
भी दिया था।
यह विचित्र संयोग
जब दिमाग में
घूमता है तो
लगता है जैसे
कि हम थॉमस
हार्डी का कोई
उपन्यास पढ़ रहे
हों या फिर
’जिन्दगी को एक
रंगमंच और आदमी
को उस रंग
मंच पर भूमिका
अदा करने वाला
पात्र’ बताने वाले विलियम
शैक्सपीयर का कोई
नाटक देख रहे
हों। वास्तव में
उमा शंकर थपलियाल
जीवन के इस
रंगमंच पर अपनी
भूमिका को अदा
कर चले गये
मगर शुभ चिंतकों
को जिन्दगीभर हंसाते-हंसाते आखिर में
रुला कर चले
गये।
कुछ ही दिन
पहले मुझे श्रीनगर
गढ़वाल से सीताराम
बहुगुणा जी और
अरुण कुकसाल जी
का पत्र मिला
था, जिसमें लिखा
गया था कि
वे लोग डा0
उमा शंकर थपलियाल
“समदर्शी” के व्यक्तित्व
और कृतित्व पर
एक अभिनंदन ग्रंथ
प्रकाशित करने जा
रहे हैं। चूंकि
“समदर्शी” जी के
उस जमाने के
कई साथी अब
नहीं रह गये
थे, शायद इसलिये
अभिनंदन ग्रंथ के प्रकाशकों
को मेरा नाम
याद आया होगा।
बहरहाल उसके कुछ
दिन बाद मुझे
उमा भैजी का
फोन आया तो
मैंने सोचा कि
वह लेख के
बारे में जानना
चाहते होंगे। मगर
ऐसा नहीं था।
उनका कहना था
कि उन्हें बी.डी. शर्मा
के बेटे की
शादी का कार्ड
मिला है और
उनके दो मित्र
बीडी शर्मा हैं।
मैंने उन्हें सही
बीडी शर्मा की
जानकारी दी तो
फिर कहने लगे
कि ”चलो ठीक
है परसों शादी
में मिलते हैं”। लेकिन
हमारी अंतिम मुलाकात
का संयोग जिंदगी
के रंग मंच
की ’स्क्रिप्ट’ लिखने
वाले ने लिखा
नहीं था। समारोह
में मेरे पहुंचने
से पहले वह
जा चुके थे।
वह सभी के
सुख दुख में
जरूर शामिल होते
थे।
उमा शंकर थपलियाल
वास्तव में एक
यायावर थे। एक
जगह ठहरना उनकी
फितरत में नहीं
थी। इस यायावर
का उस दिन
अपने परिवार के
साथ श्रीनगर में
रहना भी एक
संयोग ही था।
वह गढ़वाल में
आकाशवाणी और यूएनआइ
के पीटीसी थे
मगर जब 1971 के
युद्ध के बाद
इंदिरा गांधी और जुल्फिकार
अली भुट्टो के
बीच शिमला समझौता
हुआ तो वह
शिमला जा पहुंचे।
मेरे पास ऐसे
पचासों उदाहरण हैं जब
वह असाधारण परिस्थितियों
में समाचार की
खोज में कहीं
भी पहुंच जाते
थे। पत्रकारिता के
प्रति ऐसा समर्पण
मैंने किसी और
में नहीं देखा।
नेशनल यूनियन ऑफ
जर्नलिस्ट (एनयूजे) के सम्मेलनों
में जब हम
दोनों देशभर में
जाते थे तो
उनके साथ हमेशा
बदरीनाथ का प्रसाद
गंगा जल होता
था। हम लोग
सम्मेलन से वापस
लौट जाते थे
तो वह उस
प्रदेश के अपने
यजमानों को प्रसाद
बांट कर ही
लौटते थे।
बात नवम्बर 1978 की है
जब मैं पहली
बार एक पत्रकार
के रूप में
गौचर मेले में
उमा शंकर थपलियाल
से मिला था।
गौचर मेले में
जिला प्रशासन की
ओर से प्रेस
कान्फ्रेस रखी गयी
थी जिसमें थपलियाल
जी को भी
आकाशवाणी और यूएनआइ
संवाददाता के तौर
पर बुलाया गया
था। मैंने पहली
बार उनको तत्कालीन
जिला अधिकारी रायसिंह
(जो बाद में
उत्तर प्रदेश के
प्रमुख सचिव पद
से रिटायर हुये)
और पुलिस कप्तान
चंदोला जी पर
सवालों की बौछार
करते देखा। उसी
गौचर मेले में
पहली बार मैंने
उनके व्यक्तित्व का
साहित्यिक चेहरा वहां आयोजित
कवि सम्मेलन में
देखा था। चूंकि
पहाड़ों में लड़कों
की दाढ़ी मूछें
देर से निकलती
थीं, इसलिये मैं
बालिग हो जाने
के बाद भी
उनको किशोर नजर
आता था। उन्होंने
मुझे पत्रकारिता जीवन
के संघर्षों से
डराने के बजाय
मेरा हौसला बढ़ाया।
उन दिनों उमा
भैजी श्रीनगर से
समाचार भेजते थे और
मेरी तैनाती गोपेश्वर
में थी। संवाद
प्रेषण में मुझे
उनसे काफी कुछ
सीखने को मिला।
उन दिनों उत्तराखंड
में पत्रकारिता शिक्षा
का कोई संस्थान
न होने के
कारण अपने वरिष्ठ
पत्रकारों से ही
पेशे के गुर
सीखने होते थे।
मैं कुछ महीने
ही देहरादून में
अखबार के मुख्यालय
पर संपादक एस.पी.पांधी
