खतरे में हिमालय
के चारों धाम
-जयसिंह रावत
हिमालय पर मानसून
के हमले के
बाद उत्तराखण्ड में
चारों ओर तबाही
का मंजर नजर
आ रहा है।
बेसुध सरकार और
उसकी ऐजेंसियों को
तो पता भी
नहीं कि, आखिर
केदारनाथ सहित विभिन्न
स्थानों पर कितने
लोग जिन्दा दफन
हो गये और
कितनों को उफनती
नदियां लील गयीं।
यह सब इतना
जल्दी और इतने
बड़े पैमाने पर
हुआ कि किसी
को सम्भलने का
मौका तक नहीं
मिला। इतनी बड़
तबाही के बाद
अब सवाल उठने
लग गये हैं
कि अगर पिछले
वैज्ञानिक अध्ययनों और इसरो
जैसे संगठनों की
चेतावनियों पर गौर
किया गया होता
तो सम्भव है
कि काफी हद
तक जन और
धन की हानि
को कम किया
जा सकता था।
इन अध्ययनों में
केदारनाथ ही नहीं
बल्कि चारों हिमालयी
धामों पर मंडराते
खतरे के प्रति
कई साल पहले
ही नीति नियन्ताओं
को आगाह कर
दिया गया था।
हिमालय की स्थिति
के कारण भूकम्प,
भूस्खलन और बादल
फटने से त्वरित
बाढ़ जैसी आपदायें
हिमालयी राज्यों की किश्मत
में ही लिखी
हुयी हैं। भूकम्प
के लिये विज्ञानियों
ने समूचे भारत
को पांच संवेदनशील
जोनों में बांटा
हुआ है, जिनमें
उत्तराखण्ड सर्वाधिक संवेदनशीन जोन
पांच और चार
में आता है।
इसी तरह पर्यावरणविद्
चण्डी प्रसाद भट्ट
के अनुरोध और
प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल
से इसरो ने
दर्जनभर विशेषज्ञ संस्थानों की
सहायता से उत्तराखण्ड
के भूस्खलन सम्भावित
नक्शे भी तैयार
कर रखे हैं।
लेकिन उत्तराखण्ड सरकार
है कि उसे
इन चेतावनियों पर
गौर करने की
फुर्सत ही कहा
है। होगी भी
कैसे यहां साल
के बारहों महीने
कुर्सी बचाने और कुर्सी
छीनने का म्यूजिकल
चेयर का खेल
चलता रहता है।
और तो और
सरकार का ध्यान
उस केदार बाबा
की घाटी, पर
भी नहीं गया
जहां लगभग हर
साल भूस्खलन और
त्वरित बाढ़ की
जैसी आपदाऐं आम
हो गयी हैं।
उत्तराखण्ड
की ताजा भयावह
त्रासदी में केदारनाथ
धाम तबाही का
केन्द्र बिन्दु बना हुआ
है। इसी केदारनाथ
की सुरक्षा के
बारे में एक
दशक से भी
पहले वाडिया हिमालयी
भूविज्ञान संस्थान के विज्ञानियों
ने आगाह कर
दिया था। स्वयं
मैंने इसी खतरे
का जिक्र 2004 में
छपे अपने एक
लेख में कर
दिया था। समुद्रतल
से 3581 मीटर की
ऊंचाई पर स्थित
भगवान शिव के
बारह ज्योतिर्लिंगों में
से एक केदारनाथ
मंदिर की सुरक्षा
के बारे में
उत्तराखण्ड विधानसभा में भी
सवाल उठ चुके
हैं। इस मंदिर
के पृष्ठ भाग
में बह रही
मन्दाकिनी मंदिर परिसर का
कटाव कर रही
थी। इसी नदी
ने इस बार
बिकराल रूप धारण
कर सेकड़ों मकान
और कई लोगों
को लील लिया।
मंदिर को बचाने
के लिये, सिंचाई
विभाग ने सुरक्षा
दीवार का निर्माण
तो किया मगर
असली खतरा तो
मंदिर के पीछे
वर्फ का जलस्तम्भ
चोराबारी ग्लेशियर था। भूविज्ञानियों
ने अपनी एक
रिपोर्ट में एक
दशक पहले ही
मदिर के पीछे
खड़े लगभग 8 कि.मी लम्बे
चोराबारी ग्लेशियर से सम्भावित
खतरे से आगाह
कर दिया था।
वाडिया हिमालयी भूविज्ञान संसथान
के विज्ञानियों का
कहना था कि
इस ग्लेशियर के
मोरैन पर वर्फीली
झीलों की संख्या
बढ़ती जा रही
है। झीलों का
आयतन बढ़ने से
उनमें हिमकणियां बन
