बलात्कार के नाम पर बलात्कार
- जयसिंह रावत-
कुछ ही समय
पहले तक आये
दिन की मीडिया
की खबरों को
देख और पढ़
कर लगता था
कि इस देश
में राजनीति, क्रिकेट
और बलात्कार के
अलावा कुछ भी
नहीं होता। मगर
दिल्ली में हुये
दामिनी गैंग रेप
के बबाल के
बाद लगता है
कि अब लोगों
की रुचि पालिटिक्स
और क्रिकेट में
कुछ कम हो
गयी है और
बलात्कार या गैंग
रेप पर ध्यान
केन्द्रित हो गया
है। सवा अरब
की आबादी वाले
इस विविधताओं से
भरे देश और
दुनिया के सबसे
बड़े लोकतंत्र में
केवल गैंग रेप
ही हो रहे
हों तो वास्तव
में यह रसातल
में पहुंचने वाली
बात है। लेकिन
अगर बलात्कार का
यह शोर केवल
टीआरपी या सर्कुलेशन
बढ़ाने के लिये
ही हो रहा
है तो इसे
आम आदमी के
साथ ही पेशे
के साथ भी
बलात्कार ही माना
जायेगा। क्योंकि बलात्कार का
मतलब ही जोर
जबरदस्ती होता है।
सुबह अखबार आने से
पहले जब मैं
टेलिविजन के न्यूज
चैनल खोलता हूं
तो तत्काल टीवी
स्विच आफ करना
पड़ता है। वजह
यह कि जिस
भी चैनल को
खोलो उस पर
एन्कर या न्यूज
रीडर बलात्कार -बलात्कार
चिल्लाता हुआ मिलता
है। सुबह-सुबह
मूड खराब करने
के बजाय समाचारों
की चाह मन
में दबा कर
टेलिविजन को बन्द
करने में ही
राहत मिलती है।
सोचने का विषय
यह है कि
चौबीसों घण्टे और साल
के तीन सौ
पैंसठ दिन तक
एक ही राग
अलापना या एक
ही रोना रोने
के पीछे सचमुच
बलात्कार जैसे जघन्य
कुकृत्य की वेदना
है या फिर
बलात्कार को टीआरपी
और सर्कुलेशन में
भुनाने की चाह
है। जो लाखों
बच्चे कुपोषण से
पांच साल की
उम्र भी पार
नहीं कर पाते
उनकी अहमियत मीडिया
के लिये कीड़े
मकोड़ों से ज्यादा
कुछ नहीं है।
समाज के दर्पण
के रूप में
मीडिया की जिम्मेदारी
निश्चत रूप से
समाज को आइना
दिखाने की है।
अगर समाज का
अक्श कुरूप नजर
आता है तो
यह आईने का
नहीं बल्कि उस
तस्बीर का दोष
है। समाज में
जो भी कुछ
होता है उसका
प्रतिबिम्ब मीडिया में आ
जाता है। लेकिन
अगर मीडिया के
इस आइने में
चौबीसों घण्टे केवल एक
ही तस्बीर दिखाये
तो उसका मतलब
यही है कि
उसके अलावा कुछ
हो ही नहीं
रहा है। आजकल
इलैक्ट्रानिक मीडिया ही नहीं
बल्कि अखबारों के
भी हर पन्ने
में कोई न
कोई बलात्कार की
खबर होती है।
इलैक्ट्रानिक मीडिया के हमारे
कुछ पत्रकार मित्र
बताते हैं कि
उनके मुख्यालय से
लगभग हर रोज
रेप या गैंग
रेप की खबरों
की अपेक्षा की
जाती है। ऐसे
कैसे हो सकता
है कि आजकल
इस देश में
रेप या गैंग
रेप के सिवा
कुछ नहीं हो
रहा हो। ग्रामीण
भारत की ओर
तो मडिया का
स्थाई ब्लैक आउट
होता ही है,
मगर शहरी चकाचौंध
तो निरन्तर कौंधती
रहती है। अगर
हर बुरी खबर
अच्छी खबर होती
है तो गेंग
रेप के अलावा
भी कई तरह
की बुरी घटनाएं
होती होगी, उन
पर मीडिया की
नजर क्यों नहीं
पड़ती है? वास्तव
में जिस तरह
हाल ही में
सोने के दामों
में भारी गिरावट
आई उसी तरह
गैंग रेप के
अलावा अन्य बुरी
या अच्छी खबरों
की मार्केट वैल्यू
भी काफी गिर
गयी है।
यह सही है
कि देश में
बलात्कार के मामलों
में निरन्तर वृद्धि
हो रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो
