चाय के प्याले में डूबा आपदा का मुद्दा
- जयसिंह रावत-
कितनी हैरानी की बात है कि इस देश में एक आदमी की चाय और उसकी पत्नी पक्ष और विपक्ष के लिये चुनावी मुद्दे तो बन सकते हैं, मगर लाखों लोगों के जीवन पर मंडराता दैवीय आपदाओं का खतरा अनसुना रह जाता है। यही नहीं चुनावी मुद्दे उनकी गंभीरता के आधार पर नहीं बल्कि वोट वैल्यू और मिलने वाली सीटों की संख्या के आधार पर तय किये जाते हैं।
अगर आप इन दिनों मचे चुनावी शोर शराबे को गौर से सुनें तो आप भी भूल जायेंगे कि पिछले ही साल उत्तराखण्ड में अकल्पनीय दैवी आपदा आई थी। जबकि केदारघाटी में हजारों लोगों की चीत्कारें आज भी लोगों के कान के परदों से दूर नहीं जा हो पा रही हैं। उत्तराखण्ड ही क्यों? इस चुनावी शोर में लोग बिहार में कोसी नदी की बाढ़ को भूल गये और मोदी की चाय की खुमारी में गुजरात के लोग भुज की भूकम्प की विभीषिका को ही हजम कर गये। इतने विशाल देश में जहां एक साथ लोग सूखा और बाढ़ की विभीषिकाओं को झेलते हैं वहां पर दैवीय आपदा कोई मुद्दा ही नहीं है। हर साल मरने वाले हजारों आम लोगों की कोई गिनती नहीं है। अगर आप अपनी गिनती चाहते हैं या राजनीतिक ऐजेंडों में अपना स्थान चाहते हैं तो आपको हिन्दू या मुसलमान या अन्य धार्मिक और जातीय समुदाय के तौर पर स्वयं को राजनीतिक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराना पड़ेगा। आपका भारतवासी होना काफी नहीं है।
जून का महीना करीब आ रहा है। पिछले साल 16 और 17 जून की याद कर उत्तराखण्ड में लोगों की रूह कांपने लगती है। ज्यों-ज्यों जून का महीना करीब आ रहा है, लोगों का मन विचलित होता जा रहा है। लोग आशंकित हैं कि न जाने इस बार किस इलाके में आसमान कहर बरपा दे। पिछले साल जो हुआ सो तो सारी दुनिया ने देख लिया। मगर उत्तराखण्ड में ऐसी कोई बरसात याद नहीं आती है, जबकि यहां सौ से अधिक लोग दैवीय आपदा में काल के ग्रास न बनें हों। पिछले साल तो वो हो गया जिसकी कल्पना कभी नहीं की गयी थी। किसी ने कभी नहीं सोचा था कि केदारनाथ में बाढ़ आ जायेगी। चौराबाड़ी ताल और ग्लेशियर पर बादल फटने की बात आज भी विज्ञानियों को पूरी तरह हजम नहीं हुयी है। क्योंकि हिमालय पर ऊंचाई बढ़ने के साथ ही वर्षा कम होती जाती है। समुद्रतल से लगभग 5 हजार मीटर की ऊचांई पर स्थित स्थाई हिम रेखा तो वर्षा के लिये वो लक्ष्मण रेखा है जिसे पार करना उसके लिये वर्जित है। पिछले अनुभवों को देख कर सवाल उठ रहा है कि अगर पिछले साल 15 दिन पहले मानसून आ कर इतनी तबाही कर सकता है तो इस साल या आने वाले सालों में उसके समय से पहले न आने की क्या गांरटी है? अगर पिछले साल मानसून हिमालय पर हिमरेखा से ऊपर चढ़ गया तो इस बार या अगले साल क्यों नहीं चढ़ सकता है? इन माम आशंकाओं पर गौर करने के बजाय राजनीतिक जमात मोदी की चाय के प्याले के तूफान के भंवर में फंसे हुये हैं।
