वनवासियों पर इको सेंसिटिव जोन का घेरा
- जयसिंह रावत-
केन्द्र और राज्य
सरकारें वनों और
वन्यजीवों की सुरक्षा
तो कर नहीं
पा रही हैं
अलबत्ता अपनी नाकामी
की खीज में
वनों और खास
कर अभयारण्यों पर
कानूनों के एक
के बाद एक
घेरे डाले जा
रही है। सुप्रीम
कोर्टके नाम पर
अगर केन्द्र सरकार
देश के सभी
संरक्षित क्षेत्रों पर इको
सेंसिटिव जोन के
अतिरिक्त सुरक्षा कवच डालने
में सफल रही
तो वनों के
अन्दर और उनके
आसपास 25 करोड़ से
अधिक वनवासियों के
समक्ष एक और
मुसीबत खड़ी हो
जायेगी। एक तरह
से वन्यजीवों के
लिये तैयार हो
रहा यह अतिरिक्त
सुरक्षा घेरा वनवासियों
के नैसर्गिक अधिकारों
पर एक और
बेड़ी लग जायेगी।
केन्द्रीय वन एवं
पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य
सरकारों को आखिरी
चेतावनी भी दे
डाली है कि,
अगर उन्होंने यथाशीघ्र
अपने क्षेत्र के
राष्ट्रीय उद्यानों और वन्य
जीव विहारों सहित
सभी संरक्षित क्षेत्रों
के लिये इको
सेंसिटिव जोन चिन्हित
कर नहीं भेजे
तो मंत्रालय खुदबखुद
ऐसे क्षेत्रों के
चारों ओर के
10 किलोमीटर के दायरे
को संवेदनशील घोषित
कर प्रतिबन्धात्मक कानून
लागू कर देगा।
इसका मतलब यही
हुआ कि देश
के कुल भूभाग
के 4.8 प्रतिशत भूभाग के
अलावा वन्यजीव संरक्षण
के नाम पर
सरकार आबादी के
बचे खुचे हिस्से
का अतिरिक्त भूभाग
भी छीन लेगी।
चूंकि अब वनों
के समवर्ती
सूची में आने
से इस विषय
पर केन्द्र सरकार
भी कानून बना
सकती है, इसलिये
जनभावनाओं को दरकिनार
कर राज्य सरकारों
ने सभी अभयारण्यों
के चारों ओर
इको संेसिटिव जोन
चिन्हित करने शुरू
कर दिये हैं।
इस समय
देश में 668 राष्ट्रीय
पार्क, वन्य जीव
अभयारण्य, बाघ संरक्षित
क्षेत्र और वनवासी
संरक्षित क्षेत्र हैं। इनमें
से अब तक
नवीनतम् उत्तरकाशी- गोमुख सहित
केवल 13 इको सेंसिटिव
जोन घोषित हुये
हैं और अगर
भारत सरकार के
वन और पर्यावरण
मंत्रालय की चली
तो इनकी संख्या
कम से कम
700 तो पार कर
ही जायेगी। जब
उत्तरकाशी से लेकर
गोमुख तक के
100 किमी के दायरे
के 88 गांव इको
सेंसिटिव जोन की
चपेट में आ
गये तो आप
कल्पना कर सकते
हैं कि जब
देश के
सारे संरक्षित क्षेत्रों
में में इको
सेंसिटिव जोन बनेंगे
तो वे कितने
गावों के लोगों
की स्वच्छन्दता और
उनकी आजीविका को
निगल जायेंगे। और
तो रहे और,
चण्डीगढ़ जैसा शहर
भी इको सेंसिटिव
जोन की चपेट
में आ गया
है। वहां सुखना
वाइल्ड लाइफ सेंच्युरी
के साथ-साथ
सेक्टर-21 में भी
कुछ हिस्से को
इको-सेंसिटिव जोन
बनाया जाना है।
वनों और बेजुबान
वन्य जीवों के
प्रति सरकार की
संवेदनशीलता तो समझ
में आती है।
लेकिन इस संवेदनशीलता
की कीमत पर
आम आदमी और
खास कर वनों