जी से कामचलाऊ
प्रशिक्षण ले पाया
और बाकी का
क, ख, ग,
आकाशवाणी के उमा
शंकर थपलियाल, नवभारत
टाइम्स के चंडी
प्रसाद भट्ट, हिन्दुस्तान के
राधाकृण वैष्णव, पीटीआइ के
सुदर्शन कठैत, देवभूमि के
राम प्रसाद बहुगुणा
जैसे उस दौर
के पत्रकारों की
शागिर्दी में ही
सीखना पड़ा। संपादन
कला के बारे
में मैं रमेश
पहाड़ी जी से
प्रभावित था। उन
दिनों इस सूचना
और संचार महांक्रांति
की कल्पना तक
नहीं की गयी
थी। इसलिये समाचार
प्रेषण टेलीग्राम द्वारा होता
था। टेलीग्राम द्वारा
समाचार भेजने में शब्दों
की बहुत कंजूसी
करनी होती थी।
इसलिये कम से
कम शब्दों में
अधिक से अधिक
लिखने का पाठ
मैंने इन्हीं वरिष्ठ
पत्रकारों से सीखना
शुरू किया था।
हालांकि उन दिनों
गोपेश्वर में सुदर्शन
कठैत ही पीटीआइ
के अधिकृत संवाददाता
(पीटीसी) हुआ करते
थे, लेकिन ऐजेंसी
मेरे द्वारा भेजे
हुये समाचार भी
लेती थी। इस
लिहाज से मुझे
न केवल कठैत
जी से बल्कि
श्रीनगर में बैठे
यूएनआइ और आकाशवाणी
संवाददाता उमा शंकर
थपलियाल से भी
प्रतिस्पर्धा करनी होती
थी। मुझे कई
बार हैरानी तब
होती थी जब
श्रीनगर में बैठे
उमा शंकर थपलियाल
द्वारा भेजा गया
चमोली जिले का
समाचार अखबारों में छप
जाता था और
गोपेश्वर में बैठे
मैं तथा कठैत
जी देखते ही
रह जाते थे।
दरअसल उस जमाने
में अलकनंदा घाटी
का मुख्य तार
घर श्रीनगर गढ़वाल
में ही था
और चमोली के
डाकघरों में बने
तार केन्द्रों के
टेलीग्राम वाया श्रीनगर
ही आगे बढ़ते
थे। जब तक
हमारे तार श्रीनगर
पहुंचते तब तक
उमा शंकर जी
का तार दिल्ली
पहुंच चुका होता
था। मैं जब
डेस्क पर वापस
लौट गया तो
वह यूएनआइ को
भेजे गये तार
की प्रतियां छापने
के लिये डाक
से मुझे भेज
दिया करते थे।
कैपिटल शब्दों में लिखी
गयी उनकी हैंड
राइटिंग आज भी
मानस पटल पर
घूम जाती है।
भैजी, उमा शंकर
पत्रकार और जन
संपर्क अधिकारी के अलावा
श्रीनगर गढ़वाल में डालमिया
धर्मशाला के प्रबंधक
भी हुआ करते
थे। इसलिये श्रीनगर
में हम लोगों
की आवासीय समस्या
तो हल हो
ही जाती थी
मगर वहां पत्रकारों
की बैठकों की
व्यवस्था भी वही
कर लेते थे।
एक बार श्रीनगर
में उमा भैजी
ने ही मुझे
हेमवती नंदन बहुगुणा
से मिलवाया था।
उससे पहली रात
उन्होंने मेरे ही
सामने “निर्मोही” जी के
साथ गढ़वाल मंडल
विकास निगम के
बंगले पर बहुगुणा
जी द्वारा स्थापित
दलित मजदूर किसान
पार्टी (दमकिपा) के सम्मेलन
के लिये राजनीतिक
प्रस्ताव तैयार किया था।
उन्होंने गढ़वाल की पत्रकारिता
के इतिहास विषय
पर डाक्टरेट की
थी। बाद में
इसी विषय पर
उन्होंने किताब भी लिखी।
मैं किताब की
संदर्भ सूची (बिवलियोग्राफी) में
अपना नाम न
पाकर नाराज था।
उनका व्यक्तित्व ऐसा
था कि गुस्सा
खुद ही फुस्स
हो जाता था।
वह कभी गुस्सा
नहीं करते थे।
मुझे वह ’खस
बुद्धि’का इंसान
कह कर डांटते
थे और गुस्से
पर काबू रखने
की नसीहत देते
रहेते थे। पिछले
साल गैरसैण में
विधानसभा सत्र के
लिये जाते समय
मैं उन्हें बताये
बगैर श्रीनगर से
निकल गया था,
इसलिये वह थोड़ा
नाराज तो हुये
मगर गैरसैंण में
वह एक हल्की
सी डांट पिला
कर सामान्य हो
गये। यही नहीं
जब वहां एक
संस्था ने मुझे
और उनको लाइफ
टाइम अचीवमेंट के
लिये मुख्यमंत्री के
हाथों सम्मानित कराया
तो वह अपने
साथ मुझे पाकर
गदगद हो उठे।
पत्रकारिता को मिशन
मानने वाली उस
पीढ़ी के लोग
एक-एक कर
विदा हो रहे
हैं। इन पुराने
पत्रकारों के एक-एक कर
जाने के साथ
ही मिशनरी पत्रकारिता
भी अतीत की
बात होती जा
रही है।
------ जयसिंह
रावत-----
ई-11 फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-09412324999