निश्चित रूप से देश के सामने एक से बढ़ कर एक चुनौतियां हैं और उत्तराखण्ड या कोई अन्य हिमालयी राज्य इन राष्ट्रीय चुनौतियों से अलग नहीं है। लेकिन जब जान ही आफत में हो तो आदमी सबसे पहले अपनी जान बचाने की ही सोचता है। उत्तराखण्ड के लोग जानना चाहते हैं कि आखिर राजनीतिक दलों के पास ऐसी कौन सी सोच है जिसके तहत वे इन पहाड़ों का जीवन सुरक्षित और कष्ट रहित सुनिश्चित कर सकें। केवल एक चोराबाड़ी ताल ने केदारघाटी पर कहर बरपा दिया। उत्तराखण्ड में सतोपन्थ, डोडीताल, मासरताल जैसी लगभग 40 झीलें और सरोवर हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो मालूम पड़ता है कि 1803 में अलकनंदा की बाढ़ से श्रीनगर गढ़वाल में काफी जन-धन की हानि हुई। 1868 में बिरही नदी में जिंजी गांव भीषण बाढ़ से तबाह हो गया। 1880 में चमोली, लालसांग में बाढ़ से दो पुल और करीब 70 यात्री बह गए। 1893 में अलकनंदा की सहायक नदी बिरही के पास गौणा गांव के किनारे पहाड़ी टूटने से 300 मीटर उंची और पांच किलोमीटर लम्बी झील बनी थी जो एक साल बाद टूटी। 1930 में बद्रीनाथ में ग्लेशियर टूटने से बनी झील के टूटने के कारण भीषण बाढ़ आई। 1970 में अलकनंदा की सहायक नदी बिरही में प्रलयंकारी बाढ़ से कई बाजार और बस्तियां तबाह हो गए। 1998 में उखीमठ के पास मनसूना में मंदाकिनी में एक किलोमीटर की झील बनी थी। नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को हुये भूस्खलन में 151 लोगों की जानें चलीं गयीं थी। सन् 1998 की मालपा खसदी को लोग अभी तक नहीं भूले जिसमें प्रख्यात नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी समेत लगभग 250 लोग मारे गये थे। उसी साल केदारघाटी के मनसूना में भूस्खलन से 68 लोग मारे गये थे। सन! 1978 में उत्तरकाशी में कनोडिया गाड़ में भूस्खलन से 25 लोग मारे गये थे। केदारघाटी में तो हर साल आपदा आ रही है।
सवाल केवल बाढ़ का नहीं है। उत्तराखण्ड भूकंपीय जोखिम की दृष्टि से सबसे संवेदनशील जोन 5 और जोन 4 में स्थित है। हिमालय के इस हिस्से में पांच बड़े भ्रंश या दरारें हैं। इसका सबसे अधिक हलचल माचाने वाला भ्रंश एमसीटी या मुख्य केन्द्रीय भं्रश ठीक इसके मध्य से वार-पार होता है। यहां नब्बे के दशक में उत्तरकाशी और चमोली के विनाशकारी भूचाल आ चुके हैं जिनमें लगभग 9 सौ से अधिक लोग अपने ही घरों में जिन्दा दब गये थे। भूगर्ववेत्ता कहते हैं कि ये भूचाल तो बहुत ही छोटे थे। उनका मानना है कि पिछले सौ सालों से अधिक अवधि से इस हिमालयी क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय उर्जा का काफी अधिक संचय धरती के नीचे हो रखा है जो कि कभी भी बहुत बड़े भूकंप के रूप में फट कर बाहर निकल सकती है। विज्ञानियों का यह भी कहना है कि अगर इतना बड़ा भूचाल आ गया तो इस इलाके में कोई भी इमारत खड़ी नहीं रह सकती, और सारा जग जानता है कि आदमी को भूचाल नहीं बल्कि अपनी आश्रय के लिये बनाया गया घर ही उसे दबा कर मार डालता है। देहरादून और हरिद्वार जैसे नगरों में अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाले कई ऐसे इलाके हैं जहां कई दिनों तक रेस्क्यू वर्कर नहीं पहुंच सकते हैं।