सकती हैं, जिनमें
विस्फोट का खतरा
रहता है। हिमालय
पर वर्फ के
ऊपर निरन्तर वर्फ
गिरने से सबसे
नीचे की वर्फ
दबते-दबते अत्यधिक
ठोस और गोलियों
की तरह लघु
आकार में आ
जाती है। इन
ठोस गोलियों को
स्थानीय भाषा में
कणियां कहा जाता
है, जोकि फटने
पर किसी भारी
भरकम बम का
जैसा भयंकर धमाका
करती हैं। इस
बार केदारनाथ के
ऊपर इसी तरह
का धमाका होने
का अनुमान है।
केदारनाथ ही नहीं
बल्कि हिन्दुओं का
सर्वोच्च तीर्थ बद्रीनाथ, जिसे
बैकुण्ठ धाम भी
कहा जाता है,
इसी तरह खतरे
की जद में
है। बद्रीनाथ मंदिर
को हिमखण्ड स्खलन
(एवलांच) से बचाने
के लिये सिंचाई
विभाग ने नब्बे
के दशक में
एवलांचरोधी सुरक्षा उपाय तो
कर दिये मगर
वे उपाय कितने
कारगर हैं, उसकी
अभी परीक्षा नहीं
हुयी है। मगर
मंदिर के पृष्ठभाग
में खड़े नारायण
पर्वत के ठीक
सिर पर आई
दरार इस बार
की केदारनाथ की
जैसी त्रासदी की
सम्भावनाओं को बढ़ा
देती है। इस
दरार का अध्ययन
राज्य सरकार ने
भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के
तत्कालीन निदेशक पी.सी.
नवानी से कराया
था। इस मंदिर
को हिमस्खलन के
अलावा अलकनन्दा द्वारा
किये जा रहे
कटाव से भी
खतरा बना हुआ
है। समुद्रतल से
3133 मीटर की ऊंचाई
पर अलकनन्दा के
किनारे बने इस
15 मीटर ऊंचे मंदिर
का कई बार
जीर्णोद्धार हो चुका
है। यह मंदिर
पूर्व में भी
विशाल एवलाचों से
क्षतिग्रस्त हो चुका
है। अतीत में
प्रचण्ड भूकम्प के झटके
भी इस मंदिर
को कई बार
झकझोर चुके हैं।
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार
यह वैदिक काल
से भी पुराना
मंदिर है, जिसका
आठवीं सदी में
आद्यगुरू शंकराचार्य ने पुनर्निर्माण
किया था।
भागीरथी के उद्गम
क्षेत्र में स्थित
गंगा नदी का
गंगोत्री मंदिर भी निरन्तर
खतरे झेलता जा
रहा है। इस
मंदिर पर भैंरोझाप
नाला खतरा बना
हुआ है। समुद्रतल
से 3200 मीटर की
ऊंचाई पर स्थित
गंगोत्री मंदिर का निर्माण
उत्तराखण्ड को जीतने
वाले नेपाली जनरल
अमर सिंह थापा
ने 19वीं सदी
में किया था।
करोड़ों हिन्दुओं की मान्यता
है कि भगीरथ
ने अपने पुरखों
के उद्धार हेतु
गंगा के पृथ्वी
पर उतरने के
लिये इसी स्थान
पर तपस्या की
थी। इसरो द्वारा
देश के चोटी
के वैज्ञानिक संस्थानों
की मदद से
तैयार किये गये
लैण्ड स्लाइड जोनेशन
मैप के अनुसार
गंगोत्री क्षेत्र में 97 वर्ग
कि.मी. इलाका
भूस्खलन की दृष्टि
से संवेदनशील है
जिसमें से 14 वर्ग कि.मी. का
इलाका अति संवेदनशील
है। गोमुख का
भी 68 वर्ग कि.मी. क्षेत्र
संवेदनशील बताया गया है।
भूगर्व सर्वेक्षण विभाग के
वैज्ञानिक पी.वी.एस. रावत
ने अपनी एक
अध्ययन रिपोर्ट में गंगोत्री
मंदिर के पूर्व
की ओर स्थित
भैरांेझाप नाले को
मंदिर के अस्तित्व
के लिये खतरा
बताया है और
चेताया है कि
अगर इस नाले
का शीघ्र इलाज
नहीं किया गया
तो ऊपर से
गिरने वाले बडे़
बोल्डर कभी भी
गंगोत्री मंदिर को धराशयी
करने के साथ
ही भारी जनहानि
कर सकते हैं।
मार्च 2002 के तीसरे
सप्ताह में नाले
के रास्ते हिमखण्डों
एवं बोल्डरों के
गिरने से मंदिर
परिसर का पूर्वी