की एक रिपोर्ट
के अनुसार वर्ष
1971 में जहां बलात्कार
के 2,427 मामले दर्ज किये
गये थे वहीं
वर्ष 2011 में दर्ज
मामलों की संख्या
24,206 तक पहुंच गयी। फिर
भी हत्या जैसे
अन्य जघन्य अपराधों
से बलात्कार के
मामले अब भी
पीछे ही हैं।
वर्ष 2011 में देश
में हत्या के
कुल 34,305 मामले दर्ज हुये,
जो कि कुल
आइ.पी.सी
अपराधों के 1.5 प्रतिशत रहे,
जबकि बलात्कार के
मामले कुल अपराधों
में एक प्रतिशत
और अन्य हिंसक
अपराधों के मामले
11 प्रशित रहे। हत्या
के अपराध को
बलात्कार से कम
कर नहीं आंका
जा सकता है।
पत्रकारिता
की दुनियां में
कभी कहा जाता
था कि अगर
कुत्ता आदमी को
काटे तो वह
समाचार नहीं है,
लेकिन अगर आदमी
कुत्ते को काट
खाये तो वह
समाचार है। इस
धारणा के पीछे
तर्क होता था
कि मनुष्य एक
जिज्ञासु प्राणी है और
उसकी जिज्ञासा अनसुनी
बात सुनने और
अनदेखी चीज देखने
में होती है।
कुत्ते या आदमी
द्वारा काटे जाने
वाली थ्योरी समय
के साथ ही
आउट डेटेड हो
चुकी है। आप
को भले ही
बुरी खबर अधिक
चौंका देती हो
या उद्वेलित कर
देती हो मगर
इसका मतलब यह
नहीं कि लोगों
को अच्छी खबरें
पसन्द ही नहीं
होती है। वास्तविकता
यह है कि
लोग अच्छी खबरें
ज्यादा पढ़ना या
सुनना चाहते हैं।
जैसे किसी की
सरकारी पेंशन बढ़ गयी
हो या डी.ए. बढ़
गया हो या
फिर सरकार की
घोषणा से राहत
वाली बात हो
तो ऐसी अच्छी
खबरें कौन नहीं
पढ़ना और सुनना
चाहेगा। वैसे भी
व्यक्तिगत लाभ के
अलावा समाज हित
की अच्छी सूचनाऐं
भी सभी को
पसन्द होती हैं।
आदमी या कुत्ते
काटने वाला सूत्र
अब पुराना हो
चुका है। वैसे
भी उत्तरपूर्व के
कुछ हिस्सों में
कुत्ते बड़े शौक
से काटे और
खाये जाते हैं।
पिछले साल ही
देहरादून में इसी
तरह कुत्तों की
दावत के चक्कर
में कुछ छात्र
पकड़े गये थे।
अखबारों में प्रथम
पृष्ठ की सबसे
महत्वपूर्ण खबर को
लीड कहा जाता
है। बहुत बड़ी
या सुनामी जैसी
असाधारण और अकल्पित
घटना के लिये
बैनर खबर होती
है। पैनल खबर
लिखने या पढ़ने
का मुझे अब
तक अवसर नहीं
मिला। सम्भवतः नागासाकी
और हिरोशिमा की
जैसी त्रासदियां ही
पैनल श्रेणी में
जगह पा सकती
है। प्रथम पृष्ठ
की लीड या
8 कालम की बैनर
खबर का फालोअप
सामान्यतः दूसरे या तीसरे
दिन अन्दर के
पन्नों में चला
जाता है। अगर
बात हफ्तेभर तक
भी खिंच गयी
तो उसे एक
कालम में ही
समेट दिया जाता
है। लेकिन कितने
अचरज की बात
है कि गैंग
रेप की एक
ही खबर हर
रोज बैनर या
लीड की तरह
दर्शकों को परोसी
जा रही है।
हर रोज ही
नहीं बल्कि 24 गुना
7 याने कि हफ्ते
के सभी 168 घण्टों
तक बलात्कार ही
बलात्कार परोसा जा रहा
है। आखिर यह
दर्शक का उत्पीड़न
नहीं तो और
क्या है? बलात्कार
केवल जबरन सेक्स
नहीं बल्कि हर
जोर जबरदस्ती को
बलात्कार कहा जाता
है और इस
तरह बलात्कार के
नाम पर केवल
एक ही राग
अलापना भी दर्शकों
या पाठकों के
साथ बलात्कार ही
है। बच्चों के
सामने लोगों ने
टेलिविजन देखना बन्द कर
दिया है। घरों
में मीडिया की
इस हरकत के
कारण बच्चे अपने
माता पिता से
पूछ रहे हैं
कि आखिर गैंग
रेप क्या बला
है और बलात्कार
कैसे होता है?