भूकंप की दृष्टि से जापान सबसे संवेदनशील माना जाता है। वहां आपदा प्रबन्धन की व्यवस्था इतनी कारगर है कि जितने बड़े भूकंप आते हैं उतनी जनहानि नहीं होती। पिछले ही साल वहां जिस तरह सुनामी ने कहर ढाया अगर वह नौबत भारत में आती तो लाखों लोग मारे जाते। लकिन जापान में ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज लगता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहो। ऐसी व्यवस्था भारत में इसलिये नहीं होती क्योंकि यहां मोदी की चाय का महत्व तो है मगर लोगों की जानोमाल का नहीं। सवाल केवल रेस्क्यू या त्वरित बचाव का ही नहीं बल्कि पुनर्वाास का भी है। गत वर्ष की हिमालयी सुनामी की तबाही के बाद उम्मीद जगी थी कि जो कस्बे और गांव तबाह हो गये उनकी जगह नये आधुनिक गांव और सुरक्षित कस्बे उभर कर सामने आयेंगे। ऐसा लग रहा था कि अब उत्तराखण्ड का नक्शा ही बदल जायेगा। राज्य सरकार ने विश्व बैंक की पहल पर कई संवेदनशील गावों का भूगर्वीय सर्वे भी कराया था। उनकी जगह नये क्लस्टर गांव स्थापित करने की घोषणा भी की गयी थी। कहा गया था कि पहाड़ों में ही पुराने गावों के पास आधुनिक सुविधाओं से युक्त इन गावों के अस्तित्व में आने के बाद मैदान की ओर पलायन भी रुक जायेगा। यह भी उम्मीद की जा रही थी कि अब पहाड़ों में नये कस्बों और नये गावों के साथ ही नयी सड़कें बनेंगी और पर्यटन के नये आकर्षण विकसित होंगे। लेकिन सरकार की घोषणाएं धरातल पर नहीं उतर सकीं। भाजपा के नरेद्र मोदी ने 15 दिसम्बर 2013 को देहरादून के परेड मैदान में अपनी शंखनाद रैली में बड़ी-बड़ी बातें की थी, मगर वह प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वायदे भूल गये।
उत्तरखण्ड देश का एक सीमान्त प्रदेश है। इससे लगी हुयी लगभग 600 किमी लम्बी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के पार चीन तथा नेपाल देश हैं। रोगजगार, शिक्षा और चिकित्सा के लिये अब तक पहाड़ों से मैदानों के लिये जनसंख्या का पलायन होता था। इसलिये पौड़ी एवं अल्मोड़ा जैसे जिलों की जनसंख्या बढ़ने के बजाय घट गयी। लेकिन अब हर साल आपदा के कारण लोग जान बचाने के लिये भी पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित ज्यादातर गांव तेजी से खाली हो रहे हैं। पिछले साल आयी जल प्रलय के बाद कई महीनों तक सीमान्त सड़कें बन्द रहीं। इसलिये उत्तराखण्ड में आपदा और पलायन जैसे मुद्दे केवल उत्तराखण्ड की समस्याएं न हो कर सारे देश की समस्याएं हैं। वैसे भी पिछले साल केदारनाथ सहित विभिन्न स्थानों पर मारे गये हजारों लोगों में ज्यादातर लोग देश के अन्य प्रान्तों के ही थे। लेकिन राजनीतिक दलों के ऐजेंडों में इन मुद्दों का नम्बर तब तो आयेगा जबकि मोदी के प्याले का तूफान थम जायेगा।
- जयसिंह रावत