पर निर्भर भोलेभाले
साधन विहीन लोगों
के प्रति असंवेदनशीलता
को जायज नहीं
ठहराया जा सकता।
वैसे भी इतिहास
गवाह है कि
सरकार ने वनों
पर कानूनों के
जितने अधिक पहरे
लगाये और वनवासियों
के नैसर्गिक अधिकारों
का जितना अतिक्रमण
किया उतने ही
अधिक वन और
वन्यजीव असुरक्षित हुये हैं।
वनवासियों के लिये
वन न केवल
आश्रयदाता बल्कि आजीविका के
साधन भी रहे
हैं। चूंकि इन
दोनों का अस्तित्व
एक दूसरे से
जुड़ा रहा है,
इसलिये वनवासी अपने निकट
के वनों के
प्राकृतिक रखवाले भी रहे
हैं। लेकिन जब
से वन संरखण
के नाम पर
एक के बाद
एक वन कानून
बनते गये और
वनवासियों के हाथों
से वन खिसक
कर पूरी तरह
वन विभाग के
हो गये तब
से वनों और
वन्यजीव संसार का ह्रास
होता चला गया। सन्
1970 तक देश में
केवल 6 नेशनल पार्क और
59 वन्य जीव विहार
ही अस्तित्व में
थे जिनकी संख्या
1998 तक 85 और 462 हो गयी।
वर्तमान में राष्ट्रीय
पार्को की संख्या
102 और वन्यजीव विहारों की
संख्या 515 हो गयी।
इस प्रकार देश
के कुल वन
क्षेत्र का 14 प्रतिशत और
कुल भूभाग को
4.61 प्रतिशत क्षेत्र वन्य जीवों
के लिये आरक्षित
हो गया है।
उत्तराखण्ड जैसे छोटे
से प्रदेश में
राष्ट्रीय पार्कों वन्यजीव विहारों
की संख्या 6-6 हो
गयी है। इनके
अलावा 1 बायोस्फीयर रिजर्व, 2 संरक्षण
आरक्षित, 1 हाथी रिजर्व
और 2 प्राकृतिक धरोहर
स्थापित किये गये
हैं। उत्तराखण्ड का
लगभग 18 प्रतिशत भूभाग वन्यजीवों
के लिये आरक्षित
हो चुका है।
इस सीमान्त पहाड़ी
प्रदेश में अगर
इतने सारे इको
सेंसिटिव जोन बना
दिये गये तो
लोगों का घरों
से बाहर निकलना
भी मुश्किल हो
ही जायेगा, लेकिन
राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी
आंच आ जायेगी।
उत्तराखण्ड के अकेले
केदारनाथ वन्यजीव विहार के
दायरे में 38 और
नन्दादेवी बायेस्फीयर रिजर्व में
तीन जिलों के
47 गांव आ रहे
हैं। यहां तक
कि गढ़वाल का
प्रवेश द्वार कोटद्वार भी
संवेदनशील जोन के
घेरे में आ
रही है। उत्तरकाशी
के गोविन्द पशु
विहार के कानूनी
बन्धनों से 40 गांव घिरे
हुये हैं। मजेदार
बात तो यह
है कि उत्तराखण्ड
के मुख्यमंत्री विजय
बहुगुणा पड़ोसी राज्य हिमाचल
और अन्य प्रदेशों
के मुख्यमंत्रियों की
तरह इतने सारे
इको सेंसिटिव जोनों
का विरोध करने
के बजाय केवल
उत्तरकाशी-गोमुख जोन का
ही रोना रो
रहे हैं। यही
नहीं केन्द्र में
अटल बिहारी बाजपेयी
के नेतृत्व वाली
जिस भाजपानीत राजग
सरकार ने सन्
2002 में इस व्यवस्था
को अंगीकृत किया
था वही भाजपा
इसके लिये मनमोहन
सरकार को दोषी
ठहरा रही है।
जिस तरह विकसित
देश अपनी समृद्धि
के लिये अपने
वनों को निगलने
के बाद अब
ग्लोबल वार्मिंग के नाम
पर विकासशील देशों