बलात्कार ही नही
अपितु हर तरह
के अपराध के
प्रति सरकार और
उसकी मशीनरी को
संवेदनशील होना ही
चाहिये। चूंकि बलात्कार महिलाओं
तथा बच्चों से
सम्बन्धित मसला है,
इसलिये समाज में
नैतिकता की दृष्टि
से सरकार को
इस मामले में
अधिक संवेदनशीलता दिखानी
चाहिये। जिस राष्ट्र
और समाज का
नैतिक पतन हो
जाय उसका अस्तित्व
भी खतरे में
पड़ जाता है।
इसलिये अगर मीडिया
इस मामले पर
संवेदनशील है तो
उसकी सराहना ही
होनी चाहिये। लेकिन
क्या मीडिया को
अन्य अपराधों और
अन्य बुराइयों के
प्रति आंख मूंद
लेनी चाहिये। जो
लोग जीवन रक्षक
दवाओं, दूध, घी
और मसालों आदि
में मिलावट करते
हैं या मुनाफे
के लिये जहरीली
शराब पिला कर
या फिर कमीशनखोरी
के चक्कर में
कच्चे गिरासू भवन
बना कर लोगों
के जीवन से
खिलवाड़ करते हैं,
उनके लिये मीडिया
और सरकार की
संवेदनशीलता नहीं होनी
चाहिये? मीडिया हाइप के
कारण आज सरकार
भले ही नारी
के प्रति संवेदनशील
दिख रही हो
मगर वह आम
आदमी की तकलीफों
के प्रति बेपरवाह
हो गयी है।
बलात्कार के इस
शोर में गरीबी,
भुखमरी, बेरोजगारी और मंगाई
के जैसे मुद्दे
गौण हो गये
हैं। इस बुराई
से निपटने के
लिये कानून विवेक
और न्याय की
कसौटी पर कसने
के बजाय जल्दबाजी
में जनाक्रोश की
गहराई को नाप
कर बन रहे
हैं। कहा जाता
है कि भीड़
का कोई चरित्र
नहीं होता है।
उससे विवेक की
कल्पना भी नहीं
की जाती है।
लेकिन अब भीड़
ही अपनी मर्जी
के कानून बनवा
रही है। तथाकथित
एक्टिविस्ट कहने लगे
हैं कि कानून
संसद के हिसाब
से नहीं बल्कि
दिल्ली के जन्तर
मन्तर की भीड़
के मनोविज्ञान के
हिसाब से बनने
चाहिये। कुछ महानगरों
की भीड़ को
कश्मीर से लेकर
कन्या कुमारी तक
के भारत की
जनता जनार्दन मान
लिया गया है।
नेताओं और शौकिया
ऐक्टिविस्टों में कठोरतम्
कानूनों की मांग
की भी होड़
लग गयी है।
कोई कहता है
कि बलात्कारी को
भीड़ के हवाले
किया जाना चाहिये
तो कोई फांसी
और कोई बीच
चौराहे पर खोपड़ी
छेदने की मांग
कर रहा है।
कुछ लोग तो
केवल मीडिया में
प्रचार पाने के
लिये इस होड़
में शामिल हो
रहे हैं। कुछ
समय से मडिया
हर मुद्दे पर
अपनी अदालत बिठा
ही रहा था
मगर अब उसने
न्यायपालिका को भी
अपनी अदालत में
घसीटना शुरू कर
दिया है। संजय
दत्त आदि के
मामलों में जिस
तरह अदालत के
फैसलों का मडिया
ट्रायल करने की
परम्परा शुरू हुयी,
वह अपने आप
में चिन्ताजनक है।
इस तरह के
मीडिया ट्रायल में कुछ
लोग खुल कर
अदालत के न्याय
और विवके पर
सवाल उठाने लगे
हैं।
बलात्कार का समर्थन