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999
- जयसिंह रावत-
कितनी हैरानी की बात है कि इस देश में एक आदमी की चाय और उसकी पत्नी पक्ष और विपक्ष के लिये चुनावी मुद्दे तो बन सकते हैं, मगर लाखों लोगों के जीवन पर मंडराता दैवीय आपदाओं का खतरा अनसुना रह जाता है। यही नहीं चुनावी मुद्दे उनकी गंभीरता के आधार पर नहीं बल्कि वोट वैल्यू और मिलने वाली सीटों की संख्या के आधार पर तय किये जाते हैं।
अगर आप इन दिनों मचे चुनावी शोर शराबे को गौर से सुनें तो आप भी भूल जायेंगे कि पिछले ही साल उत्तराखण्ड में अकल्पनीय दैवी आपदा आई थी। जबकि केदारघाटी में हजारों लोगों की चीत्कारें आज भी लोगों के कान के परदों से दूर नहीं जा हो पा रही हैं। उत्तराखण्ड ही क्यों? इस चुनावी शोर में लोग बिहार में कोसी नदी की बाढ़ को भूल गये और मोदी की चाय की खुमारी में गुजरात के लोग भुज की भूकम्प की विभीषिका को ही हजम कर गये। इतने विशाल देश में जहां एक साथ लोग सूखा और बाढ़ की विभीषिकाओं को झेलते हैं वहां पर दैवीय आपदा कोई मुद्दा ही नहीं है। हर साल मरने वाले हजारों आम लोगों की कोई गिनती नहीं है। अगर आप अपनी गिनती चाहते हैं या राजनीतिक ऐजेंडों में अपना स्थान चाहते हैं तो आपको हिन्दू या मुसलमान या अन्य धार्मिक और जातीय समुदाय के तौर पर स्वयं को राजनीतिक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराना पड़ेगा। आपका भारतवासी होना काफी नहीं है।
जून का महीना करीब आ रहा है। पिछले साल 16 और 17 जून की याद कर उत्तराखण्ड में लोगों की रूह कांपने लगती है। ज्यों-ज्यों जून का महीना करीब आ रहा है, लोगों का मन विचलित होता जा रहा है। लोग आशंकित हैं कि न जाने इस बार किस इलाके में आसमान कहर बरपा दे। पिछले साल जो हुआ सो तो सारी दुनिया ने देख लिया। मगर उत्तराखण्ड में ऐसी कोई बरसात याद नहीं आती है, जबकि यहां सौ से अधिक लोग दैवीय आपदा में काल के ग्रास न बनें हों। पिछले साल तो वो हो गया जिसकी कल्पना कभी नहीं की गयी थी। किसी ने कभी नहीं सोचा था कि केदारनाथ में बाढ़ आ जायेगी। चौराबाड़ी ताल और ग्लेशियर पर बादल फटने की बात आज भी विज्ञानियों को पूरी तरह हजम नहीं हुयी है। क्योंकि हिमालय पर ऊंचाई बढ़ने के साथ ही वर्षा कम होती जाती है। समुद्रतल से लगभग 5 हजार मीटर की ऊचांई पर स्थित स्थाई हिम रेखा तो वर्षा के लिये वो लक्ष्मण रेखा है जिसे पार करना उसके लिये वर्जित है। पिछले अनुभवों को देख कर सवाल उठ रहा है कि अगर पिछले साल 15 दिन पहले मानसून आ कर इतनी तबाही कर सकता है तो इस साल या आने वाले सालों में उसके समय से पहले न आने की क्या गांरटी है? अगर पिछले साल मानसून हिमालय पर हिमरेखा से ऊपर चढ़ गया तो इस बार या अगले साल क्यों नहीं चढ़ सकता है? इन माम आशंकाओं पर गौर करने के बजाय राजनीतिक जमात मोदी की चाय के प्याले के तूफान के भंवर में फंसे हुये हैं।