हिस्सा क्षतिग्रसत हो गया
था। यह नाला
नीचे की ओर
संकरा होने के
साथ ही इसका
ढलान अत्यधिक है।
इसलिये ऊपर से
गिरा बोल्डर मंदिर
परिसर में तबाही
मचा सकता है।
यमुना के उद्गम
स्थल यमुनोत्री धाम
को अब तक
आड़ देने वाला
कालिन्दी पर्वत इस विख्यात
तीर्थ के लिये
खतरा बन गया
है। 27 जुलाइ 2004 को कालिन्दी
पर्वत पर हुये
भूस्खलन से यमुनोत्री
मंदिर के निकट
सो रहे 6 लोग
जान गंवा बैठे
थे। इस हादसे
के मात्र एक
महीने के अन्दर
ही कालिन्दी फिर
दरक गया और
उसके मलवे ने
यमुना का प्रवाह
ही रोक दिया। कालिन्दी
पर्वत यमुनोत्री मन्दिर
के लिये स्थाई
खतरा बन गया
है। सन् 2001 में
यमुना नदी में
बाढ़ आने से
मंदिर का कुछ
भाग बह गया
था।
पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट
के अनुरोध पर
कैबिनेट सचिव की
पहल पर इसरो
ने सन् 2000 में
वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान,
भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग,
अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र, भौतिकी
प्रयोगशाला हैदराबाद, दूर संवेदी
उपग्रह संस्थान आदि कुछ
वैज्ञानिक संस्थानों के सहयोग
से हिमाचल प्रदेश
और उत्तराखण्ड के
मुख्य केन्द्रीय भ्रंश
के आसपास के
क्षेत्रों का लैण्ड
स्लाइड जोनेशन मैप तैयार
किया था। उसके
बाद इसरो ने
ऋषिकेश से बद्रीनथ,
ऋषिकेश से गंगोत्री,
रुद्रप्रयाग से केदारनाथ
और टनकपुर से
माल्पा ट्रैक को आधार
मान कर जोखिम
वाले क्षेत्र चिन्हित
कर दूसरा नक्शा
तैयार किया था।
इसी प्रकार संसथान
ने उत्तराखण्ड की
अलकनन्दा घाटी का
भी अलग से
अध्ययन किया था।
ये सभी अध्ययन
2002 तक पूरे हो
गये थे और
इन सबकी रिपोर्ट
उत्तराखण्ड के साथ
ही हिमाचल प्रदेश
की सरकार को
भी इसरो द्वारा
उपलब्ध कराई गयी
थी, मगर आज
इन रिपोर्टों का
कहीं कोई अता
पता नहीं है।
उत्तराखण्ड
के चारों तीर्थों
के साथ ही
समूचा प्रदेश भूकम्प,
भूस्खलन एवं बादल
फटने से त्वरित
बाढ के गम्भीर
खतरे की जद
में है। राज्य
के 232 गांव भूस्खलन
की दृष्टि से
संवेदनशील घोषित किये गये
हैं। हालांकि घोषणा
के अलावा वहां
कोई भी सुरक्षात्मक
कार्य नहीं हुआ।
सन् 1998 में मालपा
के साथ ही
ऊखीमठ और मदमहेश्वर
घाटी में भारी
तबाही हुयी थी।
उस समय घाटी
के लगभग एक
दर्जन गांव खिसक
गये थे और
100 से अधिक लोग
मारे गये थे।
मगर उन गांवों
का आज तक
पुनर्वास नहीं हुआ।
उसके बाद केदार
घाटी आपदाओं की
घाटी बन गयी
है मगर वहां
आपदा प्रबन्ध के
कोई उपाय नहीं
हो पाये हैं।
हिमालय के चारों
तीर्थ बद्रीनाथ, केदारनाथ,
गंगोत्री और यमुनोत्री
तथा सिख तीर्थ
हेमकुण्ड साहिब हर साल
लगभग 20 लाख देशी
विदेशी तीर्थ यात्रियों को
आकर्षित करते हैं।
इन तीर्र्थों के
लिये लगभग 1350 कि.मी. लम्बा
रूट दर्जनों जगहों
पर बेहद संवेदनशील
होने के कारण
लाखों तीर्थ यात्रियों
के लिये जोखिमपूर्ण
बना हुआ है।
इसरो द्वारा उत्तराखण्ड सरकार
को सौंपी गयी
रिपोर्ट के अनुसार
ऋषिकेश से लेकर
बद्रीनाथ के बीच
110 स्थान या बस्तियां
भूस्खलन के खतरे
में हैं और
441.57 वर्ग कि.मी.