पर वनों को
बचाने के लिये
दबाव डाल रहे
हैं, उसी तरह
भारत का धनाड्य
वर्ग और शहरों
में वातानुकूलित घरों
तथा दफ्तरों में
रहने वाले तथाकथित
बुद्धिजीवी और पर्यावरणप्रेमी
भी देश के
लगभग वनो
से घिरे देश
के 124 पहाड़ी जिलों और
188 आदिवासी जिलों में वन
और वन्यजीव संरक्षण
के नाम पर
वहां के निवासियों पर
संरक्षण की जिम्मेदारी
थोप रहे हैं।
वे चाहते हैं
कि ये वनवासी
और आदिवासी जंगलों
और गुफाओं में
कैद रहें। वनवासियों
के प्रति इसी
सोच के तहत
प्रख्यात सांख्यकीविद प्रणवसेन की
अध्यक्षता में एक
समिति का गठन
किया गया था,
जिसने सन् 2000 में
अपनी रिपोर्ट दी
थी। उसी रिपोर्ट
पर 21 जनवरी 2002 को
तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी
बाजपेयी की अध्यक्षता
में भारतीय वन्य
जीव बोर्ड की
इक्कीसवीं बैठक में
”वन्यजीव संरक्षण रणनीति-2002” अंगीकृत
की गयी। इसी
दस्तावेज के बिंदु
संख्या नौ में
राष्ट्रीय पार्क और वन्य
जीव अभ्यारण्यों की
सीमा से लगे
दस किलोमीटर क्षेत्रांे
को पर्यावरण (संरक्षण)
अधिनियम, 1986, के तहत
पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्र (इको
फ्रेजाइल जोन) घोषित
करने का प्रस्ताव
पास किया गया।
हिमाचल प्रदेश, गोवा और
राजस्थान जैसे कुछ
राज्यों ने इस
दस किलोमीटर की
सीमा पर आपत्ति
जताई है। जबकि
उत्तराखण्ड में भाजपा
के बाद अब
कांग्रेस की सरकार
इस विषय पर
अपनी ही जनता
को भरमा रही
है। राष्ट्रीय वन्यजीव
एक्शन प्लान (2002-2016) में
भी इको फ्रेजाइल
जोन की वकालत
की गयी। इको
सेंसिटिव ज़ोन घोषित
करवाने के लिए
गोवा फाउन्डेशन नामक
एन.जी.ओ.
उच्चतम न्यायलय चला गया
था। इसी सिलसिले
में 04 दिसम्बर 2006 के अपने
फैसले में उच्चतम
न्यायलय ने इको
सेंसिटिव जोन घोषित
किये जाने पर
अपनी मोहर लगा
दी। सन् 2010 में
ओखला पक्षी विहार
के निकट नॉएडा
में बन रहे
पार्क के मामले
में उच्चतम न्यायालय
ने नोट किया
कि उत्तर प्रदेश
सरकार ने अपने
संरक्षित क्षेत्रों के निकट
इको सेंसिटिव जोन
नहीं घोषित किये,
क्योंकि केंद्र सरकार द्वारा
इस सन्दर्भ में
दिशा-निर्देश जारी
नहीं किये गए
थे। तत्पश्चात केन्द्रीय
पर्यावरण एवं वन
मंत्रालय द्वारा इको-सेंसिटिव
जोन के मानक
तय करने के
लिए प्रणव सेन
की अध्यक्षता में
एक कमेटी गठित
की गयी।
व्यावसायिक
उद्ेश्य से वनों
के दोहन के
लिये वनवासियों को
उनके प्राकृतिक आवास
में ही घेरने
की शुरुआत अंग्रेजों ने भारतीय
वन अधिनियम 1927 से
ही कर दी
थी। उसके बाद
वनवासियों के अधिकार
सीमित करने का
जो सिलसिला शुरू
हुआ वह आजादी
के बाद से
लेकर आज तक
जारी है। लगभग
ऐसा ही कुछ
वन्य जीव संरक्षण
अधिनियम 1972 में आया