निश्चित रूप से देश के सामने एक से बढ़ कर एक चुनौतियां हैं और उत्तराखण्ड या कोई अन्य हिमालयी राज्य इन राष्ट्रीय चुनौतियों से अलग नहीं है। लेकिन जब जान ही आफत में हो तो आदमी सबसे पहले अपनी जान बचाने की ही सोचता है। उत्तराखण्ड के लोग जानना चाहते हैं कि आखिर राजनीतिक दलों के पास ऐसी कौन सी सोच है जिसके तहत वे इन पहाड़ों का जीवन सुरक्षित और कष्ट रहित सुनिश्चित कर सकें। केवल एक चोराबाड़ी ताल ने केदारघाटी पर कहर बरपा दिया। उत्तराखण्ड में सतोपन्थ, डोडीताल, मासरताल जैसी लगभग 40 झीलें और सरोवर हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो मालूम पड़ता है कि 1803 में अलकनंदा की बाढ़ से श्रीनगर गढ़वाल में काफी जन-धन की हानि हुई। 1868 में बिरही नदी में जिंजी गांव भीषण बाढ़ से तबाह हो गया। 1880 में चमोली, लालसांग में बाढ़ से दो पुल और करीब 70 यात्री बह गए। 1893 में अलकनंदा की सहायक नदी बिरही के पास गौणा गांव के किनारे पहाड़ी टूटने से 300 मीटर उंची और पांच किलोमीटर लम्बी झील बनी थी जो एक साल बाद टूटी। 1930 में बद्रीनाथ में ग्लेशियर टूटने से बनी झील के टूटने के कारण भीषण बाढ़ आई। 1970 में अलकनंदा की सहायक नदी बिरही में प्रलयंकारी बाढ़ से कई बाजार और बस्तियां तबाह हो गए। 1998 में उखीमठ के पास मनसूना में मंदाकिनी में एक किलोमीटर की झील बनी थी। नैनीताल में 18 सितंबर 1880 को हुये भूस्खलन में 151 लोगों की जानें चलीं गयीं थी। सन् 1998 की मालपा खसदी को लोग अभी तक नहीं भूले जिसमें प्रख्यात नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी समेत लगभग 250 लोग मारे गये थे। उसी साल केदारघाटी के मनसूना में भूस्खलन से 68 लोग मारे गये थे। सन! 1978 में उत्तरकाशी में कनोडिया गाड़ में भूस्खलन से 25 लोग मारे गये थे। केदारघाटी में तो हर साल आपदा आ रही है।
सवाल केवल बाढ़ का नहीं है। उत्तराखण्ड भूकंपीय जोखिम की दृष्टि से सबसे संवेदनशील जोन 5 और जोन 4 में स्थित है। हिमालय के इस हिस्से में पांच बड़े भ्रंश या दरारें हैं। इसका सबसे अधिक हलचल माचाने वाला भ्रंश एमसीटी या मुख्य केन्द्रीय भं्रश ठीक इसके मध्य से वार-पार होता है। यहां नब्बे के दशक में उत्तरकाशी और चमोली के विनाशकारी भूचाल आ चुके हैं जिनमें लगभग 9 सौ से अधिक लोग अपने ही घरों में जिन्दा दब गये थे। भूगर्ववेत्ता कहते हैं कि ये भूचाल तो बहुत ही छोटे थे। उनका मानना है कि पिछले सौ सालों से अधिक अवधि से इस हिमालयी क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय उर्जा का काफी अधिक संचय धरती के नीचे हो रखा है जो कि कभी भी बहुत बड़े भूकंप के रूप में फट कर बाहर निकल सकती है। विज्ञानियों का यह भी कहना है कि अगर इतना बड़ा भूचाल आ गया तो इस इलाके में कोई भी इमारत खड़ी नहीं रह सकती, और सारा जग जानता है कि आदमी को भूचाल नहीं बल्कि अपनी आश्रय के लिये बनाया गया घर ही उसे दबा कर मार डालता है। देहरादून और हरिद्वार जैसे नगरों में अत्यधिक जनसंख्या घनत्व वाले कई ऐसे इलाके हैं जहां कई दिनों तक रेस्क्यू वर्कर नहीं पहुंच सकते हैं।