क्षेत्र भूस्खलन से प्रभावित
है। इसी प्रकार
केदारनाथ क्षेत्र में 165 वर्ग
कि.मी. क्षेत्र
भूस्खलन खतरे की
जद में है।
इस संयुक्त वैज्ञानिक
अध्ययन में रुद्रप्रयाग
से लेकर केदारनाथ
तक 65 स्थानों को
संवेदनशील बताया गया है।
वाडिया हिमालयी भूगर्व संस्थान
का हवाला देते
हुये इसरो की
रिपोर्ट में ऋषिकेश
के आसपास के
89.22 वर्ग कि.मी.
क्षेत्र को संवेदनशील
बताया गया है।
इसी तरह देवप्रयाग
के निकट 15 वर्ग
कि.मी क्षेत्र
को अति संवेदनशील
माना गया है।
श्रीनगर गढ़वाल के निकट
33 वर्ग कि.मी.
क्षेत्र को संवेदनशील
तथा 8 वर्ग कि.मी क्षेत्र
को अति सेवेदनशील
बताया गया है।
इस साझा अध्ययन
में सी.बी.आर.आइ.
रुड़की की भी
मदद ली गयी
है। इन संस्थानों
के अध्ययनों का
हवाला देते हुये
रुद्रप्रयाग से लेकर
बद्रीनाथ तक सड़क
किनारे की 52 बस्तियों को
तथा टिहरी से
गोमुख तक 365.29 वर्ग
कि.मी. क्षेत्र
को संवेदनशील और
32.075 वर्ग कि.मी.
को अति संवेदनशील
बताया गया है।
भारतीय भूगर्व सर्वेक्षण विभाग
के डा0 प्रकाश
चन्द्र की एक
अध्ययन रिपोर्ट में डाकपत्थर
से लेकर यमुनोत्री
तक के 144 कि.मी. क्षेत्र
में 137 भूस्खलन संवेदनशील स्पाट
बताये गये हैं।
पिछले साल उत्तरकाशी
में असी गंगा
की श्रोत झील
डोडीताल पर बादल
फटा था जिससे
असी गंगा ने
भारी तबाही मचा
दी थी। इस
बार केदारनाथ केे
बासुकी ताल पर
बादल फट गया।
हिमालय पर भारी
जलराशियों वाली ऐसी
सेकड़ों झीलें हैं, जिनसे
भविष्य में भारी
तबाही हो सकती
है। सन् 1840 से
लेकर 1998 तक उत्तराखण्ड
में 15 बड़ी और
दर्जनों छोटी भूस्खलन
या त्वरित वाढ़
त्रासदियां आ चुकी
हैं। सन् 1846 में
काली नदी में
भूस्खलन से नदी
का बहाव कुछ
समय के लिये
रुक गया था।
सन् 1857 में इसी
मन्दाकिनी का जल
प्रवाह भारी भूस्खलन
से 3 दिन तक
रुक गया था
और जब नदी
का प्रवाह खुला
तो बाढ़ आ
गयी थी। सन्
1898 में बिरही गंगा में
भूस्खलन से बनी
झील के टूटने
से अलकनन्दा में
बाढ़ आ गयी
थी, जिससे 73 लोग
मारे गये थे।
उसके बाद सन्
1894 में बिरही गंगा में
गौणाताल बना जो
1970 में टूटा तो
अलकनन्दा फिर विफर
गयी। सन् 1978 में
कण्डोलिया गाड पर
भूस्खलन से बनी
झील के टूटने
से भगीरथी में
बाढ़ आ गयी
थी।
उत्तराखण्ड
सरकार ने स्वयं
भी प्रदेश के
232 गांव भूस्खलन की दृष्टि
से संवेदनशील तो
घोषित कर दिये
मगर उनकी सुरक्षा
के उपाय नहीं
किये। राज्य सरकार
अभी तक 1998 में
उजड़े केदार घाटी
के गावों का
पुनर्वास नहीं कर
पाई। जब सरकार
अपनी ही रिपोर्टों
पर गौर नहीं
करती तो फिर
उससे इसरो की
रिपोर्ट पर गौर
करने के बाद
कार्यवाही की उम्मीद
कैसे की जा
सकती है। राज्य
सरकार की यह
लापरवाही अब तक
तो केवल उत्तराखण्डवासियों
पर भारी पड़
रही थी मगर
इस लापरवाही की
चपेट में इस
बार देशभर के
हजारों तीर्थ यात्री भी
आ गये हैं।
पर्यावरण की दृष्टि
से इन हिमालयी
तीर्थों की धारक
क्षमता या कैरीइंग
कैपेसिटी समाप्त हो चुकी
है। ऐसी स्थिति
में सवाल उठने
लगा है कि
क्या इतनी भारी
संख्या में तीर्थ
यात्रियों को इतने
अधिक इको
फ्रेजाइल क्षेत्र में जाने
देना या उन्हें
आकर्षित करना सुरक्षित
है?
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-जयसिंह रावत
पत्रकार
ई- 11 फें्रण्ड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-
09412324999
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