और जो कमी
वेशी रह गयी
थी उसे 1980 के
वन संरक्षण अधिनियम
ने पूरी कर
दिया। वन विभाग
द्वारा वन भूमि
की सीमा को
ग्राम समाज की
भूमि पर अवैध
कब्ज़ा करके बढ़ाया
जाता रहा और
साथ ही जंगल
का कटाव और
विनाश भी निरन्तर
ज़ारी रहा।
संविधान के अनुच्छेद
21 में देश के
प्रत्येक नागरिक को सम्मानजनक
जीवन जीने के
लिये आजीविका व
रोज़गार का अधिकार स्पष्ट
किया गया है।
भारत के वनों
के अन्दर और
उनके आसपास के
1 लाख 73 हजार गावों
में लगभग 25 करोड़
लोग रहते हैं,
जिनकी वनों में
वनोपज को संग्रह
करना, वनोपज को
बेचना, वनभूमि पर कृषि
करना, वृक्षारोपण, पशुपालन,
लघु खनिज निकालना,
वनोत्पादों से सामान
बनाना, मछली पकड़ना,
निर्माण कार्य, एवं आग
बुझाना आदि स्वरोजगारी
आजीविका जुड़ी हुयी
है। वनाश्रित समुदाय
में अनुसूचित जनजाति
की संख्या 56 प्रतिशत
है, जबकि बाकि
गैर आदिवासी हैं,
जिसमें आदिवासी, दलित, अति
पिछड़े वर्ग की
जातियों के लोग
शामिल हैं। वहीं
घुमन्तु पशुपालकों में बहुत
बड़ी तादाद् मुस्लिम
समुदाय की भी
है। वनों में
रहने वाले श्रमजीवी
समाज में सबसे
बड़ा हिस्सा महिलाओं
का है।
इतिहास गवाह है
कि मुगलकाल से
लेकर अब तक
जब भी वनों
से नैसर्गिक रिश्ता
रखने वालों से
जल, जंगल और
जमीन जैसे प्राकृतिक
संसाधनों को छीनने
का प्रयास हुआ
तो तब-तब
आदिवासी समाज ने
अपनी स्वायत्तता और
संसाधनों को बचाने
के लिये लम्बे
निर्णायक संघर्ष किए। ये
संघर्ष तिलका माझी, सिद्धु-कान्हु, बिरसा मुंडा,
सीतारामा राजू और
लाखों आदिवासियों के
नेतृत्व में लड़े
गये। हालाँकि ये
संघर्ष क्षेत्रीय स्तर पर
चलते रहे और
अँग्रेजी शासन इन
आन्दोलनों को फौरी
तौर पर दबाते
रहे। एक लंबे
संघर्ष के बाद
देश के आदिवासियों
के वनभूमि पर
रहने एवं आजीविका
के लिए खेती
करने के कानूनी
अधिकार को केन्द्र
सरकार ने अनुसूचित
जनजाति एवं अन्य
परम्परागत वनवासी (वनाधिकारों की
मान्यता) अधिनियम, 2006 (नियम-2008) को 1 जनवरी
2008 से जम्मू-कश्मीर को
छोड़ संपूर्ण भारत
में लागू कर
दिया गया मगर
इस कानून के
बावजूद राज्य सरकारें वनवासियों
को उनका जन्मसिद्ध
अधिकार देने से
कतरा रही हैं।
इस वनाधिकार कानून
को सही मायने
में लागू करने
में सबसे बड़ा
रोड़ा बना हुआ
है। वह नहीं
चाहता है कि
वनभूमि आदिवासियों को मिले।
सरकार का एक
हाथ से अधिकार
देने और दूसरे
हाथ से अधिकार
छीनने का तरीका
भी विचित्र ही
है।
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-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई- 11 फेंण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
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