भूकंप की दृष्टि से जापान सबसे संवेदनशील माना जाता है। वहां आपदा प्रबन्धन की व्यवस्था इतनी कारगर है कि जितने बड़े भूकंप आते हैं उतनी जनहानि नहीं होती। पिछले ही साल वहां जिस तरह सुनामी ने कहर ढाया अगर वह नौबत भारत में आती तो लाखों लोग मारे जाते। लकिन जापान में ऐसा कुछ नहीं हुआ और आज लगता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहो। ऐसी व्यवस्था भारत में इसलिये नहीं होती क्योंकि यहां मोदी की चाय का महत्व तो है मगर लोगों की जानोमाल का नहीं। सवाल केवल रेस्क्यू या त्वरित बचाव का ही नहीं बल्कि पुनर्वाास का भी है। गत वर्ष की हिमालयी सुनामी की तबाही के बाद उम्मीद जगी थी कि जो कस्बे और गांव तबाह हो गये उनकी जगह नये आधुनिक गांव और सुरक्षित कस्बे उभर कर सामने आयेंगे। ऐसा लग रहा था कि अब उत्तराखण्ड का नक्शा ही बदल जायेगा। राज्य सरकार ने विश्व बैंक की पहल पर कई संवेदनशील गावों का भूगर्वीय सर्वे भी कराया था। उनकी जगह नये क्लस्टर गांव स्थापित करने की घोषणा भी की गयी थी। कहा गया था कि पहाड़ों में ही पुराने गावों के पास आधुनिक सुविधाओं से युक्त इन गावों के अस्तित्व में आने के बाद मैदान की ओर पलायन भी रुक जायेगा। यह भी उम्मीद की जा रही थी कि अब पहाड़ों में नये कस्बों और नये गावों के साथ ही नयी सड़कें बनेंगी और पर्यटन के नये आकर्षण विकसित होंगे। लेकिन सरकार की घोषणाएं धरातल पर नहीं उतर सकीं। भाजपा के नरेद्र मोदी ने 15 दिसम्बर 2013 को देहरादून के परेड मैदान में अपनी शंखनाद रैली में बड़ी-बड़ी बातें की थी, मगर वह प्रधानमंत्री बनने से पहले ही वायदे भूल गये।
उत्तरखण्ड देश का एक सीमान्त प्रदेश है। इससे लगी हुयी लगभग 600 किमी लम्बी अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के पार चीन तथा नेपाल देश हैं। रोगजगार, शिक्षा और चिकित्सा के लिये अब तक पहाड़ों से मैदानों के लिये जनसंख्या का पलायन होता था। इसलिये पौड़ी एवं अल्मोड़ा जैसे जिलों की जनसंख्या बढ़ने के बजाय घट गयी। लेकिन अब हर साल आपदा के कारण लोग जान बचाने के लिये भी पहाड़ों से पलायन कर रहे हैं। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित ज्यादातर गांव तेजी से खाली हो रहे हैं। पिछले साल आयी जल प्रलय के बाद कई महीनों तक सीमान्त सड़कें बन्द रहीं। इसलिये उत्तराखण्ड में आपदा और पलायन जैसे मुद्दे केवल उत्तराखण्ड की समस्याएं न हो कर सारे देश की समस्याएं हैं। वैसे भी पिछले साल केदारनाथ सहित विभिन्न स्थानों पर मारे गये हजारों लोगों में ज्यादातर लोग देश के अन्य प्रान्तों के ही थे। लेकिन राजनीतिक दलों के ऐजेंडों में इन मुद्दों का नम्बर तब तो आयेगा जबकि मोदी के प्याले का तूफान थम जायेगा।
- जयसिंह रावत
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल- 09412324999