सभ्य समाज में
कोई नहीं कर
सकता। यहां तक
कि बलात्कारी भी
अपनी मां-बहनों
के साथ बलात्कार
का विरोध ही
करेंगे। इसी तरह
कोई सामान्य बु़fद्ध
या सभ्य व्यक्ति
बलात्कारियों को सजा
का विरोध नहीं
कर सकता। बलात्कार
की प्रवृत्ति ही
पशु प्रवृत्ति है।
ऐसे पशुओं को
खुले छोड़ने के
बजाय सलाखों के
पीछे होना ही
चाहिये ताकि वे
दुबारा किसी से
पाश्विक व्यवहार न कर
सकें। बलात्कारियों को
कठोर सजा भी
होनी ही चाहिये।
लेकिन अगर कोई
ये सोचता है
कि मोमबत्ती के
साथ सड़कों पर
मार्च करके या
अराजकता फैला कर
बलात्कार रुक जायेंगे
तो यह कोरी
गलतफहमी ही होगी।
अगर ऐसा होता
तो दामिनी काण्ड
के बाद सारे
देश में बलात्कार
रुक गये होते।
पहले दामिनी काण्ड
को बेचा गया
और अब गुड़िया
काण्ड की बम्पर
सेल हो रही
है। पिछले साल
अन्ना हजारे ने
अनशन शुरू किया
तो मीडिया ने
आसमान सर पर
उठा लिया। ऐसा
लगता था कि
अन्ना का लोकपाल
आते ही रामराज
स्थापित हो जायेगा
और शेर तथा
बकरी एक ही
घाट पर पानी
पीने लगेंगे। मीडिया
हाइप के कारण
भ्रष्टाचारी भी स्वयं
को अन्ना समर्थक
बता कर कैण्डल
मार्च में शामिल
होने लगे।
भारतीय प्रेस परिषद के
अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डे काट्जू
यूंही आये दिन
मीडिया की समझ
पर सवाल नहीं
उठाते हैं। पहले
उन्होने मीडिया की भारत
की संस्कृति, इसके
दर्शन और ज्वलन्त
मुद्दों के बारे
में अनविज्ञता का
सवाल उठाया तो
अब वह पत्रकारों
की शैक्षिक योग्यता
पर ही सवाल
उठाने लगे हैं।
जस्टिस काटजू के बारे
में पूर्व प्रधान
न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एच.कपाडिया ने भी
कहा था कि
“वह बेवाक (आउट
स्पोकन) हैं और
संस्थागत विश्वसनीयता के प्रबल
समर्थक हैं। आज
हम आडम्बर (हिपोक्रेसी)
की दुनियां में
जी रहे हैं।
इसलिये सत्य बोलने
के लिये भी
साहस चाहिये।” मीडिया
के लिये गरीबी,
भुखमरी, बेरोजगारी, मंहगाई, किसानों
द्वारा की जा
रही आत्महत्याऐं, आम
आदमी के लिये
शिक्षा, सिर ढकने
के लिये छत
और बीमारी से
मुक्ति के लिये
इलाज उपलब्ध नहीं
है। मगर मीडिया
के लिये ये
मुद्दे जरूरी नहीं ।
उसे हर वक्त
गैंग रेप या
क्रिकेट की जीत
हार की तलाश
रहती है। दरअसल
मीडिया का काम
सूचनाऐं या जानकारियां
फैलाना है, मगर
कुछ लोग सत्य
की जगह गलतफहमियां
और भ्रम फैला
रहे हैं।
जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11 फ्रेण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-09412324999